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This Article is From Jul 01, 2016

वह मोहम्मद शाहिद, जो हीरो है... और हमेशा रहेगा...

Shailesh Chaturvedi
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 01, 2016 16:33 pm IST
    • Published On जुलाई 01, 2016 11:55 am IST
    • Last Updated On जुलाई 01, 2016 16:33 pm IST
सिडनी ओलिंपिक से पहले की बात है, साल था 2000... हॉकी टीम का विदाई समारोह था... धनराज पिल्लै कप्तान थे... उनसे एक लंबा इंटरव्यू करना था, क्योंकि कप्तानी के साथ उन्हें उस साल राजीव गांधी खेलरत्न भी दिया जा रहा था... धनराज अपनी शुरुआत और करियर के बारे में बताते रहे... अचानक ज़िक्र आया मोहम्मद शाहिद का... धनराज की आंखों में चमक आ गई, 'वह तो हॉकी के भगवान हैं... मुझे याद है, जब मैं पहली बार मिला था... हिम्मत नहीं हो रही थी पास जाने की... किसी तरह गया, उनके पैर छुए... उन्होंने बीच में ही रोक लिया और बोले – अरे पिल्लै, क्या करते हो... गले लगो...' धनराज बताते रहे कि कैसे गले लगकर वह आंसू नहीं रोक पाए... शाहिद ने तब कहा, 'अरे, तुम हमको भी रुलाओगे क्या...'

किसी के लिए हीरो क्या होता है, यह धनराज पिल्लै के इस किस्से से समझ आता है... मोहम्मद शाहिद से मेरी पहचान रेडियो की है... वह दौर आज से अलग था... देश-विदेश के हर हॉकी मैच की कमेंटरी रेडियो पर होती थी... लखनऊ और गोरखपुर जैसे शहरों में हो रहे घरेलू टूर्नामेंट की भी... शाहिद के पास गेंद आने पर कमेंटेटर का उत्साह रेडियो सुन रहे लोगों तक पहुंचता था... ...और अंदाजा लगाया जाता था कि आखिर वह जादूगर होगा कैसा, जो किसी को भी मैदान पर छका सकता है... अखबारों और खेल पत्रिकाओं में तस्वीरें छपती थीं... घुंघराले बालों वाले छरहरे शाहिद... वह शाहिद, जिनसे पाकिस्तानी टीम थर्राती थी... एक मैच हारने के बाद हसन सरदार ने कहा था कि हम भारत से नहीं हारे, शाहिद से हारे हैं...

फोन पर कुछेक बार बात होने के बाद 2004 में वह लम्हा आया, जब पहली बार शाहिद से रू-ब-रू होने का मौका मिला... हालांकि मौका अच्छा नहीं था... भारतीय टीम का हिस्सा रहे बनारस के खिलाड़ी विवेक सिंह को कैंसर था... शाहिद उनकी मदद कर रहे थे... दिल्ली में कुछेक लोगों ने अपने स्तर पर मदद की कोशिश की, जिनमें मैं भी था... उसी सिलसिले में शाहिद भी आए थे... घुंघराले बालों की जगह अधगंजे सिर ने ले ली थी... छरहरे शरीर पर अब तोंद दिखने लगी थी... लेकिन गर्मजोशी वैसी ही, जिसका धनराज पिल्लै ने कुछ साल पहले ज़िक्र किया था, 'आओ पार्टनर...' शाहिद के लिए हर व्यक्ति पार्टनर ही होता है... वह इसी नाम से संबोधित करते हैं... हमने साथ मिलकर एक चैरिटी मैच रखा... इसमें शाहिद समेत देश के तमाम बड़े खिलाड़ियों ने शिरकत की... शाहिद खेले... थोड़ा थके हुए शाहिद, थोड़ा धीमे पड़ गए शाहिद, लेकिन ड्रिब्लिंग का अंदाज वैसा ही, जिसके लिए पूरी दुनिया उन्हें जानती है...

उस मैच के दौरान हम लोग शिवाजी स्टेडियम में इंतज़ाम देख रहे थे... अचानक मुझे दिखा कि एक व्यक्ति घेरा तोड़कर टर्फ की ओर जाना चाहता है, और लोग उसे रोकने की कोशिश कर रहे हैं... हम दो-तीन लोग उसके पास पहुंचे, तो उसने लगभग हाथ जोड़ लिए... उसके साथ छोटा-सा बच्चा था, 'प्लीज़, मुझे अंदर जाने दीजिए... मैं हिमाचल से कल रात की ट्रेन पकड़कर आया हूं... आज ही पहुंचा हूं... मैं अपने बच्चे को दिखाना चाहता हूं कि मोहम्मद शाहिद कौन हैं, कैसे दिखते हैं...' उन सज्जन ने शाहिद को अपने बच्चे से मिलवाया... शाहिद ने सिर पर हाथ रखा और गर्मजोशी से कहा, 'यही प्यार तो हमको ज़िन्दा रखता है...'

उस रात शाहिद का एक अलग रूप भी दिखाई दिया... मोहम्मद रफी के गानों और कव्वालियों के साथ उन्होंने और महान अशोक कुमार ने महफिल जमा दी, 'बनारसी हैं, तो संगीत से तो प्रेम होगा ही...'

विवेक सिंह के एक मैच के लिए वाराणसी भी जाना हुआ... वहां पहुंचते ही शाहिद साहब के पहले कुछ शब्द थे, 'पार्टनर, नहा-धो लो... कुछ नाश्ता कर लो... फिर मैं काशी विश्वनाथ के दर्शन करवाता हूं...' जो मजहबी भाई–चारा लोगों की जुबान पर महज भाषणों का हिस्सा होता है, वह शाहिद के लिए ज़िन्दगी जीने का सहज तरीका था... उस दिन समझ आया कि शाहिद ने बनारस क्यों नहीं छोड़ा... वह कभी छोड़ ही नहीं सकते थे... उनके शरीर में, उनके तन-मन में बनारस बसा है, 'बाबा विश्वनाथ की धरती है... बाप-दादाओं की धरती है, कैसे छोड़ूंगा....' बनारस से प्यार के लिए उन्होंने बड़े-बड़े ऑफर ठुकरा दिए, 'कुछ दिन बाहर रहता हूं, तो याद आने लगती है बनारस की... ज्यादा दिन नहीं रह सकता अलग...' कुछ समय बाद विवेक सिंह की मौत हो गई... शाहिद का फोन आया, 'पार्टनर, विवेक चला गया... बाबा (शिव) उसे अपने पास बुलाना चाहते थे...'

हॉकी इंडिया ने कुछ साल पहले एक समारोह में सभी ओलिंपिक मेडलिस्ट को सम्मानित किया था... शाहिद भी आए थे... अपने गोल्ड मेडल के साथ... उनसे होटल में मुलाकात हुई... गोल्ड मेडल हाथ में लिया, तो उन्होंने कहा, 'पार्टनर, गले में पहनकर देखो...' मुझे पता था कि मोहम्मद शाहिद का गोल्ड मेडल अपने गले में पहनना उनका अपमान है... गुजारिश की, शाहिद भाई आप पहनिए, मैं हकदार नहीं... वह मुस्कुराए... उन्होंने पहनकर फोटो खिंचाया... हाथ आगे बढ़ाए, 'जानते हो शैलेश, लोग मैच के बाद आते थे... इन हाथों को चूमते थे... कहते थे कि इसमें भगवान और अल्लाह हैं... उनका ही दिया हुआ हुनर था कि दुनिया का कोई भी फारवर्ड (फॉरवर्ड नहीं) मेरा दिन होने पर मुझसे बाल (बॉल नहीं) नहीं छीन पाता था...'

वह हमेशा हाकी कहते थे, हॉकी नहीं... बताते भी थे कि हॉकी तो अंग्रेज कहते हैं... बनारसियों के लिए तो यह हाकी है... लेकिन इस हॉकी ने उन्हें तकलीफ भी दी... उनकी बेटी के दिल में छेद था... दिल्ली में इलाज हुआ, लेकिन वह बच नहीं सकी... वह दौर था, जब शाहिद खेल रहे थे... वह टूट गए... खुद को दोषी मानते थे कि हॉकी की वजह से वह बच्ची पर उतना ध्यान नहीं दे पाए, जितना देना चाहिए था... टूट वह तब भी गए थे, जब अपने आखिरी ओलिपिंक मैच में उन्हें पहले हाफ में खिलाया ही नहीं गया... वहीं पर उन्होंने खेल छोड़ने का फैसला किया था... जिंदगी के ये दो लम्हे ऐसे थे, जिन्होंने शाहिद को तोड़ दिया... उनकी ज़िन्दगी ने अनुशासन मानने से जैसे इंकार कर दिया... वह अनुशासनहीनता उन्हें इस मुकाम पर ले आई है कि अपनी रफ्तार के लिए जाना जाने वाला खिलाड़ी आज चलने में भी बेबस है... जिसे हवाई यात्रा से डर लगता है, उसे एयर एम्बुलेंस से वाराणसी से दिल्ली लेकर आया गया... जिसके लिवर से लेकर किडनी तक समस्याएं ही समस्याएं हैं...

हम शाहिद को इसलिए नहीं याद कर रहे कि उन्होंने 20 साल की उम्र में ओलिपिंक गोल्ड जीत लिया था... चैम्पियन्स ट्रॉफी और एशियाड के पदक जीते... अर्जुन अवॉर्ड और पद्मश्री पाए... इसलिए भी नहीं कि उसके बाद उनके हिस्से मैदान और मैदान के बाहर इनके अलावा और भी कामयाबियां आईं... हम उस जादूगर को याद कर रहे हैं, जिसने पूरी पीढ़ी को मंत्रमुग्ध किया... जब हॉकी में ड्रिब्लिंग की बात होती है, तो शाहिद याद आते हैं... जब रफ्तार की, डॉज की, खेल में जादूगरी की बात होती है, तो शाहिद याद आते हैं... जब ज़िन्दादिली की बात होती है, तो शाहिद याद आते हैं... जब बनारस की बात होती है, तो शाहिद याद आते हैं... यकीन है वह उठेंगे, उन्हें बनारस की याद आएगी... मेदांता अस्पताल में भर्ती शाहिद निकलेंगे और शायद फिर पूछेंगे, 'पार्टनर, बनारस कब आ रहे हो... आओ, बढ़िया जलेबी और पान खिलाऊंगा...'

शैलेश चतुर्वेदी वरिष्‍ठ खेल पत्रकार और स्तंभकार हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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