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This Article is From Jul 29, 2016

स्मरण - वसुंधरा कोमकली : सांवरा म्हारी प्रीत निभाजो जी...

Sandip Naik
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 29, 2016 00:10 am IST
    • Published On जुलाई 29, 2016 00:10 am IST
    • Last Updated On जुलाई 29, 2016 00:10 am IST
यह कहानी है एक बड़ी सी नदी की जो एक कालजयी समंदर में विलीन हुई और एक अनहद नाद का समंदर बन गई। उसने असंख्य सीपियों को सराहा, पुचकारा और प्यार दिया। सारी सीपियां प्रवाह में बहने लगीं। ऐसे बिरले लोग इस धरा पर कम ही आते हैं जो दूसरों में अवगुण खोजने के बजाय स्वयं में धैर्य, सहनशक्ति, समर्पण और संयम रखकर साधना में लीन  हो जाते हैं और लगातार सृजन से रचनाओं का एक विशाल पहाड़ खड़ा कर देते हैं। यह कहानी एक ऐसी महिला की है जिसकी आत्मा के पोर-पोर में संगीत की अनुगूंज थी और अनहद नाद उसकी सांसों में स्पंदित होता रहता था।

श्रीमती वसुंधरा ताई कोमकली सिर्फ एक नाम नहीं वरन भारतीय शास्त्रीय संगीत की वह चोटी है जहां पहुंचने के लिए अथक साधना, प्रयास, कड़े अभ्यास, दम तोड़ देने वाले रियाज और सबसे ज्यादा अपने गुरु के प्रति और संगीत के प्रति समर्पण की जरूरत होती है। 85 बरस की उम्र तक राग रागनियों के आरोह अवरोह में डूबीं वसुंधरा ताई को गत वर्ष हमने 29 जुलाई 2015 को खो तो दिया परन्तु जो काम वे करके गई हैं संगीत के क्षेत्र में उसकी भरपाई करना अब असंभव है। वस्तुतः वसुंधरा जी ने अपने गुरु प्रोफेसर बीआर देवधर और बाद में पंडित कुमार गंधर्व से जो सीखा उससे ज्यादा संगीत के संसार को लौटाया है। उनकी संगीत यात्रा में लगातार संगीत सीखना जीवन के स्थाई भाव की तरह था जो उन्होंने अंत तक निभाया।
 

जमशेदपुर में जन्मीं ताई ने मात्र बारह साल की कच्ची उम्र से अपने सुरों को मां की प्रेरणा और बड़े भाई की प्रेरणा से सींचना शुरू किया। इस दौरान शहर दर शहर भटकाव, गुरुओं के पास साधना, नौकरी, घर परिवार की जिम्मेदारी, फिर स्थाई रूप से देवास आ जाना और कुमार जी जैसे मनीषी के साथ कई बार उनकी अस्वस्थता में साथ देना ताकि वे संगीत के उन्मुक्त आकाश में चमक उठें। यह संघर्ष के पड़ाव, जीवन की जद्दोजहद, नौकरियां, अपने गुरु के साथ देश भर में यायावरी और इस बीच अपनी साधना को लगातार मथकर ओजस्वी बनाती रहीं। वे जानती थीं कि संगीत ही उनके प्राण हैं और इसमें उन्हें जो अपने गुरु से संस्कार मिले वे बहुमूल्य हैं। तभी वे संसार के साथ अपने गुरु, जो सौभाग्य से उनके पति भी थे, को साथ देते हुए भी अपना एक भिन्न संसार रच पाईं। वसुंधरा जी भारतीय शास्त्रीय संगीत की विदुषी गायिकाओं में एकमात्र ऐसी कला मनीषी हैं जो आज ज्येष्ठ गायिकाओं में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं।

23 मई 1931 को जमशेदपुर में एक मध्यमवर्गीय परिवार में ताई का जन्म हुआ। पिता विश्वनाथ श्रीखंडे टाटा स्टील्स में काम करते थे। मां रमाबाई श्रीखंडे बहुत ही सुलझी हुई घरेलू महिला थीं जिनके पीहर में वामपंथी विचारधारा का बोलबाला था। तीन भाईयों – मनोहर, सुधाकर, विद्याधर और दो बह्नों में ताई चौथे नंबर की थीं। बड़े भाई की इच्छा थी कि उसकी बहनें संगीत सीखें और खूब यश कमाएं। ताई की बड़ी बहन प्रभा दिलरुबा बजाती थीं और ताई को सुर पसंद आए। उस समय की उथल-पुथल में पिताजी को टाटा स्टील्स के कलकत्ता प्लांट में भेज दिया गया जिससे सारा परिवार कलकत्ता पहुंच गया। बड़े भाई मनोहर की नाटकों में बेहद रुचि थी और वह चाहते थे कि वसुंधरा जी गाना गाएं। घर में संगीत का माहौल था। ताई कहती थीं कि ''मुझ पर मेरे बड़े भाई का ऋण है अगर वह प्रेरित न करता तो मैं कभी संगीत की ओर उन्मुख नहीं होती।'' कलकत्ता में उस समय मराठी लोग बहुत कम थे और इन परिवारों में यह पूरा परिवार बहुत लोकप्रिय था क्योंकि बच्चे बेहद प्रतिभाशाली थे। कलकत्ता में ताई की मुलाकात कुमार जी से पहली बार हुई थी और उन्हीं से सीखने वे मुम्बई आईं।

कलकत्ता से ताई जब मुम्बई पहली बार आईं तो भानुमती ताई से मुलाकात हुई जिनसे वे बहुत प्रभावित हुईं। एक वैविध्य पूर्ण और पढ़े-लिखे परिवार की होने के कारण उन पर पर शिक्षा संस्कारों का बहुत ज्यादा प्रभाव था। परिवार की स्थिति के प्रति वे सचेत थीं इसलिए मुम्बई के बिरला गर्ल्स स्कूल में उन्होंने बरसों तक संगीत शिक्षिका के रूप में काम किया। वहां बड़ी मुश्किल दिनचर्या होती थी। सुबह सात बजे निकल जाती थीं। स्कूल करके, अपनी संगीत की कक्षाएं चलाना, फिर शाम को पंडित देवधर के यहां जाकर सीखना और फिर घर आकर तबले पर पुनः अभ्यास करना। इस सब में कब नौ बज जाते, पता ही नहीं चलता।

मुम्बई में ही रहकर वसुंधरा जी ने 1948 के दौरान वीर सावरकर कृत और चिंतामन कोल्हात्कर द्वारा निर्देशित नाटक “सन्यस्त खडग'' में महती भूमिका निभाई। मुम्बई में ही पुल देशपांडे के अमर नाटक “भाग्यवान” के लिए भीमसेन जोशी और जितेंद्र अभिषेकी के साथ पार्श्व गायन किया। मुम्बई में रहते हुए वसुंधरा जी ने कुमार जी से संगीत सीखने की कोशिश की, परंतु कुमार जी की घुमक्कड़ी के कारण वे वसुंधरा जी को ज्यादा समय नहीं दे पाते थे। कुमार जी की पत्नी भानुताई से उनके संबंध बहुत प्रगाढ़ हुए और वे दोनों सखियां आपस में बहुत घुल-मिल गईं। वसुंधरा जी गर्मी की छुट्टियों में 8-15 दिनों के लिए कुमार जी से संगीत सीखने देवास आती थीं और भानुताई के साथ काफी समय बिताती थीं। भानुताई के लिए वसुंधरा जी का साथ बहुत बेजोड़ था और ऐसा लगता था जैसे कि वे सहोदरा हों। देवास में कुमार जी का नया मकान बन रहा था और तब वे मोतीबंगला स्थित साई निवास में रहते थे। दुर्भाग्य से दूसरे प्रसव के समय, यानि जब यशोवर्धन का जन्म हुआ तो भानुताई संसार छोड़कर चली गईं। कुमार जी के लिए यह बहुत बड़ा आघात था। ताई देवास आईं और उन 15 दिनों में ताई ने बहुत कुशलता से घर के वातावरण को, आने वाले मेहमानों को संभाला और कुमार जी को बहुत बड़ा संबल दिया। कौन जानता था कि मुम्बई से देवास का यह सफर उन्हें मां चामुंडा की नगरी में स्थाई रूप से ले आएगा और वे यहां की होकर रह जाएंगी।

पंद्रह दिनों के बाद ताई मुंबई लौट गईं। जब कुमार जी वहां पहुचे तो उन्होंने ताई से प्रश्न किया कि ''क्या तुम मुझसे शादी करोगी?'' ताई के लिए मानो यह क्षण ठहर गया था क्योंकि उनके जीवन का यह महत्वपूर्ण फैसला था, इस संदर्भ में कि उन्हें संगीत साधना के साथ-साथ एक महती जिम्मेदारी सर्वथा भिन्न परिवेश में जाकर संभालनी होगी। वे शांत थीं और यह जानती थीं कि भानुताई ने अपनी बीमारी के दिनों में उनसे एक बार कहा था कि वसु- यदि मुझे कुछ हुआ तो कुमार जी को तुम ही संभालना। कुमार जी बहुत खुले विचार वाले प्रगतिशील  व्यक्ति थे वे मौत की जंग लड़कर, काल को मात देकर, संगीत की दुनिया में दैदीप्यमान हुए थे, अस्तु वे पीछे नहीं देखना चाहते थे और उस समय की परिस्थितियों में उन्हें वसुंधरा जी से बेहतर जोड़ीदार कोई और जंचा नहीं।

आखिरकार ताई ने कुमार जी से विवाह करके देववास यानि देवास के भानुकुल में प्रवेश किया और पूरे घर की जिम्मेदारी संभाली। प्रातःकाल उठकर वे अपनी साधना में लग जाती थीं और फिर कुमार के शिष्यों को रसोई से सीखते हुए देखती रहती थीं। साथ ही स्वयं भी सीखती रहती थीं। बाकि समय घर की जिम्मेदारी निभातीं। वे देवास के एक विद्यालय में संगीत शिक्षिका भी थीं। कुमार जी का घर हमेशा मित्रों, अतिथियों से भरा रहता था और वसुंधरा जी किसी  अन्नपूर्णा की भांति किसी भी मेहमान को खाली नहीं जाने देती थीं। वे घर में ही अपने संगीत पर ध्यान देती रहती थीं। इस बीच कुमार जी के कई कार्यक्रमों में बराबरी से शिरकत करती रहीं।

कुमार जी भारतीय शास्त्रीय संगीत के ऐसे गायक थे जिनके लिए संगीत ही सर्वोपरी था। उन पर लोक कवियों का गहरा प्रभाव था। खास तौर पर मालवा में आने के बाद वे कबीर से बहुत ज्यादा प्रभावित हुए थे। मंच पर जब वे गाते थे तो ऐसा लगता था मानो कोई देवपुरूष गा रहा हो। उनके कई शिष्यों ने मंच पर अनेक कार्यक्रमों में उनके साथ संगत की पर बहुत जल्दी कुमार जी को यह समझ में आ गया कि शिष्यों का तालमेल उनके साथ नहीं बैठता, उनकी सहधर्मिणी ही योग्यतम शिष्या है जो उनका साथ दे सकती है। इसलिए कुमार जी के लगभग सभी कार्यक्रमों में वसुंधरा जी संगत कलाकारों के रूप में उपस्थित रहती थीं।

कई बार ऐसा मौका आया जब कुमार जी स्वास्थ्य खराब या गला बैठ जाने के कारण आश्वस्त नहीं थे परंतु वसुंधरा जी के साथ होने से उन्होंने मंच पर अप्रतिम प्रस्तुतियां दीं। एक बार की घटना को याद करते हुए ताई ने कहा था कि ''वे जब मंच पर होते थे तो उन्हें संसार का भान नहीं होता था। वे किसी अद्वैत भाव में संगीत से एकाकार हो जाते थे। एक बार ठुमरी टप्पा के कार्यक्रम में कुमार जी बहुत जोरकस गा रहे थे। उनका स्वास्थ्य खराब था इसलिए मैंने चिंता से इशारा किया परंतु उन्होंने मुझे माइक पर ही डांट लगा दी। मुझे यह बहुत अपमानजनक लगा। मैं सारा दिन रोती रही। हालांकि उन्होंने अपनी भूल स्वीकार कर ली थी परंतु कहने का तात्पर्य  यह है कि जब वे दो तानपूरों के बीच बैठते थे तो कोई समझौता नहीं करते थे, भले ही तानपूरे पर पत्नी, पुत्र या शिष्य हो उनका रिश्ता केवल संगीत से होता था और किसी से नहीं।''

कुमार जी के साथ ताई ने गीत वर्षा, गीत हेमंत और गीत वसंत जैसे कार्यक्रम किए। साथ ही त्रिवेणी के द्वारा कबीर, सूरदास और मीरा के दर्शन को भी संगीत के माध्यम से प्रस्तुत किया। इन सभी विशेष कार्यक्रमों में ताई की संगत बराबरी की थी। 'मला उमजले बालगंधर्व' कार्यक्रम के बाद पुल देशपांडे ने मंच पर जाकर कुमार जी से कहा कि ''आज यदि कार्यक्रम सफल हुआ तो 60 प्रतिशत तुम्हारा और 40 प्रतिशत वसुंधरा का।''

महात्मा गांधी जन्म शताब्दी के अवसर पर भारत सरकार ने संगीत क्षेत्र से कुमार जी के समक्ष श्रद्धांजलि प्रस्तुति का प्रस्ताव रखा। तब कुमार जी ने गांधी जी पर नया राग रचने का निश्चय किया और इस राग का नाम गांधी मल्हार रखा।

कुमार जी की मित्रमंडली का भी ताई पर बहुत प्रभाव पड़ा। मालवा में उस समय कला क्षेत्र में राहुल बारपुते, विष्णु चिंचालकर, बाबा डिके, बंडु भैया चैघुले आदि लोग थे जो कुमार के निकटस्थ थे। वे उनके हर प्रकार के सुख-दुःख में शामिल हुआ करते थे। भानुकुल में अक्सर जमने वाली मित्रमंडली के आतिथ्य की संपूर्ण व्यवस्था की जिम्मेदारी ताई पर होती थी। कुमार जी के पत्राचार से लेकर यात्राओं की व्यवस्था और उनके आने वाले शिष्यों की व्यवस्था तक का भार वे सहजता से मुस्कुराकर वहन करती थीं। इस बीच वे अपनी संगीत साधना को भी लगातार जारी रख रही थीं।
 

मालवा में रहकर ताई ने कुमार जी से शास्त्रीय संगीत के साथ-साथ कबीर, मीरा, सूरदास की वाणी को भी आत्मसात किया। मालवा के लोक संगीत को बहुत कौतुक के साथ देखा-परखा और सीखा। वसुंधरा जी ने संगीत की यह विरासत अपनी सुयोग्य पुत्री और शिष्या कलापिनी के साथ-साथ पोते भुवनेश को भी दी।

कुमार जी के दुःखद अवसान के बाद भानुकुल सूना हो गया था। संगीत की लहरियां मानों थम गई थीं, रागों ने मुंह मोड़ लिया था और ऊपर टेकरी से कुमार जी कृत भजन 'उड़ जाएगा हंस अकेला...' गाहे बगाहे सुनाई देता तो लगता कि यहां इतना सन्नाटा क्यों है। उस्ताद अमजद अली खां साहब ने ताई से आग्रह  किया कि वे संगीत की अक्षुण्ण परम्परा को जारी रखें और पुनः संगीत के विशाल संसार में लौटें।

ताई के सामने यह एक चुनौती थी कि वे अपना दुःख भुलकर पुन: गौरव के साथ उस ज्योत को प्रजवलित करें जो उनके गुरू ने उनके अंदर जलाई थी। कुमार जी के बाद लगातार 22 वर्षों तक वे गाती रहीं। अपने भीतर सुप्त पड़ी संगीत की लहरियों को ऐसा बहाया मानों उनकी जिव्हा पर साक्षात सरस्वती आकर बैठ गई हो।

देश अनेक हिस्सों में उनके बड़े-बड़े कार्यक्रम हुए और उन्हें प्रतिष्ठा के साथ मूर्धन्य एवं वरिष्ठ गायिका के रूप में देखा जाने लगा। भारत सरकार के पद्म श्री जैसे अलंकरण से लेकर, संगीत कला अकादमी पुरस्कार आदि जैसे बड़े पुरस्कारों से उन्हें नवाज़ा गया। यह पुरस्कार अपने आपको सम्मानित कर रहे थे।

वसुंधरा जी ग्वालियर घराने की एक बड़ी कलाकार थीं और कुमार जी की शिष्या रहीं। उन्होंने अपने संगीत में बढ़त परम्परागत रूप से ग्वालियर घराने की ली व शैली कुमार जी से ली और इस तरह से राग विस्तार को बनाए रखा। कुमार जी के बाद संगीत की जो विरासत थी वह वसुंधरा ने और पुष्ट की। आज कलापिनी और भुवनेश इस सांगीतिक यात्रा को जारी रखे हैं और आगे हमें यह उम्मीद करनी चाहिए कि नन्हा अलख इस ज्योत को आगे जलाए रखेगा।

वसुंधरा जी भारतीय संगीत के क्षेत्र में शिखर स्थानों तक पहुंचीं। ऐसी श्रेष्ठ गायिका थीं जो अत्यंत साधारण परिवार से परंतु शिक्षित पृष्ठभूमि से आई थीं। इसके बावजूद अपने संगीत को जीवंत रखने के लिए उन्हें कड़ा संघर्ष करना पड़ा। परंतु उनके मन में एक टीस हमेशा रही कि वे अच्छी शिष्या और पत्नि होने के बाद भी अपने गुरू और पति से बहुत कुछ सीख नहीं पाईं। वे मानती थीं कि ''कुमार जी मेरे गुरू थे और अंत तक वे गुरू ही बने रहे। उन्होंने जैसा कहा मैंने वैसा ही किया। एक पत्नि होने के नाते मुझे संसार के सारे सुख और संतुष्टि मिली, पर मुझे उनसे बहुत कुछ सीखना था और वह मैं सीख नहीं पाई।'' ऐसा कहकर वह बहुत विनम्रता से अपने आपको शिष्या ही बताती रहीं जबकि वे एक वरिष्ठ गायिका के रूप में भारतीय संगीत के इतिहास में स्थापित हो चुकी हैं।

(संदीप नाईक सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक हैं)

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