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This Article is From May 09, 2015

'सरस्वती का ना होना ही सरस्वती का होना है'

Ravish Kumar
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  • Updated:
    मई 09, 2015 23:58 pm IST
    • Published On मई 09, 2015 12:56 pm IST
    • Last Updated On मई 09, 2015 23:58 pm IST
पांच घंटे के सफ़र के बाद यमुनानगर के मुगलावाली गांव की तरफ़ हमारी कार मुड़ी तो धूप सिर के ठीक ऊपर आ चुकी थी। मनरेगा के मज़दूरी अपनी सुबह की पाली का काम कर जा चुके थे। एक-दो मज़दूर थे जो कुदाल चलाते दिखे मगर उनके काम की निगरानी करने वाला कोई नहीं था। जल्दी ही कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के भूगर्भ विज्ञान विभाग के प्रमुख प्रोफेसर ए.के. चौधरी की कार भी आ पहुंची। 'मैं चेयरमैन ए.के. चौधरी हूं।' इस संक्षिप्त मुलाकात के तुरंत बाद ही सरस्वती नदी पर बात शुरू हो गई। मेरी नज़र उस खेत पर थी जहां खुदाई के बाद मिट्टी के छोटे से टीले बन गए थे। कोई बोर्ड ढूंढ रहा था, जिस पर लिखा हो कि यहां सरस्वती नदी की खोज के लिए खुदाई का काम चल रहा है। इस उम्मीद में कि पुरातत्वविदों की टीम चलती-फिरती दिख जाएगी, जिनके हाथों में कुछ औजार होंगे और सिर पर टोपी। ऐसा कुछ नहीं दिखा। एक बार के लिए लगा कि हम कहां आ गए हैं।

छोटी नहर जितनी चौड़ाई और मेरे डूब जाने जिनती गहराई तक खुदाई नज़र आई। प्रोफेसर चौधरी ने बताया कि चालीस से अधिक गांवों में ऐसी खुदाई चल रही है। सरकार ने 50 करोड़ का बजट दिया है और मनरेगा के तहत यह काम कराया जा रहा है। जिस मनरेगा को बंद करने की बात की जाती है उसी मनरेगा के तहत हमारे मानस और इतिहास में एक बंद पड़ी नदी की तलाश हो रही है। सुनते ही मेरे कानों में गुदगुदी सी हो गई। ऐसा पहली बार सुना था, इसलिए पहली बार कानों में गुदगुदी हुई। निश्चित रूप से पुरातात्विक या भूगर्भीय उत्खनन इस तरह से नहीं होता होगा कि रोज़गार गारंटी वाले खोद कर चले जाएं और बाद में भूगर्भशास्त्री आकर सैंपल ले जाएं। सामानों के मिलने और खुदाई के हर चरण और स्तर को दर्ज करने के कुछ नियम कानून तो होते ही होंगे।

पिछले दो सौ साल के लिखित इतिहास में सरस्वती के होने या न होने को लेकर बहस चल रही है। अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान, राजस्थान, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में सरस्वती के मिलने के दावे किए जाते रहे हैं। ऋग्वेद से लेकर पौराणिक कथाओं में सरस्वती तो है मगर ज़मीन पर कहां बहती रही होगी इसका सही सही दावा नहीं हो पाया है। सरस्वती विशालकाय नदी थी या कोई छोटी नदी रही होगी, इस पर भी बहस है। इस देश में जहां एक नदी के एक ही इलाके में बीस नाम होते हैं उसी देश में सरस्वती नाम की कई नदियां पाई जाती रही हैं। यही नहीं सरस्वती नाम के भी अनेक मतलब मिलते हैं। इसका कोई हिसाब करने वाला नहीं है कि जिस सरस्वती को ढूंढने में हमने दौ सौ साल लगा दिए उसी दौरान कितनी ही नदियां विलुप्त हो गईं और सूख गईं।

सरस्वती किताबों और क़ागज़ों में खोजी जा चुकी है। कभी विज्ञान बनाम पुराण हो जाता है तो वाम बनाम संघ। क़ाग़ज़ों पर जो विवाद है उसमें सरस्वती के समर्थक कभी उसे कच्छ के रन की तरफ बहा ले जाते हैं तो कभी इलाहाबाद के संगम की तरफ। कभी वो हिमालय से उतरती चली आती है तो कभी बरसाती नदी बनकर किसी और नदी में मिलते हुए पाकिस्तान चली जाती है। यह भी एक तथ्य है कि दिल्ली में सरकार बदलते ही सरस्वती भी बदल जाती है। वो नहीं होने से हो जाती है और होने से नहीं हो जाती है।

इसलिए इसके होने के प्रमाण पर मैं टिप्पणी नहीं कर रहा हूं। हरियाणा के मुगलावाली गांव की जिस ज़मीन पर सरस्वती के मिलने के दावे किए जा रहे हैं, उसकी बात कर रहा हूं। सरपंच मनरेगा के तहत खुदाई कर रहे हैं और साथ में बोनस के तौर पर एक नदी के मिलने का प्रमाण भी मिल रहा है। यह सब एक विभाग और एक सरकार का दावा है। सतह से इतनी कम गहराई पर नदी होने का प्रमाण मिल ही सकता है या नहीं मिल सकता है, यह दावा तो नहीं कर सकता। लेकिन जो इलाका नदियों से भरा हो वहां कम खुदाई पर पानी मिलना क्या अचरज।
क्या ये सरस्वती नदी है। प्रोफेसर चौधरी का जवाब बहुत रोचक लगा। उन्होंने कहा कि सरस्वती नदी नहीं है का यही जवाब है कि यह सरस्वती नदी है। मुझे प्रोफेसर चौधरी के भूगर्भीय दावों पर यकीन तो नहीं हुआ लेकिन सीमित योग्यता के कारण सहज बुद्धि से ही सवाल करता रहा और वे मुझे प्रमाणिक तौर पर बताते रहे। अब उनकी बात की तस्दीक कोई भूगर्भ शास्त्री ही कर सकता है। कुदाल से हुई खुदाई से जो दीवार बनी है उसके नीचे नदी की धारा के प्रमाण दिखाते हुए प्रोफेसर चौधरी ने कहा कि इसकी दिशा हरियाणा के दक्षिण से गुजरात के कच्छ यानी पश्चिम की तरफ है। उन्होंने धारा के निशान के नीचे चट्टानों के कण की एक पतली पेटी भी दिखाई कि इससे पता चलता है कि यहां नदी बहती थी। इन कणों की उम्र क्या है इसका मूल्यांकन होना बाकी है। मेरी रिकार्डिंग होने के बाद प्रोफेसर चौधरी की टीम सैंपल लेने लगी। रेत की इन धारा से दिशा तो बता दी गई है मगर मात्र छह फीट नीचे जो धारा के निशान है उनकी उम्र क्या होगी यह भी जांच का विषय है। शायद।

अब अगर संगम वाली सरस्वती नहीं है तो फिर लोककथाओं, आस्थाओं और पौराणिक साहित्यों में दर्ज गंगा जमुना सरस्वती का इलाहाबादीय अस्तित्व या तो खारिज हो जाता है या सवालों के घेरे में आ जाता है। यानी अब सब कुछ भूगर्भीय प्रमाण से साबित होना है। प्रोफेसर चौधरी दिशा के आधार पर सरस्वती के होने का प्रमाण दे रहे हैं मगर दावे से नहीं कह रहे कि यह सरस्वती ही है। दस फुट नीचे की सतह पर मिले पानी को दिखा रहे हैं कि यह नदी के होने का प्रमाण है। पानी सरस्वती का है यह कैसे पता चलेगा इसका अलग-अलग जवाब मिला और हर जवाब से एक सवाल की गुज़ाइश का रास्ता निकलने लगा। हम कैसे मान लें यमुनागर से हरियाणा के पश्चिम की तरफ से सरस्वती ही बहती होगी, कोई और नदी नहीं। दिल्ली में अरावली से एक नदी निकलती थी जो खान मार्केट होते हुए यमुना में मिलती थी। हमारे देश में नदियों का रास्ता सिर्फ हिमालय से नहीं निलकता है।

जब साबित होगा तब होगा, लेकिन अगर यह सरस्वती है तो यह राष्ट्रीय महत्व का विषय तो है ही। इस साइट का विशेष तौर पर संरक्षण तो होना ही चाहिए। प्रोफेसर चौधरी ने बताया कि खुदाई की साइट से एक किलोमीटर से भी कम की दूरी पर एक सोम नदी है, जिसका पानी इस नहर में लाया जाएगा ताकि लोगों को लगे कि यह सरस्वती है। लेकिन क्या इससे सरस्वती की धारा के ऐतिहासिक प्रमाण नष्ट नहीं हो जाएंगे, तो जवाब मिला कि इससे पर्यटन का विकास होगा। रोज़गार बढ़ेगा। हज़ारों साल पुरानी नदी जिस जगह मिली हो क्या कोई भी शिक्षित समाज ऐसा करेगा कि उसमें किसी और नदी का पानी भर दे।

कम से कम मैं योजना के इस पक्ष पर सवाल तो कर ही सकता हूं। क्या हमारे पर्यटक इतने भोले हैं कि एक बरसाती नदी के पानी को पास में खोदी गई नहर में मिला देने से सरस्वती समझ बैठेंगे। फिर हम सरस्वती का तलाश ही क्यों कर रहे थे, उन नदियों को भी तो सरस्वती मान सकते थे जिन्हें अब भी सरस्वती पुकारा जाता है। अगर सब कुछ पर्यटन और मार्केंटिंग के लिए है तो हम प्लास्टिक के बैग में नदी को लेकर शापिंग माल में भी तो घुमा सकते हैं। आजकल हर माल के बाहर प्लास्टिक का एक तालाब बनाया जाता है जिसमें बच्चे कार की आकार वाली नावें चलाते हैं।

प्रोफेसर चौधरी ने कहा कि सोम नदी और सरस्वती सहायक नदियां हैं। सोम नदी सरस्वती की पूरक भी हो सकती है। मैंने ऐसी कोई नदी नहीं देखी जो एक ही दिशा से बहती हुई आ रही हो और इतने पास-पास से चल रही हों। जबकि दोनों की दूरी एक किमी भी नहीं है। क्या यह साबित नहीं किया जाना चाहिए कि कहीं सोम के किनारे के होने के कारण ही वहां पानी तो नहीं मिला, जहां मिलने के बाद सरस्वती की दिशा से जोड़ा जा रहा है। क्या यह नहीं हो सकता कि यह सोम नदी का ही इलाका हो। यह सब तो तब सामने आएगा जब व्यापक शोध होंगे लेकिन ऐसा लगता है कि सब कुछ जल्दी में हो रहा है। सरकार और एक विभाग दावा कर जल्दी ही उस निशान को हमेशा के लिए मिटा देंगे, जिसे दुनिया सरस्वती के मार्ग के रूप में देखना चाहेगी। क्या इसी तरह हम वैज्ञानिक सोच का प्रसार करना चाहते हैं। सरस्वती होने की इससे बड़ी त्रासदी क्या हो सकती है।

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