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This Article is From May 28, 2015

संजय किशोर की कश्मीर डायरी-12 : 'मुगल दरबार' में वाज़वान, गोस्ताबा और रिस्ता

Sanjay Kishore
  • Blogs,
  • Updated:
    मई 28, 2015 16:59 pm IST
    • Published On मई 28, 2015 16:52 pm IST
    • Last Updated On मई 28, 2015 16:59 pm IST
(कश्मीर से लौटकर) : पहलगांव से लौटते समय रास्ते में सेब के अनगिनत बाग थे। लेकिन सीजन नहीं था। फ़ूल जरूर आए हुए थे। सेब का सीजन अक्टूबर में खत्म हो जाता है। भारत, बांग्लादेश और नेपाल में 80 फीसदी सेब कश्मीर से जाते हैं। सेब का कश्मीर की अर्थव्यवस्था में अहम योगदान है। आबिद के मोबाइल पर कोई फ़ोन आया।

"मेरी जान कैसी हो? खाना खा लिया? टॉफ़ी लेकर आऊंगा।" आबिद अपनी बेटी से बात कर रहा था। उसने बताया कि उसके बिना वो आसानी से खाना नहीं खाती।

श्रीनगर लौटते-लौटते शाम हो चली थी। चहल-पहल धीरे-धीरे बढ़ रही थी। दुकानों के शटर उठने शुरू हो गए थे। लेकिन दिन में पुलिस की गोली से बच्चे की मौत से एक डर तो बन ही गया था। लिहाज़ा सुरक्षा बलों की संख्या बढ़ी हुई नज़र आ रही थी। श्रीनगर की बेकरी भी बेहद मशहूर है। डल लेक के पास ही है 'जान बेकरी'। काफ़ी नाम सुना था। सबको काफ़ी भूख लग चुकी थी। हमने होटल जाने के पहले बेकरी से कुछ लेने का सोचा। बंद के कारण बेकरी का सामने का शटर तो बंद था, लेकिन पीछे एक दरवाजा खुला हुआ था। दिल्ली में ड्राई-डे पर शराब के दुकानदार भी ऐसा ही करते हैं। पिछले दरवाजे से सेल जारी रहता है। जान बेकरी की पेस्ट्री बेहद स्वादिष्ट थी।

शाम के स्नैक्स में पकौड़े खाने की तलब हुई। दुकानें धीरे-धीरे खुल रही थीं। पास के पंजाबी रेस्टोरेंट खुल चुके थे। साथ की गली में ही था एक बंगाली लॉज़ कम रेस्टोरेंट। रेस्टोरेंट की दीवारें लाल रंग से रंगी हुईं थी। दीवार पर काली मां की तस्वीर। पूरा माहौल बंगालीमय था। बंगाली और गुजराती शायद देश में सबसे ज्यादा घूमते हैं। ये लोग जहां जाते हैं, अपना ही खाना पीना पसंद करते हैं। मुझे इनकी ये आदत और इनका अंदाज़ बहुत पसंद आता है। बंगाली समुदाय ने जिस तरह से अपनी संस्कृति को बनाए रखा है, वो काबिलेतारीफ़ है। श्रीनगर में इस माहौल में रेस्टोरेंट चलाना हौसले की बात है। लेकिन आपको बता दूं कि पकौड़े बहुत ज़्यादा अच्छे नहीं थे।

श्रीनगर में आज हमारी आखिरी रात थी। यहां का परंपरागत भोजन करने का मन था। किसी ने बताया था कि ट्रेडिशनल खाने के लिए "मुगल दरबार" मशहूर है। आबिद अपनी टैक्सी लेकर जा चुका था। बहरहाल बाहर ऑटो वाले मिल गए।

"भई मुगल दरबार जाना है। शहर में लड़ाई-झगड़ा तो नहीं हो रहा? वहां जाने में कोई खतरा तो नहीं?"
"सब शांत है। डरने की कोई बात नहीं।", ऑटो वाले ने हमें आश्वस्त किया।

रास्ते में स्ट्रीट लाईट भी नहीं जल रही थी। बिल्कुल अंधेरा था। एक पल के लिए अपने निर्णय पर पछतावा भी हुआ। डर भी लगा। दिन भर कश्मीर बंद होने के कारण भी शायद ज्यादा चहल पहल नहीं थी। बहरहाल हम जल्दी ही "मुगल दरबार" पहुंच गए।

'अंबीयस' कुछ खास नहीं था। रेस्टोरेंट में कोई नहीं था। हम पहले ग्राहक थे। शायद बंद के कारण रेस्टोरेंट अभी-अभी ही खुला था।

वेटर ने हमें "वाज़वान" लेने की सलाह दी। वाज़वान 36 कोर्स मील होता है। "वाज़वान" यहां का परंपरागत खाना तो है ही, साथ ही ये एक कला से कम नहीं। कश्मीर की ये अपनी पहचान भी है। शादियों और त्योहारों में इसे ज़रूर बनाया जाता है। चार लोग एक साथ बैठकर खा सकते हैं।

"मुगल दरबार" के मालिक हाजी मोहम्मद इब्राहिम मुगलू दावा करते हैं कि "वाज़वान" को खास से आम लोगों तक उन्होने ही पहुंचाया। मुगली ने ही 1984 में मुगल दरबार खोला था। अब उनके बेटे रेस्टोरेंट चलाते हैं। "वाज़वान" में मीट और चिकेन की सारी वेराइटी परोसी जाती है। लेकिन हमने "गोस्ताबा" और "रिस्ता" के के बारे में सुन रखा था। कश्मीरी लोग गोस्ताबा को खाने का शहंशाह कहते हैं। ये मीट का बड़ा गोला होता है। गोस्ताबा में अदरक, दही और केसर का स्वाद होता है। गोस्ताबा की करी सफेद होती है, जबकि रिस्ता की लाल। रिस्ता काफ़ी तीखा होता है। इसे राइस के साथ खाया जाता है।

एक-एक प्लेट गोस्ताबा और रिस्ता हमारे लिए बहुत ज्यादा था। 4-4 बड़े-बड़े मीट के गोले और चावल का बहुत बड़ा पतीला। आखिर हम से खत्म नहीं हो पाया। यहां पैक कराके के कहां ले जाते। बिल बहुत ज़्यादा नहीं आया। बाहर निकले तो ऑटो मिल गया। नज़रें उठा कर देखी तो ऊपर पहली मंज़िल पर एक और "मुगल दरबार" था। ऑटो वाले ने बताया कि हाजी मोहम्मद इब्राहिम मुगलू वाला "मुगल दरबार" ऊपर वाला रेस्टोरेंट है। वैसे दोनों का खाना अच्छा है। थोड़ा अफ़सोस हुआ कि "असली" मुगल दरबार में नहीं जा पाए।

लौटते-लौटते 9 बज चुके थे। पास वाले मार्केट की कुछ दुकानें खुली हुई थीं। शॉल की शॉपिंग रह गयी थी। आबिद ने शॉपिंग करायी भी नहीं और पास के मार्केट से कुछ खरीदने से मना भी किया था। हमें अगले ही दिन लौटना भी था। तो हमने एक आबिद के मना करने के बावजूद पास की दूकानों का फिर से जायजा लेने का सोचा। पहले उसी टीवी-18 वाले बंदे के दुकान पर गया। लेकिन फिर कुछ पसंद नहीं आया। अगले दुकान पर एक शॉल पसंद आया। आखिरकार खरीदा लिया। सफर का तीसरा दिन ख़त्म हुआ। (ज़ारी है)

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