किसने सोचा था कि ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ कोई मुकाबला पेनाल्टी शूट आउट तक जाएगा। यह टीम तो हमें बड़े-बड़े अंतर से हराती रही है लेकिन चैंपियंस ट्रॉफी का फाइनल ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ ऐसा मुकाबला लेकर आया, जिसकी उम्मीद भारतीय हॉकी के बड़े से बड़े समर्थक ने नहीं की थी। भले ही मुकाबला हारा, लेकिन पहली बार चैंपियंस ट्रॉफी का रजत पदक जीतना हर लिहाज से बहुत बड़ी उपलब्धि है। अब दुआ यही है कि कोई अचानक यह सवाल न उठा दे कि ऑस्ट्रेलिया तो बेस्ट टीम के साथ आई ही नहीं थी।
भारतीय हॉकी टीम जिस दिन अपने से बेहतर रैंकिंग वाली टीम को हराती है, मेरी नजरें सोशल मीडिया पर होती हैं। एक सवाल आने की उम्मीद होती है – क्या सामने वाली टीम अपनी बेस्ट टीम लेकर नहीं आई? चैंपियंस ट्रॉफी में भारत ने जर्मनी से पहला मैच ड्रॉ खेला और दूसरे में ब्रिटेन को हरा दिया। सोशल मीडिया पर सवाल वही – क्या सामने वाली टीमें अपने बेस्ट प्लेयर्स के साथ आई हैं? फाइनल की सुबह नींद से उठते ही पहला फोन सुना। सवाल वही – बाकी टीमें तो बेस्ट खिलाड़ियों के साथ नहीं आईं ना? हम भरोसा नहीं कर पाते कि हमारी टीम बेस्ट खिलाड़ियों के साथ आई टीमों को हरा सकती है।
सवाल, जो हमेशा टीम इंडिया के साथ रहे
कुछेक और सवाल हॉकी से जुड़े होते हैं। हमारी टीम फिटनेस में कब यूरोपियन टीमों के बराबर पहुंचेगी? हम तो आखिरी मिनट में थक जाते हैं, कब सुधरेंगे? अभी चैंपियंस ट्रॉफी में सिल्वर जीता है। ऐसे में शायद अभी लोग फिटनेस पर सवाल न करें लेकिन बाकी बातें जैसे भारतीय हॉकी के साथ जुड़ चुकी हैं। 36 साल बाद किसी बड़े टूर्नामेंट का फाइनल खेलने और 34 साल बाद चैंपियंस ट्रॉफी में रजत पदक जीतने की खुशी पर बात करने से पहले उन सवालों को देख लेते हैं। वे सवाल, जो हमेशा टीम इंडिया के साथ रहे हैं।
हम भारतीयों को आंकड़ों में बड़ी रुचि होती है इसलिए आंकड़ों के जरिए ही बात की जाए। दिसंबर 2014 में चैंपियंस ट्रॉफी हुई थी भुवनेश्वर में। उसके बाद अब लंदन में हुई है। हम इन दोनों सीरिज़ में टीमों की तुलना कर लेते हैं। यह तुलना एफआईएच के आंकड़ों के आधार पर है और आंकड़े दोनों साल टूर्नामेंट की शुरुआत के हैं।
ऑस्ट्रेलिया
-ऑस्ट्रेलियाई टीम के 18 खिलाड़ियों में 11 वही थे, जो 2014 में भुवनेश्वर आए थे चैंपियंस ट्रॉफी खेलने।
-ऑस्ट्रेलिया की उस टीम में औसतन हर खिलाड़ी ने 83 मैच खेले थे। 2016 की टीम में प्रति खिलाड़ी 95.6 मैच थे।
-टीम में सिर्फ एक खिलाड़ी था, जिसने दस से कम मैच खेले।
ब्रिटेन
-ब्रिटेन की इस टीम के 13 खिलाड़ी पिछली चैंपियंस ट्रॉफी में भी खेले थे।
- उस टीम में प्रति खिलाड़ी मैच का औसत था 92.5, इस बार था 139.8।
-सिर्फ तीन खिलाड़ी पचास से कम मैच खेले थे।
बेल्जियम
-पिछली बार खेली टीम के 18 में 15 खिलाड़ी इस टीम में भी थे।
-पिछली बार प्रति खिलाड़ी मैच थे 104.6, इस बार था 160।
- पचास से कम मैच खेला सिर्फ एक खिलाड़ी इस बार, पिछली बार ऐसे पांच थे।
जर्मनी
-पिछली बार खेली टीम के सात खिलाड़ी इस बार भी थे।
-पिछली बार प्रति खिलाड़ी मैच थे 62.8, इस बार 95.38।
-आठ खिलाड़ियों ने पचास से कम मैच खेले थे, पिछली बार नौ थे।
यहां हमें ध्यान रखना चाहिए कि जर्मन टीम नए कोच के साथ पुनर्निर्माण के दौर से गुजर रही है। लेकिन उसमें भी कई सीनियर खिलाड़ी वापस आए लेकिन हां, मोरित्स फूर्स्ते नहीं थे।
भारत
- भारत के नौ खिलाड़ी पिछली बार भी थे।
-पिछली बार प्रति खिलाड़ी मैच थे 90.5, इस बार रहे 79.27।
-पिछली बार पांच खिलाड़ी थे, जिन्होंने पचास से कम मैच खेले।
-इस बार 25 से कम मैच खेले सात खिलाड़ी थे। इनमें से तीन ने दस से कम मैच खेले हैं।
यह चैंपियंस ट्रॉफी की वे पांच टीमें हैं, जो ओलिपिंक खेलेंगी। अकेले भारतीय टीम है जिसका प्रति खिलाड़ी मैच पिछली बार से कम है। जर्मनी के अलावा अकेली यही टीम है जिसमें सबसे ज्यादा नए खिलाड़ी हैं। लेकिन जर्मनी पिछली बार कई अनुभवी खिलाड़ियों के बगैर आई थी, जो इस बार हैं। जबकि कई अहम खिलाड़ी हमारी टीम में नहीं हैं इसलिए अब उस मानसिकता से बाहर निकलने का वक्त है, जिसमें भारत की जीत के लिए दूसरों को श्रेय दिया जाता था।
सवाल यह है कि इस जीत को कितनी अहमियत दी जाए। यकीनन ओलिंपिक से ठीक पहले ज्यादातर टीमें अपना बेस्ट नहीं खेलतीं लेकिन यब बात तो भारत के भी साथ है। ऐसे में चैंपियंस ट्रॉफी अपने साथ यह संदेश लाई है कि अब ऑस्ट्रेलिया के अलावा बाकी टीमों को हराने की क्षमता भारत रखता है। ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ भी हमने दूरी कम की है। 2014 में नौ मैचों में तीन जीते, छह हारे। पिछले साल पांच मैचों में दो जीत और दो हार रहीं। बेहतर है, लेकिन फर्क अब भी काफी ज्यादा है।
कई साल की मेहनत का नतीजा
बाकी टीमों से कम हुई दूरी पिछले सात-आठ साल की मेहनत का नतीजा है। दरअसल, बेहतरी का सिलसिला होजे ब्रासा के समय शुरू हुआ। उनके जाने के बाद माइकल नॉब्स कमजोर कोच थे लेकिन फिटनेस ट्रेनर डेविड जॉन ने बेहतरीन काम किया। उस समय के बाद जितने लोग मानते हैं कि फिटनेस में भारतीय टीम बहुत पीछे है, वह शायद 80 और 90 के दशक की हॉकी से बाहर नहीं आए हैं। माइकल नॉब्स के ही कार्यकाल के दौरान रोलंट ओल्टमंस हाय परफॉर्मेंस डायरेक्टर के तौर पर आ गए थे फिर चीफ कोच नॉब्स की जगह टेरी वॉल्श आए, टीम और सुधरी। पॉल वान आस को ज्यादा समय नहीं मिला। उनके जाने के बाद ओल्टमंस ने पूरी तरह टीम की कमान संभाल ली, वही चीफ कोच हो गए। ऐसे में वह सिस्टम नहीं बिगड़ा, जो नए कोच आने से कई बार बिखर जाता है।
टीम को एक्सपोजर मिला। फेडरेशन का साथ मिला। हॉकी इंडिया लीग का फायदा मिला। इन सबने आज भारतीय टीम को वहां पहुंचाया है, जहां कम से कम एशियाई टीमें उससे बहुत पीछे दिखती हैं। ऑस्ट्रेलिया के अलावा दुनिया की बाकी शक्तिशाली टीमों के वह आसपास नजर आती है। चैंपियंस ट्रॉफी का पदक इसी मेहनत का नतीजा है। लेकिन इस कामयाबी का मतलब यह नहीं है कि हमारा ओलिंपिक में पदक जीतना पक्का हो गया है।
अब भी है सुधार की काफी जरूरत
अभी टीम को बहुत काम करना है। उम्मीद है कि इस टूर्नामेंट में नहीं खेले सरदार सिंह और अनफिट बीरेंद्र लाकड़ा के आने से मिड फील्ड सुधरेगा। डिफेंस ने अच्छा खेल दिखाया है। हालांकि यहां भी पेनाल्टी कॉर्नर देने में हमने जो उदारता दिखाई है, उसे सुधारने की जरूरत है। श्रीजेश पर जरूरत से ज्यादा निर्भरता भारी पड़ सकती है। फॉरवर्ड लाइन ने कमजोरी दिखाई है। हमें जीतने के लिए गोल करना जरूरी है। साथ ही, पेनाल्टी कॉर्नर भी लेना जरूरी है। इन दोनों मामलों में कमी दिखाई दी है। यहां सुधार करके ही ओलिंपिक में पदक आएगा।
हमें ध्यान रखना चाहिए कि बाकी सभी टीमें चैंपियंस ट्रॉफी के मुकाबले बेहतर खेलेंगी। लंदन के मुकाबले रियो में टीमों का प्रदर्शन काफी कुछ अलग होगा। ऐसे में चैंपियंस ट्रॉफी की कामयाबी रियो में मेडल की गारंटी नहीं है। यह सिर्फ वो प्रक्रिया है, जो कुछ साल पहले शुरू हुई थी जिसके तहत 2014 में 16 साल बाद हमने एशियाड का स्वर्ण जीता। 2015 में वर्ल्ड हॉकी लीग में कांस्य के साथ 33 साल बाद किसी एफआईएच टूर्नामेंट में पदक जीता। और अब, चैंपियंस ट्रॉफी के इतिहास में पहली बार रजत जीता। इसे फ्लूक या दूसरों के कमजोर होने की वजह से मिली कामयाबी न बताएं। यह कामयाबी बड़ी मेहनत से आई है। अरसे बाद आई है। इसका आनंद लें और रियो की तैयारी में जुट जाएं, क्योंकि वहां कामयाबी का रास्ता और ज्यादा मुश्किल है।
(शैलेश चतुर्वेदी वरिष्ठ खेल पत्रकार और स्तंभकार है)
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।
This Article is From Jun 18, 2016
यह मेहनत का पदक है, मेहरबानी का नहीं...
Shailesh Chaturvedi
- ब्लॉग,
-
Updated:जून 18, 2016 14:49 pm IST
-
Published On जून 18, 2016 14:48 pm IST
-
Last Updated On जून 18, 2016 14:49 pm IST
-
NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं
चैंपियन्स ट्रॉफी, भारत बनाम ऑस्ट्रेलिया हॉकी, भारतीय हॉकी टीम, Champions Trophy Hockey, India Vs Australia Hockey, Indian Hockey Team