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This Article is From Nov 10, 2016

'महान अमेरिका' के सपने के बीच समझें ट्रम्प की जीत के मायने

Dr Vijay Agrawal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    नवंबर 10, 2016 16:55 pm IST
    • Published On नवंबर 10, 2016 16:27 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 10, 2016 16:55 pm IST
अमेरिका के राष्ट्रपति के चुनाव शुरू होने की पूर्व संध्या पर जब मैंने न्यूजर्सी में रह रहे अपने दोस्त से चुनावी हालातों के बारे में जानना चाहा, तो उनके इस उत्तर में मुझे थोड़ी सी अमेरिकी दंभ की बू महसूस हुई थी कि ‘‘अमेरिका के लोगों की योग्यता इन दोनों उम्मीदवारों की अपेक्षा बेहतर उम्मीदवारों के बीच चुनाव करने की है. लेकिन शुक्र है कि इन दोनों में भी हिलेरी जीत रही हैं.’’ लेकिन अब, जबकि हिलेरी हार गईं हैं, वह उतनी बड़ी खबर नहीं है, जितनी बड़ी यह कि ट्रम्प जीत गए हैं. तथा अब ‘अमेरिकी योग्यता’ के बारे में उनके क्या ख्याल होंगे और इसके लिए उन्हें किस तरह के प्रमाण की जरूरत होगी, बताना जरूरी नहीं है. दरअसल, न केवल ट्रम्प की जीत ही, बल्कि इस बार का अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव का पूरा अभियान ही कुछ इस तरह का रहा है, जिसने अमेरिका के छद्म चेहरे पर से नकाब को हटाकर उसके असली चेहरे के दर्शन पूरी दुनिया को करा दिए हैं. यह जीत कहीं न कहीं बौद्धिकता के सामने अबौद्धिकता की, ज्ञान के सामने व्यापार की, साथ ही सुगढ़ता के सामने अगढ़ता की जीत दिखाई पड़ रही है.

दुनिया ने पहली बार अमेरिका की वास्तविक भाषा को सुना है. उसके राजनीति के स्तर को महसूस किया है. हार एवं जीत के मामले में एक-दूसरे को भयानक शत्रु मानकर कहीं न कहीं लोकतंत्र के सार पर सवाल खड़ा किया है. यह और साफ हो गया है कि अमेरिकी लोकतंत्र सही मायनों में असहमतियों के बीच सहमति का कितना लोकतंत्र है. साथ ही यह भी दिखता है कि अब अमेरिका राजनीतिज्ञों के द्वारा नहीं, बल्कि रियल एस्टेट के व्यापारियों द्वारा निर्देशित होना चाहता है. शायद अमेरिका है भी यही और वह जो है, वही हो गया है.

यह बात भी गौर करने लायक है कि लगभग दो सौ पच्चीस साल पहले अपनी आजादी हासिल करने के बाद फ्रांस की क्रांति को प्रेरित करने वाले इस देश ने अपनी महिलाओं को वोट डालने की आजादी देने में उसके बाद लगभग एक सौ चालीस साल लगा दिए. मताधिकार के भी करीब 95 साल बाद उसे अपने माथे के इस काले टीके को पोंछने का मौका मिला था कि वह अपने देश की बागडोर पहली बार किसी महिला के हाथ में थमाए. लेकिन उसके पौरुष-दम्भ को यह गंवारा नहीं हो सका. इसके बदले उसने अपनी बागडोर उसे दे दी, जो अपने चुनावी अभियान के दौरान भी महिलाओं के प्रति अपनी रंगीन-मिजाजी का खुलेआम इज़हार करता रहा. जाहिर है कि क्या अब चरित्र के आधार पर राष्ट्रपति के ऊपर महाभियोग लगाने के पूर्व राष्ट्रपति क्लिंटन के दौर का अवसान हो गया है? मानवाधिकार के नाम पर दुनिया भर में डंडा खड़काने वाले अमेरिका से यह भी पूछना बनता ही है.

लेकिन यहाँ जो सबसे बड़ी बात है, वह यह कि दुनिया भर को खुलेपन का रास्ता दिखाने वाले अमेरिका ने क्या अब संकीर्ण गलियों से बंद भवन की दिशा में जाना शुरू कर दिया है? इस संदर्भ में याद करने की बात है कि सन् 1980 के आसपास वे अमेरिका के राष्ट्रपति रीगन और ब्रिटेन की प्रधानमंत्री मारग्रेट थेचर ही थे, जिन्होंने सरकार के काम और दायित्वों को नए सिरे से परिभाषित करके ग्लोबलाइजेशन के विचारों की नींव रखी थी. इसे इतिहास की एक विडम्बना ही कहा जाएगा कि आज उसी ग्लोबलाइजेशन के खिलाफ कमोवेश इन दोनों ही देशों ने खड़े होने की शुरूआत कर दी है. कुछ ही महीने पहले ब्रिटेन ने ब्रेग्जीट का फैसला किया. अमेरिका ने ट्रम्प को चुनकर ट्रम्प के उस सिद्धांत पर मुहर लगा दी कि ‘‘जो अमेरिका के साथ रहना चाहेगा, अमेरिका उसके साथ रहेगा’’. यानी कि अमेरिका के सुर में बोलना आपकी मजबूरी है अन्यथा आप उसके दायरे से बाहर हैं.

इस प्रकार इस चुनाव ने न केवल ग्लोबलाइजेशन के अस्तित्व के सामने एक बहुत पैना और गहरा प्रश्नचिन्ह ही खड़ा किया है, बल्कि इस सवाल का उत्तर खोजने के लिए भी विवश कर दिया है कि आखिर क्यों ब्रिटेन और अमेरिका के साथ-साथ दुनिया के महारथी इनके परिणामों के बारे में सही-सभी पता लगाने में बहुत बुरी तरह असफल रहे हैं? जाहिर है कि इस असफलता के मूल में वहां के आम बहुसंख्यक लोगों की चेतना तक न पहुंच पाने की उनकी कमजोरी और सीमाएं रही हैं. विषेशज्ञों का यह वर्ग उसी समूह का सदस्य है, जिसे ग्लोबलाइजेशन की मलाई मिल रही है. इसलिए स्वाभाविक रूप से वह उसके पक्ष में है. जबकि इन देशों का बड़ा वर्ग न केवल आर्थिक रूप से ही इससे त्रस्त है, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से भी. इसलिए जब भी उसे जनमत के माध्यम से इसके प्रति अपने आक्रोश और असहमति को व्यक्त करने का मौका मिलता है, वह कर देता है. ब्रिटेन में ब्रेग्जिट वही था और अब अमेरिका में ट्रम्प वही है. ट्रम्प की जीत के जरिए अमेरिका ने साफ-साफ कह दिया है कि यदि दुनिया में ग्लोबलाइजेशन को बचाना है, तो उसका सिर्फ एक ही रास्ता है, और वह है कि ‘‘अमेरिका के कोरस गान के समूह में शामिल हो जाओ.’’

अंत में एक बात और. हिलेरी भी कहती थीं और ट्रम्प भी. ट्रम्प ने चुनाव जीतने के बाद भी वही बात फिर से कही कि ‘‘अमेरिका को महान बनाना है.’’ यानी कि बात साफ है कि वह अब तक महान था नहीं. दूसरे लोग ऐसा समझ रहे थे. इस चुनाव ने अमेरिका से यह आत्मस्वीकृति करा ली है और ट्रम्प की जीत ने तो और भी विषेश रूप से. निश्चित रूप से इस आत्मस्वीकृति से विश्व-राजनीति के माहौल में जो स्पेस निर्मित होगा, वह दुनिया के बहुत से देशों के लिए प्रेरक और उत्साहवर्द्धक हो सकता है. इन बहुत से देशों में भारत को अग्रणी बनने के बारे में सोचना चाहिए, क्योंकि उसके पास फिलहाल इस हेतु सारी संभावनाएं मौजूद हैं.

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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