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This Article is From Nov 24, 2014

हर जगह संस्कृत, तो फिर संकट में क्यों?

Ravish Kumar, Saad Bin Omer
  • Blogs,
  • Updated:
    नवंबर 24, 2014 21:43 pm IST
    • Published On नवंबर 24, 2014 21:12 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 24, 2014 21:43 pm IST

नमस्कार... मैं रवीश कुमार। जिन अख़बारों और चैनलों पर दिन रात बाबा ज्योतिष फोर्चुन से लेकर फ्यूचर बताते हैं, उन्हीं पर हंगामा है कि स्मृति ईरानी ज्योतिष के पास क्यों गईं। हमारे चैनल पर ऐसे कायर्क्रम नहीं होते हैं, फिर भी मेरी टीआरपी न बढ़ जाए इसलिए इस मसले पर चर्चा नहीं करूंगा।

भीलवाड़ा के पंडित नत्थू लाल व्यास ने कहा है कि स्मृति ईरानी भारत की राष्ट्रपति बन सकती हैं तो अभी से उस पद और उस पर सुशोभित होने वाली नागरिक की गरिमा का ख्याल रखा जाना चाहिए। ये ज़रूर हो सकता है कि कुछ चैनल पंडित जी को ज्योतिष एंकर बना दें।

संस्कृत आम जन की भाषा नहीं है, लेकिन इसकी उपस्थिति कई कारणों से आम जनों के बीच मौजूद है। अब आपको इस आम जन का दायरा समझना होगा, तभी संस्कृत का विस्तार समझ सकेंगे। क्या आम जन संस्कृत बोलता है? क्या आम जन की सभी परंपराएं लोक कथाएं संस्कृत में ही दर्ज हैं? भारत का आम जन, आम जन कह देने से नहीं बनता वह कई जाति परंपराओं लोक परंपराओं से बनता है।

इसके बावजूद संस्कृत एक बड़ा दरवाज़ा तो है ही जिससे आप भारतीय ज्ञान−दर्शन परंपरा कर्मकांड से लेकर अराधना के अखिल भारतीय संसार में दाखिल हो सकते हैं। आखिर हर जगह विराजमान होने के बाद भी संस्कृत संकट में क्यों है। इसकी बात एक दल के लोग ही क्यों करते हैं?

संस्कृत का काम सिर्फ संस्थानों के लिए सूत्र वाक्य की सप्लाई करना भर रह गया है।

  • सुप्रीम कोर्ट का यतो धमर्स्ततो जय।
  • एम्स का बीज सूत्र है, शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम।
  • दिल्ली विश्वविद्यालय का है निष्ठा धृति सत्यम।
  • कोरपोरेशन बैंक का बीज सूत्र है सर्वे जना सुखिनो भवन्तु।
  • काशी विद्यापीठ का लोगो है, विद्यया अमृतमश्नुते।
  • ओस्मानिया यूनिवर्सिटी हैदराबाद का सूत्र वाक्य है तमसो मा ज्योतिगर्मय।
  • सारे आईआईटी के सूत्र मंत्र संस्कृत में हैं।
  • इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का लोगो लैटिन में है, क्वोटरामी टौट आर्बोरिस, जितने पेड़ उतनी शाखाएं। यहां लैटिन को संस्कृत में बदलने के आंदोलन का स्कोप दिखाई दे रहा है।

संस्कृत के प्रति बहुत भावुक हो जाएं तो अपने घर में एक संस्कृत का ट्यूशन ज़रूर रखिएगा और माट साहब का महीना इंग्लिश टीचर के बराबर या ज्यादा दीजिएगा।

अगर आप भाषा के विद्यार्थी है तो संस्कृत को नापसंद कर ही नहीं सकते हैं। संस्कृत एक अच्छी और कई संभावनाओं वाली भाषा है। मगर इस भाषा के ज़रिये पुष्पक विमान बनाने का फार्मूला खोजेंगे तो आप एक दिन संस्कृत का नुकसान कर देंगे।

विवाद का विषय केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी की देन है। उनका पक्ष है कि त्रि-भाषा फार्मूले के तहत किसी विदेशी भाषा को नहीं पढ़ाया जा सकता। क्योंकि संविधान इसकी अनुमति नहीं देता। आलोचकों का कहना है कि फिर संस्कृत ही क्यों पढ़ाई जाए। फिर आलोचकों ने पहले क्यों नही आपत्ति उठाई, जब एक ही विदेशी भाषा जर्मन पढ़ाई जा रही थी।

जर्मनी की प्रधानमंत्री ने ऑस्ट्रेलिया में प्रधानमंत्री के सामने इस मुद्दे को उठाया भी था, लेकिन सरकार अपने फैसले पर टिकी हुई है। वीएचपी के नेता अशोक सिंघल ने कहा है कि भारत में एक ही विदेशी भाषा काफी है। इससे स्पष्ट है कि अंग्रेजी को कोई खतरा नहीं है और अंग्रेज़ी के अलावा कोई और विदेशी भाषा नहीं है।

आज ही स्मृति ईरानी ने यह भी कहा कि तीन भाषा फार्मूला के तहत भारत की 23 भाषाएं पढ़ाई जा सकती हैं। उन्होंने संस्कृत को अनिवार्य बनाने की मांग को खारिज कर दिया। फ्रेंच, जर्मन, मंदारिन की पढ़ाई पहले जैसी ही चल रही है।

आज के इकोनोमिक टाइम्स में रितिका की खबर है कि सीबीएसई प्राइवेट स्कूलों से भी कहेगी कि वे त्रि-भाषा फार्मूले के तहत विदेशी भाषा न पढ़ाएं। 500 केंद्रीय विद्यालयों में सत्तर हज़ार छात्र इस फैसले से प्रभावित बताए जा रहे हैं। उनके अभिभावक अदालत भी गए हैं। इनका कहना है कि बच्चों ने हाफ टर्म की पढ़ाई पूरी कर ली है, अब बीच सत्र में एक नया विषय लादना ठीक नहीं रहेगा। मंत्रालय का कहना है कि बच्चों को काउंसलिंग दी गई है और उन्हें मदद दी जाएगी।

भारत के 13 राज्यों में 14 विश्वविद्यालय हैं। इनमें से तीन डीम्ड हैं। शेष सभी राज्य सरकारों के तहत आते हैं। पिछले दो दशकों में आठ संस्कृत यूनिवर्सिटी खुली है, वह भी असम को छोड़कर ज्यादातर बीजेपी की सरकारों के दौरान, लेकिन इन सभी यूनिवर्सिटी की हालत बेहद खराब या औसत है।

बनारस स्थित संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्लाय के तहत यूपी में 510 संस्कृत कॉलेज हैं। पूरे देश में 750 कॉलेज हैं। कई जगहों पर वर्षों से बहाली नहीं हुई है। ज्यादातर विश्वविदयालय कागज़ी बनकर रह गए हैं।

संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के एक अध्यापक ने बताया कि हमारी यूनिवर्सिटी से कोई सवा लाख विद्यार्थी परीक्षा में बैठते हैं। इनमें से पचास फीसदी पिछड़ी जाति के हैं। ज्यादातर छात्र गरीब और कमज़ोर तबके से आते हैं। स्कूल स्तर पर संस्कृत की हालत तो और भी ख़राब है। संस्कृत के शिक्षकों को ठीक से वेतन तक नहीं मिलता। एक भी सेंट्रल यूनिवर्सिटी नहीं है।

यह मैंने आपको इसलिए बताया कि संस्कृत को लेकर भावुक नेताओं से आप ठोस सवाल कर सकें। मंत्रियों से पूछिएगा कि संस्कृत में शपथ लेने के बाद उन्होंने कोई बयान संस्कृत में दिया कोई प्रेस रीलिज जारी की, ट्वीट किया होगा कहीं। भारतीय भाषाओं के नाम पर संस्कृत के लिए रोने वालों से पूछिएगा कि जब दिल्ली विश्वविद्यालय के कई कॉलेजों से पंजाबी के बंद होने पर कैंडल मार्च निकल रहा था तब कौन रो रहा था।

स्मृति ईरानी के साथ इस विवाद में उमा भारती भी आ गई हैं। नदियों को लेकर उन्होंने दिल्ली में जल मंथन का आयोजन किया था। वहां लोग हिन्दी में बोलने की मांग करने लगे तो उमा जी ने कहा कि कुछ लोग अंग्रेजी नहीं समझ पा रहे हैं, यह समस्या अभी थोड़े दिन रहेगी।

इस हाल में सही में कुछ लोग हिन्दी नहीं बोल सकते हैं। यह समस्या तब तक रहेगी जब तक हम संस्कृत को लिंक लैंगेव्ज के रूप में स्वीकार नहीं कर लेते। लिंक लैंग्वेज की दौड़ में इस वक्त अंग्रेजी के साथ हिन्दी चल रही थी, पहली बार संस्कृत आ गई है। उमा भारती ने कहा कि संस्कृत ही सही मायनों में राष्ट्रीय भाषा है। भारत के हर गांव में दो तीन लोग संस्कृत का ज्ञान रखते हैं। लेकिन जब तक संस्कृत लिंक लैग्वेज नहीं बन जाती, हमें अंग्रेजी पर निर्भर रहना पड़ेगा। वैसे 2001 की जनगणना में 14000 लोगों ने संस्कृत को मातृभाषा बताया था, जैसे मेरी मातृभाषा भोजपुरी है।

इस बीच एक और खबर का ज़िक्र कर ही देता हूं जो आज के इंडियन एक्सप्रेस में आशुतोष भारद्वाज ने लिखी है। बस्तर में विश्व हिन्दू परिषद ने कैथोलिक मिशनरी के 22 स्कूलों पर दबाव डालकर मनवा लिया है कि उनके यहां अब प्रिंसिपल को फादर नहीं कहा जाएगा। प्राचार्य या उप प्राचार्य कहा जाएगा। सर भी कहा जा सकता है।

क्या आप संस्कृत को लिंक लैंग्वेज बनाने में व्यक्तिगत योगदान करना चाहेंगे। जब सफाई अकेले सरकार नहीं कर सकती तो संस्कृत भी सिर्फ सरकार के भरोसे कैसे बचेगी। बच्चों के ग्लोबल बनाने के दौर में संस्कृत को लेकर खौफ क्या वास्तविक है या जो राजनीति है उसकी मंशा कुछ और है।

भावुकता से नहीं, सोच समझ कर जवाब दीजिएगा। क्या संस्कृत अंग्रेजी की जगह लिंक लैंग्वेज बन सकती है। इन सबके बीच एक सवाल और भी रहना चाहिए कि वह है संस्कृत की छवि को लेकर उसके साथ राजनीतिक नाइंसाफी को लेकर। (प्राइम टाइम इंट्रो)

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