निशाने पर कौन ? रेवड़ी या विपक्ष

काश हमारे पास तकनीकि क्षमता होती तो हम गिन कर बताते कि मुफ्त रेवड़ियों पर कितने लेख छपे हैं, जो लिख रहे हैं उनका राजनीतिक संबंध किस दल से है, क्या वे बार-बार एक ही दल की किसी योजना और टॉपिक के समर्थन में लिखते रहते हैं।

नई दिल्ली:

एक राष्ट्र एक चुनाव, एक राष्ट्र एक टैक्स,जनसंख्या नियंत्रण, चुनावों में मुफ्त की रेवड़ियों पर रोक,घर-घर तिरंगा, ये सब कुछ ऐसे थीम हैं, जिन पर पहले भी बहस हो चुकी है, समय-समय पर होती रहती है और इसी थीम पर आधारित नई नई बहस लाई जाती है ताकि जनता की बहस नीचे से ऊपर न आए, बल्कि ऊपर से जो टॉपिक दिया जाए, उस पर जनता बहस करे। फिर भूल जाए कि उसके मुद्दे क्या हैं, उसके जीवन में क्या बदलाव आया है। जिस देश में मात्र 25000 मासिक कमाने पर आप चोटी के दस फीसदी लोगों में आ जाते हैं, उसकी हालत ज़मीन पर क्या होगी, आप समझ सकते हैं। लोगों का जीवन कितनी मुश्किल से चलता होगा मगर बहसें इस तरह की पैदा की जाती हैं जैसे लगता है कि बहसोत्पादन से ही उनका जीवन समृद्ध हो रहा है। स्किल इंडिया और स्मार्ट सिटी अभियान जब लांच हुआ था तब आप उस समय के हिन्दी अखबारों में छपे लेखों को देखिए, अनगिनत लेखों से माहौल बनाया गया था, आज शहर के शहर बारिश में नाले का पानी बह रहा है, कोई हिसाब किताब नहीं है। इस दौर के झूठ को समझना आसान नहीं है, बहुत सारे लोग चाहिए और तकनीकि क्षमता भी। 

जैसे हमें जानने में दिक्कत आ रही है कि 16 जुलाई को प्रधानंमत्री ने जब मुफ्त रेवड़ियों को बंद करने का बयान दिया तब उसके बाद से अखबारों में बीच के संपादकीय पन्ने पर कितने लेख छपे हैं।हिन्दी अख़बारों में कितने लेख छपे हैं। इनमें से कितने लेख प्रधानमंत्री की बात का समर्थन करते हुए लिखे गए हैं। लिखने वाले कौन लोग हैं। कितने मंत्रियों ने इस विषय पर लिखा है। 2014 के बाद से मंत्रियों और भाजपा नेताओं का संपादकीय पन्नों पर लिखना काफी बढ़ा है। यह चलने 2014 के पहले का है लेकिन ऐसे लेख भी छपे हैं जिनमें कुछ खास नहीं है, प्रेरणा और जागृति के अलावा, नैतिक शिक्षा पर ही दो चार पैराग्राफ भर दिए जाते है, उन्हें भी छापा जाता है। आम तौर पर संपादक ऐसे लेख न छापे जिनमें कोई खास बात न हो। प्रधानमंत्री के बयान और सुप्रीम कोर्ट की बहस को आधार बनाकर मुफ्त की रेवड़ियों पर जितने भी लेख लिखे गए हैं उससे गिन लेने से पता चलता कि एक इशारा होते ही किस तरह बहसोत्पादन होने लगता है।

इसी तरह हम टीवी चैनलों में मुफ्त की रेवड़ियों पर होने वाली बहस को भी गिन सकते हैं। एक पैटर्न निकल कर आता है कि ऊपर से टापिक टपका दी जाती है फिर नीचे खड़े लोग उसे लोक लेते हैं यानी कैच कर लेते हैं। फिर चारों तरफ रेवड़ियों की चर्चा होने लगती है।सूचक, शुभांगी और सुशील को एक एक अखबार के एक महीने के संपादकीय पलटने पड़े हैं। ज़ाहिर है कम समय में इसे पुख्ता तौर पर नहीं किया जा सकता था। फिर भी आप इन तस्वीरों से अंदाज़ा लगा सकते हैं कि देश में कैसे बहसोत्पादन होता है और लोगों को प्रभावित किया जा रहा है। 

काश हमारे पास तकनीकि क्षमता होती तो हम गिन कर बताते कि मुफ्त रेवड़ियों पर कितने लेख छपे हैं, जो लिख रहे हैं उनका राजनीतिक संबंध किस दल से है, क्या वे बार-बार एक ही दल की किसी योजना और टॉपिक के समर्थन में लिखते रहते हैं। जब आप इसका सर्वे करेंगे तो पता चलेगा कि अखबार अपने पाठक को क्या समझते हैं। इसके लिए ज़रूरी है कि पाठक के भीतर पाठक होने का स्वाभिमान भी हो। नहीं तो पता नहीं चलेगा। इसका अध्ययन होना चाहिए कि एक देश एक चुनाव, मुफ्त की रेवड़ियां, जनसंख्या नियंत्रण पर कितने लेख छपे हैं, वे एकतरफा हैं या आलोचनात्म। 

दि अमेरिकन प्रेसिडेंसी प्रोजेक्ट। इसकी वेबसाइट है। 1999 में राजनीति विज्ञान के छात्रों ने इस वेबसाइट का निर्माण किया था। मकसद था कि राष्ट्रपति चुनाव को लेकर जो लेख छपते हैं वे कितने तटस्थ होते हैं और कितने प्रायोजित यानी जिनमें किसी व्यक्ति की तरफदारी की जाती है। इसके ज़रिए छात्र देखते हैं कि एक व्यक्ति के पक्ष में जो लेख लिखे जा रहे हैं वो कौन है्ं, कैसे उसके दबाव और चमचागिरी में बहुत सारे लोग तारीफ में लेख लिखने लग जाते हैं। इसका अध्ययन इसलिए किया जाता है क्योंकि इससे पता चलता है कि कैसे तानाशाही आ रही है। तानाशाह के इशारे पर अनगिनत लेख लिखे जाने लगते हैं। इसलिए मीडिया में छपे लेखों का विश्लेषण होता है ताकि आप इस खेल को ठीक से समझ लें। 

भारत में भी लोग राजनीति विज्ञान की पढ़ाई करते हैं, वे भी ऐसा प्रोजेक्ट शुरू कर सकते हैं। 2020 में जब राष्ट्रपति का चुनाव हुआ था तब वहां के अखबारों में किस उम्मीदवार का समर्थन करते हुए संपादकीय लेख छपे थे, इसकी गिनती की गई है।अमेरिकन प्रेसिडेंसी प्रोजेक्ट के अनुसार 

जैसे इस वेबसाइट से पता चलता है कि 95 लाख से अधिक सर्कुलेशन वाले अखबारों में राष्ट्रपति जो बाइडन के समर्थन में 47 संपादकीय लेख छपे थे और ट्रंप के समर्थन में 7 छपे थे। 44 लेख ऐसे छपे थे जिनमें बाइडन और ट्रंप में से किसी का समर्थन नहीं किया गया था। अमेरिकन प्रेसिडेंसी प्रोजेक्ट ने अपने अध्ययन में दिखाया है कि 2016 में हिलेरी क्लिंटन के पक्ष में भी 41 लेख छपे थे। ट्रंप के समर्थन में 1 लेख ही छपा था। 2008 के चुनाव से अखबारों में किसी उम्मीदवार के पक्ष में छपने वाले लेखों की संख्या बढ़ती जा रही है। ((( वीओ नहीं किया - इससे दिख रहा है कि अमरीकी अखबारों में भी गोदी मीडिया का वायरस घुस गया है। इसका मतलब नहीं कि वहां गलत हो रहा है तो यहां के गोदी मीडिया की आप तारीफ करने लगे। दुनिया भर में पत्रकारिता का सत्यानाश हुआ है, यह समझ लें और ऐसा होना आप जनता के विनाश का सूचक है। यह लिखकर पर्स में रख लें। )))

ऐसा नहीं है कि भारत में कभी freebies यानी मुफ्त की रेवड़ियों की बहस नहीं हुई। हो चुकी है। नई नहीं है। हर चुनाव में होती है। इस बहस के सहारे ऐसी चीज़ों को निशाना बनाया जा रहा है जैसे लोग मुफ्त रेवड़ियां बंद करने के नाम पर गरीब जनता के मुंह से निवाला छीन कर ताली बजाने लग जाएं कि मुफ्त की रेवड़ियां बंद हो गई हैं। याद रखिएगा इस देश में दस प्रतिशत लोग भी महीने का 25000 नहीं कमाते हैं, इसलिए बड़ी आबादी को सरकारी मदद की ज़रूरत है। कोरोना के समय मुफ्त अनाज रेवड़ी के तौर पर नहीं दी गई थी बल्कि नही दी जाती तो लोग भूखे मर जाते। उनका काम छीन लिया गया था। उसके लिए जिम्मेदार कौन था, बहस इस सवाल पर होनी चाहिए थी। कोरोना के समर जब लाखों मज़दूर पैदल चलने लगे और उनका कोई रिकार्ड नहीं था तब सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों का रिकार्ड होना चाहिए। उसके बाद केंद्र सरकार ने  ईश्रम कार्ड लांच किया था। 26 अगस्त 2021 से मज़दूरों के लिए पंजीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई थी। 

यह ई श्रम कार्ड का प्रचार वीडियो है।लांच होने के एक महीने के भीतर असंगठित क्षेत्र के करीब 1.7 करोड़ मज़दूरों ने पंजीकरण करा लिया था। ये वो मज़दूर हैं जो असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं, बहुत कम कमाते हैं, जिनका EPFO और ESIC में खाता नहीं है। 30 जुलाई तक देश भर में 28 करोड़ से कुछ अधिक मज़दूरों ने ई-श्रम कार्ड बनवाए हैं। अकेले यूपी में 8 करोड़ 29 लाख मज़दूरों ने ई श्रम कार्ड बनवाए हैं। यूपी के लिए तो लक्ष्य 6.6 करोड़ ई-श्रम कार्ड बनवाने का था लेकिन वहां लक्ष्य से 124 प्रतिशत ई-श्रम कार्ड बने हैं। 48 प्रतिशत कार्ड केवल यूपी,पश्चिम बंगाल और बिहार मिलाकर बने हैं। पता चलता है कि लोग कितना कम कमाते हैं, और सरकार से कुछ मिलने की आशा में ई-श्रम कार्ड बनवा रहे हैं। 

अकेले यूपी में 22 करोड़ की आबादी में से सवा आठ करोड़ से ज्यादा लोग ई श्रम कार्ड बनवाए हैं।इसका मतलब सवा आठ करोड़ की आबादी इतना कम कमाती है कि उसका खाता EPFO में भी नहीं खुला है 
जिस किसी की कमाई 15000 से कम है वह बिना सरकार की किसी योजना की मदद के नहीं जी सकता। उसके बच्चे पढ़ाई नहीं कर सकते और न वह अपना इलाज करवा सकता है। अब हम लौटते हैं एक सवाल पर। जब मुफ्त रेवड़ियों की इतनी चिन्ता थी, तब यूपी चुनाव में ई-श्रम कार्ड वालों के खाते में 1000 रुपये क्यों दिए गए, जब यूपी में दिए गए तब पूरे देश में क्यों नहीं दिए गए, इसका मतलब है कि योगी सरकार ने इन खातों में पैसा वोट को प्रभावित करने के लिए डाला, उस समय आरोप लगा था,  तभी प्रधानमंत्री क्यों नहीं चिन्तित हुए कि मुफ्त की रेवड़ियां ठीक नहीं हैं। हमने यूपी चुनावों के दौरान प्राइम टाइम में इस पर कई दफ़ा फोकस किया था। 10 मार्च  के प्राइम टाइम में जब इसकी चर्चा की थी तब यूपी में डेढ़ करोड़ ई-श्रम कार्ड ही बने थे, हम उस दिन का एक हिस्सा सुनाना चाहते हैं.
यूपी सरकार ने अपने इन विज्ञापनों में दावा किया था कि श्रम कार्ड बनाने वाले डेढ़ करोड़ खातों में 1500 करोड़ की राशि भेजी जा चुकी है। इन खातों में 1000 रुपे की किश्त भेजी जा चुकी है।500 रुपये की एक किश्त बाकी है। ऐसी भी खबरें छपी है कि एक हज़ार रुपये लेने के लिए बीए और एम पास नौजवानों ने भी श्रम कार्ड बनवाएं हैं। यूपी के तमाम ज़िलो में दस से पंद्रह लाख खातों में 1000 रुपये भेजे गए हैं। क्या चुनाव जीतने के लिए इन खातों में पैसा दिया जा रहा है वो भी मार्च 2022 तक? अगर नहीं तो फिर पूरे देश में ई श्रम कार्ड बनवाने वालों 20 करोड़ मज़दूरों के खाते में पैसे क्यों नहीं भेजे गए हैं? केवल डेढ़ करोड़ के खाते में पैसा क्यों भेजा गया? 

क्रोनोलॉजी समझिए। ई-श्रम कार्ड केंद्र की योजना है। यूपी में जब चुनाव आया तो डेढ़ करोड़ लोगों ने ई-श्रम कार्ड बनवा लिए, उनके खाते में 1000 रुपये दे दिए गए। चुनाव खत्म हुआ, खातेे में पैसा भेजना बंद हो गया। क्या ये वोटर को प्रभावित करने के लिए नहीं था, अगर नहीं था तब यूपी के सभी 8 करोड़ 29 लाख ई-श्रम कार्ड धारकों के खाते में पैसे क्यों नहीं दिए गए? पूरे देश के 28 करोड़ ई-श्रम कार्ड धारकों के खाते में भी पैसे दिए जाते, क्या पता जब 2024 का लोकसभा चुनाव आएगा तब पैसा दिया जाने लगे? यूपी चुनाव के समय तो हमने आपको दिखाया था कि कैसे एम ए बी एस पास लोगों ने यह कार्ड बनवाया जिनके खाते में पैसे गए। प्राइम टाइम के पुराने एपिसोड का हिस्सा आपको सुनाना चाहते हैं। 

इसे समझने के लिए अमर उजाला में छपी दो खबरों की कतरन दिखा रहा हूं। पहली खबर प्रतापगढ़ ज़िले की है जहां पांच सौ रुपये का भत्ता लेने के लिए BA और MA की डिग्री वाले बेरोज़गार भी श्रमिक कार्ड के लिए पंजीकरण कराया है। प्रतापगढ़ की आबादी ही 32 लाख से कुछ अधिक है लेकिन यहां साढ़े बारह लाख लोगों ने पांच सौ का भत्ता लेने के लिए श्रमिक कार्ड बनवा लिए। अखबार ने लिखा है कि इसके पहले ज़िले में 1.46 लाख श्रमिकों का ही पंजीकरण था लेकिन इसकी संख्या साढ़े बारह लाख से अधिक हो चुकी है। इस योजना के तहत मार्च 22 तक पांच पांच सौ की राशि दी जाएगी। अमर उजाला में ही बलिया से ऐसी ही एक खबर छपी है कि पांच पांच सौ का भत्ता प्राप्त करने के लिए BA MA पास श्रमिक कार्ड के लिए पंजीकरण करा रहे हैं। यहां साढ़े ग्यारह लाख लोग पंजीकरण करा चुके हैं। यूपी सरकार अखबारों में विज्ञापन दे रही है कि डेढ़ करोड़ कामगारों के खाते में 1500 करोड़ की राशि दी जा चुकी है। क्या चुनाव जीतने के लिए इन खातों में पैसा दिया जा रहा है वो भी मार्च 2022 तक? 
इसका मतलब है कि बीजेपी को जब भी मौका मिलता है कि कैश ट्रांसफर कर वोटर को प्रभावित कर लेती है, तब उसे क्यों नहीं एतराज़ हुआ? अगर इसका संबंध वोटर को प्रभावित करने से नहीं था, तो बाद में भी कार्ड बनवाने वाले खातों में पैसा दिया जाता या देश भर में दिया जाता क्योंकि कोविड केवल यूपी में नहीं आया था। बड़ा सवाल है कि मुफ्त की रेवड़ियों के बहाने कहीं विपक्ष की राजनीति को कंट्रोल तो नहीं किया जा रहा है?

2021 में पश्चिम बंगाल में जब विधान सभा चुनाव हो रहे थे तब अमित शाह से लेकर बीजेपी के तमाम नेता वादा कर रहे थे कि बीजेपी की सरकार बनेगी कि राज्य के 72 लाख किसानों के खाते में सभी आठ किश्तों के पैसे दिए जाएंगे।एक किश्त एडवांस में मिलेगी इस तरह 72 लाख किसानों के खाते में 18-18000 रुपये दिए जाएंगे।मामला यह था कि ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना का काट निकालने के लिए राज्य सरकार की योजना शुरू कर दी और राज्य सरकार की तरफ से किसानों को ज़्यादा पैसे दिए जाने लगे थे,2019 का जब लोकसभा चुनाव आ रहा था तब फरवरी 2019 में पीएम किसान सम्मान निधि योजना लांच हुई थी। इस योजना को बैक डेट से लांच किया गया था। 1 दिसंबर 2018 की किश्त के पैसे के साथ 31 मार्च 2019 तक किसानों के खाते में दो दो किश्तें एक साथ दे दी गईं। एक किसान के खाते में 4000 रुपये दिए गए और लोकसभा में माहौल बनाने के पीछे इसका भी कुछ हाथ हो ही सकता है। 

एक तरफ केंद्र सरकार दावा करती है कि ऐसा सिस्टम बन गया है कि जिसका पैसा होता है उसी के खाते में पैसा जाता है। कोई भ्रष्टाचार नहीं होता है। लेकिन प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि के मामले में ही देखें तो पैसे दिए जाने के कई महीने के बाद हज़ारों करोड़ रुपये वसूले गए हैं। इस पैटर्न पर बहस होनी चाहिए। क्या ये पैसा उन जगहों से वसूलों जाता है जहां चुनाव हो जाते हैं? 

22 मार्च 2020 में कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने लोकसभा में बताया है कि प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि के तहत 4352 करोड़ रुपये गलत लोगों के खाते में चले गए। जिनकी वसूली हो रही है। अभी तक ऐसे लोगों से 296 करोड़ रुपये वसूले गए हैं। सवाल है कि 4352 करोड़ रुपया कैसे गलत लोगों के खाते में चला गया? 2019 में यह योजना लांच हुई थी, क्या बिना पुख्ता इंतज़ाम के ही पैसे भेजे जाने लगें? क्या चुनावी कारणों से इन बातों को अनदेखा किया गया?

मुफ्त की रेवड़ी की बहस ख़ज़ाना बचाने को लेकर नहीं हो रही बल्कि विपक्ष को निशाना बनाने का बहाना बनाया जा रहा है। यही कारण है अरविंद केजरीवाल इसका बढ़चढ़ कर प्रतिरोध कर रहे हैं और इस मसले को लेकर सबसे ज्यादा घमासान दिल्ली में मचा है। 

“देश में वेलफेयर स्कीम्स को फ्री की रेवड़ी कहकर मजाक बनाने की राजनीति हो रही है. कल वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इसे लेकर देश को डराने की कोशिश की कि इससे देश बर्बाद हो जाएगा.आज देश में सीधे सीधे गवर्नेंस के दो मॉडल दिख रहे हैं. एक मॉडल है जिसमें सत्ता के लोग दोस्तों को मदद करते हैं, वो दोस्तवाद का मॉडल है. दोस्तों के लाखों करोड़ के टैक्स माफ होते हैं और उसे विकास कहा जाता है. दूसरा मॉडल है, जनता के टैक्स के पैसे का इस्तेमाल स्कूल, अस्पताल, मुफ्त बिजली के लिए किया जा रहा है, महिलाओं को फ्री बस यात्रा, बुर्जुगों को पेंशन दी जा रही है.”

तब बीजेपी ने पंजाब में 300 यूनिट बिजली फ्री देने और यूपी में किसानों को सिंचाई की बिजली फ्री देने का वादा क्यों किया था? क्या बीजेपी ने यह बहस इसलिए शुरू की है कि पहले विपक्ष की सरकारें रेवड़ियां बंद करें फिर वो बंद करेगी? अगर बहस में उसका इतना यकीन है तो वह अपनी रेवड़ियों पर फैसला कर दे, बंद कर दे। हम यहां अभी इस पर बात नहीं कर रहे कि रेवड़ी किसे कहेंगे, यह परिभाषा इतना साफ साफ तय नहीं है लेकिन इसकी राजनीति साफ साफ नज़र आती है।विपक्ष की रेवड़ी रेवड़ी, बीजेपी का लोक कल्याण। अगर ऐसा नहीं है तो बीजेपी बताए कि वो क्यों मुफ्त की सुविधाएं देने का वादा करती है? 2020 में बिहार विधान सभा चुनाव हो रहे थे।उस समय कोरोना के टीका का टका लिया जाता था, बीजेपी ने कह दिया कि बिहार में मुफ़्त टीका लगेगा, तब तो निर्मला सीतारमण ने दमदार तरीके से कहा था कि पार्टी बिल्किुल ऐसा कर सकती है कि जब वह सत्ता में आएगी तो क्या करेगी। बड़े उद्योगपतियों को घाटा होता है तो बैंक कई लाख करोड़ का लोन बट्टे खाते में डाल देते हैं, आम गरीब लोग जब आर्थिक संकट में हो तो उन्हें मिलने वाली सुविधाएं खैरात नहीं हैं। उनका हक है।  

मुफ्त की रेवड़ियों की बहस का जन्म 16 जुलाई 2022 के दिन नहीं हुआ,जिस दिन प्रधानमंत्री ने इसकी चर्चा की।गोदी मीडिया में जो बहसोत्पादन हुआ है, वो एकतरफा लगता है और इस बहस के बहाने टाइम काटने का जुगाड़ लगता है।केजरीवाल से पहले भी मुफ्त बिजली की राजनीति होती थी। 
 
यूपी में तो आम आदमी पार्टी का ज़ोर नहीं है फिर वहां पर बीजेपी ने किसानों को सिंचाई के लिए मुफ्त बिजली का वादा क्यों किया? होली और दीवाली पर उज्ज्वला के ग्राहकों को एक एक सिलेंडर फ्री मिलेंगे? यूपी के चुनाव में बीजेपी ने वादा किया कि रानी लक्ष्मी बाई योजना के अंतर्गत कालेज जाने वाली मेधावी लड़कियों को फ्री में स्कूटी मिलेगी। क्या ये वादा केवल 12 वीं पास करने वाली लड़कियों के लिए था या कालेज जाने वाली तीन वर्षों की सभी लड़कियों के लिए था? मेधावी लड़कियों से क्या मतलब है? क्या टापर से है या कोई पैमाना तय होगा? लेकिन यूपी की चुनावी सभा में अमित शाह साफ साफ बोल रहे हैं कि जो लड़की 12 वीं पास करेगी उसको योगी सरकार मुफ्त में स्कूटी देने वाली है। यही नहीं बीजेपी के अध्यक्ष जे पी नड्डा मणिपुर के चुनाव भी इसी तरह का वादा कर चुके हैं। 

बीजेपी जब मुफ्त में स्कूटी देने का वादा करती है तब उसे याद नहीं रहता कि फ्री में रेवड़ियां ठीक नहीं है? सरकारें बसें नहीं चलाती हैं। पब्लिक ट्रांसपोर्ट खत्म कर मुफ्त में स्कूटी बांटना क्या मुफ्त की रेवड़ियां नहीं हैं। अकेले यूपी में अगर 12 वीं पास लड़कियों को मुफ्त की स्कूटी दी जाएगी तो खर्चा कई हज़ार करोड़ का हो जाएगा। 

एक तरफ़ केंद्र सरकार सीनियर सिटिज़न के लिए रेल टिकटों पर सब्सिडी बंद कर देती है, नहीं यूपी सरकार एलान करती हैं कि  साठ साल से अधिक की महिलाओं की बस यात्रा फ्री होगी। यह साल 2022 का है,मोदी सरकार ने बजट में और बीजेपी ने चुनावी घोषणा पत्र में कई वादे किए हैं। कई बार देखने को मिलता है कि घोषणापत्र का वादा कुछ और है और बजट में वादा कुछ और हो जाता है, यही नहीं डेडलाइन ही बदल जाती है। डेडलाइन बदल जाती है। एक संकल्प था कि 2022 तक 10,000 FPO फार्मस प्रोड्यूसर आर्गेनाइज़ेशन बनाए जाएंगे। 2022 में आ गया, 30 जून तक मात्र 963 FPO बने हैं, 353 बनने की प्रक्रिया में हैं। दस हज़ार क्यों नहीं बने? हमारा तर्क है कि जब भी वादों के परीक्षण का टाइम आता है तरह तरह की बहस लांच कर दी जाती है। क्या यह जानबूझ कर किया जाता है?

इसी तरह की एक बहस है एक देश एक चुनाव। कब इसकी बहस तेज़ हो जाती है और कब पीछे चली जाती है, हिसाब रखना मुश्किल है। यह सारी खबरें अमर उजाला और दैनिक जागरण की हैं जो समय-समय पर छपी हैं। ऐसी चर्चा 2014 के पहले भी चला करती थी लेकिन 2016 से आल वेदर रोड की तरह हर मौसम में चलाई जाने लगी है। काश हम गिन कर बता पातें कि इस एक विषय पर भारत के अखबारों में पिछले छह साल में कितने संपादकीय लेख और कितनी खबरें छपी हैं। इनमें से कितने लेख एकतरफा हैं माहौल बनाने के लिए हैं। माई गव की साइट पर 7 सितंबर 2016 से 16 अक्तूबर के बीच यह चर्चा चलाई गई कि नागरिक अपनी राय जमा कर सकते हैं। 4400 से अधिक प्रतिक्रियाएं आई हैं, ज़्यादातर लोगों ने चार पांच पंक्तियों की चलताऊ टिप्पणी की है। इन खबरों से पता चलता है कि संसदीय समिति बनाने से लेकर विपक्षी दलों से चर्चा की तमाम खबरें छपी हैं।21 फरवरी 2018 की खबर है कि एक राष्ट्र एक चुनाव पर माहौल बनाने के लिए भाजपा ने अपने मुख्यमंत्रियों को दिए निर्देश।

क्या आपने सुना है कि मुख्यमंत्रियों को माहौल बनाने का निर्देश दिया जाता है। मुख्यमंत्री का यही काम है कि वे माहौल बनाएं?13 अगस्त 2018 की एक और खबर है कि एक देश एक चुनाव' पर आगे बढ़ी भाजपा, विधि आयोग से मिले पार्टी नेता।विधि आयोग का कुछ तो महत्व होगा कि भाजपा नेता मिलने गए थे। हम आपको बता दें कि तीन साल से विधि आयोग के चेयरमैन तक नहीं हैं। क्या ये सारी मुलाकातें माहौल बनाओ रणनीति का हिस्सा थीं ताकि इनके बहाने चर्चा हो। डिबेट हो। बहसोत्पादन हो? जून 2019 में राजनीतिक दलों के अध्यक्षों की की बैठक बुलाई गई तो कांग्रेस पार्टी ने बहिष्कार कर दिया। कई दल गए भी। 26 दिसंबर 2020 की खबर से यह भी पता चलता है कि  एक राष्ट्र, एक चुनाव की मुहिम अब होगी और तेज, इस महीने के अंत तक 25 वेबिनार आयोजित करेगी भाजपा। 13 मार्च 2020 को प्रधानमंत्री का बयान है कि सभी राजनीतिक दल एक देश एक चुनाव की दिशा में आगे बढ़ें। इस एक विषय पर आपको अनगिनत संपादकीय लेख मिलेंगे जो समय समय पर छपते रहते हैं। ताकि माहौल बनता रहे

इसी की कड़ी में एक और सदाबहार टापिक है जनसंख्या नियंत्रण।तरह तरह के भूत खड़े किए जाते हैं।  किसानों की आमदनी 2022 में डबल होने के वादे पर इतने लेख नहीं मिलेंगे। बीजेपी ने 2019 के घोषणापत्र में जिन 75 संकल्पों का ज़िक्र किया था, जिन्हें 2022 तक पूरा किया जाना था,  उन पर इस तरह से संपादकीय पन्नों पर लेख नहीं लिखे जा रहे हैं, उनकी जगह आप यही जोड़ लें कि कितने कालम घर घर तिरंगा पर लिखे जा रहे हैं, उनमें बीजेपी के नेता से लेकर सरकार के मंत्री कितने हैं, इसे भी गिन लीजिए।2022 तक तो गंगा ही साफ हो जानी चाहिए थी इस पर 2022 में सरकार क्यों नहीं बात कर रही है।बहसोत्पादन की रणनीति को समझिए। आगे की खबर मध्यप्रदेश से है। मध्य प्रदेश में परीक्षा कराने वाले आयोगों की कमाई खूब हो रही है। मगर बेरोज़गारों को नौकरी नहीं मिल रही है।बहसोत्पादन के बाद अब आप  बेरोज़गारों से करोड़ों रुपये के उत्पादन की तरकीब पर रिपोर्ट देखिए। 


अभियानों और शपथों के सिलसिले को समझने की ज़रूरत है। हमने प्राइम टाइम में बताया था। mygov की साइट पर 60 प्रकार की शपथें हैं। हर चीज़ की शपथ है। खुद बीजेपी सरकार 15 लाख देने का वादा पूरा नहीं कर सकी और सरकार जनता से कहती है कि इसकी शपथ लें तो उसकी शपथ लें। ताकि बहसों की आंधी में जनता के मुद्दे तिनके बन कर उड़ जाएं। आप तिनका नहीं हैं, खंभा हैं, इसलिए टिके रहिए और ब्रेक ले लीजिए।

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