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This Article is From May 22, 2015

संजय किशोर की कश्मीर डायरी-8 : ब्रेकिंग न्यूज, श्रीनगर, सिज्ज़लर और सलमान खान

Sanjay Kishore
  • Blogs,
  • Updated:
    मई 22, 2015 15:17 pm IST
    • Published On मई 22, 2015 15:12 pm IST
    • Last Updated On मई 22, 2015 15:17 pm IST
कश्मीर से लौटकर : पैराडाइज होटल का रेनोवेशन चल रहा था। इंटरकॉम काम नहीं कर रहा था। लिहाज़ा हर बार रिशेप्सन पर जाना पड़ता था। बड़ी मुश्किल से टीवी चला। इस होटल में भी सोनी सिक्स पर मैच तो आ रहा था, लेकिन कमेंटरी की बजाए किसी दूसरे चैनल की आवाज़ आ रही थी। न्यूज़ चैनल्स पर मसर्रत आलम के कारण तनाव की ख़बरें आने लगीं थी। 'ब्रेकिंग न्यूज' और बढ़ा-चढ़ा कर खबरें दिखाने का असर पहली बार खुद पर महसूस किया। घर से लगातार फ़ोन आ रहे थे। रिश्तेदार और दोस्त आशंकित थे। कोई कुछ कह तो नहीं रहा था, लेकिन सभी की बातों से साफ़ झलकता था मानो वे पूछ रहे हों- कोई और जगह नहीं मिला था घूमने जाने के लिए?

आबिद को फ़ोन किया तो उसने आश्वस्त किया, "घबराने की ज़रूरत नहीं है। मेरा घर पास में ही है। कुछ दिक्कत हो तो आप लोगों को अपने घर ले आऊंगा। वैसे भी वे लोग टूरिस्ट को कुछ नहीं करते। डल झील के इलाके में कोई गड़बड़ नहीं होती।" दिल्ली के रिपोर्टर दोस्त को फ़ोन किया तो उसने भी कहा कि कुछ नहीं होगा, "अगर चाहते हो तो प्रोटेक्शन दिला दूंगा लेकिन फिर बंध जाओगे। वहां जाने का मज़ा किरकिरा हो जाएगा।"

इनके तसल्ली से थोड़ी राहत मिली। शाम को होटल के बाहर चहलकदमी करने निकले तो एक बुजुर्ग आ टपके। शिकारे वाले थे। ज़ोर देने लेगे की कश्मीर आए हैं तो शिकारे पर घूमना बनता है। हमने उनसे कहा कि कल देखेंगे। उन्होंने हाथ पकड़ लिया, "प्रॉमिस?" "प्रॉमिस, वैसे कल हमें पहलगांव जाना है। समय मिला तो ज़रूर घूमेंगे।"

ऑटो वाले आवाज़ लगा रहे थे- "10 रुपये में होल सेल मार्केट चलो। आओ बैठो।" मन तो था लेकिन मसर्रत आलम के कारण तनाव को देखते हुए गए नहीं। रात के 8 भी बज चुके थे।

आबिद ने होटल के पास के एम्पोरियम और दुकानों में शॉपिंग करने से मना किया था, लेकिन हम एक नज़र डालने चले गए। खादी भंडार टाइप के सरकारी एम्पोरियम में चीज़ें खासी महंगी थीं। लेकिन सामान्य दुकानों में दाम बहुत ज़्यादा नहीं थे। दुकान पर कुछ शॉल और स्टोल्स पसंद आए। लेकिन लिया नहीं क्योंकि लगा कि आबिद पहलगांव जाते समय शॉपिंग कराएगा।

"पता है मैं आज किससे मिला। सलमान भाई से। हां! हां! सलमान ख़ान से", फ़ोन पर एक दुकानदार किसी दोस्त से बात कर रहा था। दरअसल सलमान खान की फ़िल्म 'बजरंगी भाईजान' की शूटिंग कश्मीर में हो रही है। शायद वो वहीं सलमान से मिला होगा। (ये घटना सलमान की सज़ा और बेल से पहले की है।)

"आप एनडीटीवी में काम करते हैं", शॉल वाले के सवाल से मेरा ध्यान टूटा। "हां, लेकिन आपको कैसे पता?" मन ही मन खुश हो रहा था कि कश्मीर में भी लोग मुझे पहचानते हैं। ज़रूर उसने मुझे टीवी पर रिपोर्टिंग करते देखा होगा!
"आपके जैकेट के पीछे एनडीटीवी लिखा है।" मेरी खुशगहमी दो पल की थी। "दरअसल मैं भी मीडिया में काम कर चुका हूं। दिल्ली में टीवी-18 की शुरुआती टीम में था।" "फिर आपने छोड़ क्यों दिया?" "यहां अपना बिजनेस भी संभालना था। देखने वाला कोई नहीं था।"

उसने ढ़ेर सारी बातें की। कई लोगों के बारे में पूछा। कुछ लोगों को मैं जानता था कुछ को नहीं। पहले उसने कहा था कि वो अपनी दुकान पर मोल भाव नहीं करता। लेकिन जान-पहचान बनने के बाद उसने हमें कहा कि सही दाम लगा देगा। अगली दुकान पर एक शाल पसंद आई। लेकिन वहां भी लिया कुछ नहीं।

आज ही का वो दिन था जिसे यादगार बनाने धरती के स्वर्ग कश्मीर पहुंचे थे। मूड कुछ अच्छा खाने का था। आज भी "शामियाना" का ही रुख़ किया। आज यहां काफ़ी भीड़ थी। हालांकि हमें टेबल मिल गया। वेटर भी आ गया। "सिज्ज़लर है?" "सर इसमें तो टाइम लगेगा।" "कितना टाइम?" "आधे घंटे।" "कोई बात नहीं, हम इंतज़ार कर लेंगे।"

थोड़ी देर बाद वेटर आकर कहता है कि सिज्ज़लर नहीं हो पाएगा। सिज्ज़लर के धुएं पर पानी फिर गया। सबका मूड खराब हो गया। मौक़े को ख़ास बनाने की हसरत रह गई। शायद उन्होंने सिज्ज़लर को बस मेन्यू में डाल रखा था या फिर ज़्यादा भीड़ के कारण वे इसे सर्व नहीं करना चाहते हैं। अनमने ढंग से कुछ ऑर्डर दे दिया। खाना अच्छा ही था।

करीब 10 बज चुके थे। लेकिन चहल-पहल बाकी थी। डर जैसी कोई बात नज़र नहीं आई। हाउस बोट की रोशनी, डल झील के पानी पर प्रतिबिंब। क्या खूबसूरत तस्वीर थी।

होटल में एक बहुत बड़ा ग्रुप रुका हुआ था। शायद दक्षिण भारतीय थे। उनका गाना-बजाना चल रहा था। बीच-बीच में भगवान की जय जयकार भी लगा रहे थे। इस बीच टीवी पर खबर आ रही थी कि अलगाववादियों ने मसर्रत आलम की गिरफ़्तारी के ख़िलाफ़ अगले दिन कश्मीर बंद रखने का एलान किया है। पहलगांव जाने की योजना खटाई में पड़ती नज़र आयी।

तभी आबिद का फ़ोन आ गया। उसने कहा कि घबराने की बात नहीं। "बंद जरूर है, लेकिन हम जाएंगे ज़रूर।"
"लेकिन बंद में पथराव या तोड़फोड़ हो सकता है।" "अरे साहब, आबिद के रहते डरने की बात नहीं। हम सुरक्षित रास्ते से जाएंगे। वे टूरिस्ट को कुछ नहीं करते।" आबिद को समझना मेरे लिए मुश्किल था। हमने भी सोचा कि कुछ होगा तो शहर में ही होगा। हम सुबह जल्दी निकल जाएंगे और देर शाम लौटेंगे। तब तक जो होना होगा हो चुका होगा।
यात्रा का दूसरा दिन खत्म हुआ। (जारी है)

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