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This Article is From Dec 18, 2018

इंसाफ का लंबा इंतजार क्या सजा नहीं? पुणे का मोहसिन शेख हत्याकांड याद कीजिए

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 18, 2018 23:31 pm IST
    • Published On दिसंबर 18, 2018 23:31 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 18, 2018 23:31 pm IST
क्या वाकई हम इंसाफ़ की बात करते हैं या इंसाफ के नाम पर कांग्रेस बनाम बीजेपी करते हैं. दंगों और नरसंहारों के इंसाफ की बात जब भी आती है वह वहां भी पहुंचती है जहां इसकी बात नहीं होती है. उसकी आवाज़ पुणे में भी गूंज रही है और अलवर में भी और बुलंदशहर में भी. सज्जन कुमार ने कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे दिया है. सज्जन कुमार न तो एक है न ही सज्जन कुमार एक दल में है. 17 दिसंबर को जब  84 के आंशिक इंसाफ़ की बात हो रही थी, उसी दिन 84 बनाम 2002 का हिसाब हो रहा था उसी दिन महाराष्ट्र के सोलापुर में एक पिता चुपचाप दुनिया छोड़ गया. भीड़ ने सादिक शेख के बेटे मोहसिन शेख की हत्या कर दी थी.

63 साल के सादिक़ शेख ने 2014 से अपने बेटे मोहसिन शेख की हत्या के इंसाफ के लिए अपनी तरफ से बहुत लड़ाई लड़ी. सोलापुर का रहने वाला मोहसिन अकेला कमाने वाला था और पुणे में विप्रो में नौकरी करता था. सोशल मीडिया पर शिवाजी और बाल ठाकरे को लेकर आपत्तिजनक टिप्पणी के विरोध में एक भीड़ सड़क पर उतर गई थी. यह भीड़ हिन्दू राष्ट्र सेना की थी जो उसके प्रतिरोध सभा के लिए जमा हुई थी. वहां से गुज़रते हुए मोहसिन शेख को लोहे की रॉड और हाकी स्टिक से पीटकर मार दिया गया. उसके साथ एक और नौजवान रियाज़ शेख भी था जिसे गंभीर चोटे आई थीं. दोनों ही आईटी इंजीनियर थे और खाना खाकर अपने कमरे पर लौट रहे थे. तब से लेकर 17 दिसंबर तक सादिक शेख अपने बेटे की हत्या के इंसाफ के लिए लड़ते-लड़ते टूट चुके थे. इस लड़ाई में पैसे की इतनी तंगी हो गई कि यू-ट्यूब पर बाकायदा सरकार से अपील की थी कि पैसे दिए जाएं और बेटे मोबिन को नौकरी दी जाए. जून 2014 में कांग्रेस की सरकार थी तब 5 लाख मुआवज़ा मिला, बाद में सरकार बदल गई, कुछ नहीं मिला. सादिक़ शेख ने बीजेपी सरकार को कई पत्र लिखे, मगर मदद नहीं मिली. मीडिया को इंटरव्यू दिया ताकि बात सरकार तक पहुंचे, बात नहीं पहुंची.

सादिक शेख ने 6 मार्च 2018 में बाम्बे हाई कोर्ट में केस फाइल किया था. 12 अप्रैल 2018 को महाराष्ट्र सरकार को नोटिस जारी हुआ कि इन्हें मुआवज़ा दिया जाए. सादिक शेख ने 30 लाख 90 हज़ार मुआवज़े की मांग की थी. जून 2018 में महाराष्ट्र सरकार ने प्रस्ताव पास किया कि 5 लाख राज्य सरकार और 5 लाख केंद्र सरकार मुआवजा देगी. लेकिन जून के प्रस्ताव के बाद भी नवंबर 2018 तक एक नया पैसा नहीं मिला. लिहाज़ा सादिक शेख फिर से कोर्ट गए. 28 नवंबर को कोर्ट ने कहा कि इन्हें एक हफ्ते के भीतर मुआवज़ा दिया जाए. उस दौरान कोर्ट ने सरकार से पूछा कि अभी तक मुआवज़ा क्यों नहीं मिला. इसके जवाब में सरकार ने कहा कि सादिक शेख की पहचान स्थापित नहीं हो पा रही थी जबकि सादिक शेख की तरफ से सूचना अधिकार के तहत सवाल किया गया था और जवाब मिला था. यानी आरटीआई का जवाब देते हुए पहचान थी मगर मुआवज़े की राशि देते हुए पहचान स्थापित नहीं हो पा रही थी. यह कहानी लंबी है मगर धीरज से सुनेंगे तो इंसाफ की ड्रामेबाज़ी समझ आ जाएगी. एक हफ्ता पहले पैसा मिला है. छह महीने लग गए. इस बीच पैसे की तंगी के साथ-साथ बीमारी ने सादिक शेख को घेर लिया. मजबूरन वे आर्युवेदिक चिकित्सा कराने लगे क्योंकि यह सस्ता था. ये है इंसाफ का हाल. सादिक शेख ने सोलापुर में दम तोड़ दिया.

पुणे पुलिस ने मोहसिन की हत्या के आरोप में हिन्दू राष्ट्र के चीफ धनंजय देसाई और 23 अन्य को चार्जशीट किया है. धनंजय देसाई जेल में है. 2017 में बाम्बे हाईकोर्ट ने इस मामले में तीन आरोपियों को ज़मानत दे दी थी, तब आदेश की भाषा और संदर्भ को लेकर काफी आलोचना हुई थी. जस्टिस मृदुला भटकर ने जमानत में लिखा कि
धनंजय देसाई के भड़काऊ भाषण से ट्रांसक्रिप्ट से पता चलता है कि उसने धार्मिक भेदभाव की भावना को भड़काया. आवेदक या आरोपियों की मोहसिन के खिलाफ निजी शत्रुता जैसी कोई और मंशा नहीं थी. मृतक की यही ग़लती थी कि वह अन्य धर्म का है. मैं इस बात को आरोपी के हक में मानती हूं. यही नहीं आरोपी या आवेदक का आपराधिक अतीत नहीं है. ऐसा प्रतीत होता है कि धर्म के नाम उन्हें उकसाया गया और उन्होंने हत्या कर दी.

जमानत के आदेश को सादिक शेख ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. फरवरी 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने ज़मानत रद्द कर दी. लाइव लॉ नाम की वेबसाइट ने अपनी रिपोर्ट में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी का ज़िक्र किया है, जस्टिस एसए बोवडे और जस्टिस एल नागेश्वरा ने इन तीनों को जेल भेजते हुए कहा था कि हमले में शामिल पक्षों के समुदायों का संदर्भ या ज़िक्र समझा जा सकता है लेकिन यह बात समझ से परे है कि क्यों फैसले में लिखा गया कि मरने वाले का यानी मोहसिन का कसूर इतना ही था कि वह अन्य धर्म का था. मैं इस बात को आरोपी के पक्ष में मानता हूं, हमें इस बात पर शक है कि अदालत पूरी तरह से इस बात को लेकर सजग है कि भारत एक बहुधर्म देश है. इस तरह की टिप्पणी नहीं कर सकती है कि जिससे लगे कि फैसला एक समुदाय के प्रति खास नजरिया रखता था.

सुप्रीम कोर्ट का फैसला तो काफी समय बाद आया था लेकिन हमने इस पर तभी चर्चा की थी जब बाम्बे हाई कोर्ट की ज़मानत का आदेश दिया था. फैज़ान मुस्तफा हमारे साथ थे और उन्होंने इस बात की समीक्षा की थी. 17 जनवरी 2017 के प्राइम टाइम में फैज़ान मुस्तफा ने बाम्बे हाई कोर्ट की जज के आदेश पर अपनी राय दी थी.

इंसाफ की भी अपनी राजनीति है. बहस करने वाले हिन्दू की तरफ से बहस करते हैं, मुस्लिम की तरफ से बहस करते हैं. लेकिन जो पीड़ित होता है उसके काम कोई धर्म नहीं आता है. न इस्लाम न हिन्दू. वो अकेला लड़ता हुआ चंद लोगों के भरोसे के सहारे जीता है. सिसकता है. इसलिए इंसाफ के लिए जश्न मनाने वालों को एक बार जगदीश कौर से पूछना चाहिए कि 34 साल संघर्ष उन्होंने किया या टीवी में आने वाले प्रवक्ताओं ने किया. बल्कि वो न मिलें तो उन्हें मोहसिन की मां शबाना सादिक़ शेख़ से पूछना चाहिए, वो भी न मिल पाएं तो बुलंदशहर में मार दिए गए इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह की पत्नी रजनी जी से पूछना चाहिए. शबाना और रजनी की लड़ाई भी ज़किया जाफरी और जगदीश कौर की तरह अकेले की लड़ाई है.

आपको भीड़ की वह तस्वीर तो याद ही होगी, गाय के नाम पर जमा भीड़ ने इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह की हत्या कर दी. 16-17 दिन हो गए मुख्य आरोपी नहीं पकड़ा गया. इस बीच मुख्य आरोपी ने व्हाट्सऐप के ज़रिए एक बयान भी जारी किया जो टीवी पर चला. इस केस में पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों का तबादला हो गया लेकिन मुख्य आरोपी नहीं पकड़ा गया. मुख्यमंत्री ने घटना के बाद एक बैठक भी बुलाई थी जिसके बारे में प्रेस रिलीज़ जारी हुई तो सुबोध कुमार सिंह के बारे में कोई ज़िक्र नहीं था, इस बात का था कि गौ हत्या करने वालों पर सख्त कार्रवाई की जाए. बाद में मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने पीड़ित परिवार को लखनऊ बुलाया, सुबोध कुमार सिंह की पत्नी रजनी, उनके बेटे उनसे मिलने गए लेकिन अभी तक मुख्य आरोपी नहीं पकड़ा गया है.

आज ही सुबोध कुमार सिंह की हत्या को लेकर 80 से अधिक सेवानिवृत्त अधिकारियों ने खुला पत्र लिखा है. इनमें आईएफएस, आईएएस और आईपीएस, वन सेवा और राजस्व सेवा के अधिकारी हैं. कुछ कई महत्वपूर्ण मुल्कों में राजदूत रह चुके हैं. इस सूची में पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिव शंकर मेनन भी हैं. इस पत्र में मुख्यमंत्री आदित्य नाथ की आलोचना की गई है, उन पर धर्मांधता का पक्ष लेने का आरोप लगाया गया है और इस्तीफे की मांग की गई है. इन अफसरों ने लिखा है कि वे किसी राजनीतिक दल से नहीं हैं. संविधान के मूल्यों के अलावा किसी और विचारधारा में यकीन नहीं रखते. इस पत्र का कुछ हिस्सा आपके लिए पढ़ना चाहता हूं- 3 दिसंबर, 2018 को उत्तरप्रदेश के बुलंदशहर में दुर्भावना के साथ भीड़ की हिंसा को अंजाम दिया गया. इसमें भीड़ को शांत करने की कोशिश कर रहे यूपी पुलिस के एक बहादुर अफ़सर की नृशंस हत्या कर दी गई. ये नफ़रत की राजनीति की दिशा में सबसे भयानक मोड़ बन गया. ये दिखाता है कि देश के सबसे आबादी वाले राज्य उत्तरप्रदेश में शासन के मौलिक सिद्धांतों, संवैधानिक नैतिकता और मानवीय सामाजिक व्यवहार को ताक पर रख दिया गया है. राज्य के मुख्यमंत्री कट्टरता और बहुसंख्यकवाद के वर्चस्व को बढ़ावा दे रहे हैं. ये एक ऐसा एजेंडा है जो दूसरी हर चीज़ पर हावी है.

खत के मुताबिक ऐसी घटनाएं उत्तरप्रदेश में पहले भी हुई हैं लेकिन अभी तक हमें विश्वास था कि जब भी कोई राजनीतिक दल सरकार बनाता है तो वो पक्षपात भरे राजनीतिक एजेंडा को अलग रखकर ज़िम्मेदारी के साथ शासन करता है ताकि उसकी राजनीतिक स्वीकार्यता बढ़े. लेकिन बुलंदशहर की घटना से पहले यूपी में मुस्लिम समुदाय को डराने और अलग-थलग करने की लगातार कोशिशें होती रही हैं. योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री रहते हमारा वो विश्वास ग़लत साबित हुआ है और गुंडागर्दी और ठगी शासन की मुख्यधारा में शामिल हो गए हैं ताकि न सिर्फ़ अल्पसंख्यकों को डराया जा सके बल्कि हर उस व्यक्ति, पुलिस और प्रशासन को सबक सिखाया जा सके जो अल्पसंख्यक समुदाय के साथ बराबरी का व्यवहार करने की हिम्मत करे. जब तक इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह की हत्या के मामले में जांच पूरी नहीं हो जाती तब तक किसी नतीजे पर पहुंचना जल्दबाज़ी होगी लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि जिस तरह उनकी हत्या हुई उसमें कुछ भी स्वाभाविक या स्वत: स्फूर्त नहीं था. इस बात में भी कोई शक नहीं है कि किन राजनीतिक तत्वों ने हिंसा को बढ़ावा और उकसावा दिया. जानबूझकर बहुसंख्यकों की ताक़त को दिखाने की कोशिश हुई ताकि इलाके में रहने वाले मुस्लिम समुदायों को संदेश दिया जा सके कि उन्हें डर में रहना होगा, वो बहुसंख्यक समुदाय के सांस्कृतिक फरमानों को मानें और ख़ुद को उनसे कमतर मानें.

खत में ये भी लिखा गया है कि पुलिस और नागरिक प्रशासन विकृत राजनीतिक तंत्र के आगे झुक चुका है. वो संविधान के प्रति अपनी प्राथमिक वफ़ादारी और क़ानून के राज को भूल चुके हैं जबकि उनका संवैधानिक दर्जा उन्हें अभूतपूर्व ताक़त देता है. अगर वो हिंदुत्व ब्रिगेड के बढ़ते डर को रोकने के लिए कदम उठाते तो हिंसा को निश्चित ही रोका जा सकता था. लेकिन उन्होंने ना सिर्फ़ गुंडागर्दी करने वालों के हौसले को बढ़ने दिया और उन्हें राजनीतिक ताक़त हासिल करने दिया बल्कि अपनी लचर कार्रवाई से उनके मन से क़ानून के डर को हटाने में भी मदद की. अब भी अगर मुख्य सचिव, डीजीपी, गृह सचिव, डीएम और ज़िला पुलिस अधिकारी एक साथ खड़े हो जाएं तो इस घातक राजनीतिक एजेंडा का पर्दाफ़ाश किया जा सकता है, इसके मास्टरमाइंड्स को पहचाना जा सकता है और हिंसा करने वालों को कठघरे में खड़ा किया जा सकता है. इन अधिकारियों के सामने संविधान की शपथ को पूरा करने का मौका है और उच्च नागरिक सेवाओं से नागरिकों को जो उम्मीदें हैं उन्हें पूरा करने का अवसर है.

खत में प्रधानमंत्री का आह्वान करते हुए लिखा गया है कि हमारे प्रधानमंत्री जो अपने चुनावी अभियानों में ये कहते नहीं थकते कि भारत का संविधान ही एकमात्र किताब है जिसकी वो पूजा करते हैं, वो भी इस मामले में चुप्पी साधे हुए हैं जबकि उनके चुने हुए मुख्यमंत्री उसी संविधान के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं. ये साफ़ है कि संघ परिवार के लिए संवैधानिक नैतिकता का कोई मूल्य नहीं है और वो बहुसंख्यकों के दबदबे के विचार को मानता है. ये एक बहुत ही गंभीर समय है और हम इसे यों ही नहीं छोड़ सकते. हम सभी नागरिकों से नफ़रत और बंटवारे की इस राजनीति के ख़िलाफ़ एक होने की मांग करते हैं. हम मांग करते हैं कि उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री संविधान के पालन में नाकाम रहने के लिए इस्तीफ़ा दें जिस संविधान को लागू करने की उन्होंने शपथ खाई है. हम जानते हैं कि ये तभी हो पाएगा जब हम मिलकर जनभावनाओं को उभारें और उन्हें अपने काम के लिए ज़िम्मेदारी का अहसास कराते हुए इस्तीफ़े के लिए मजबूर करें. हम मुख्य सचिव, डीजीपी, गृह सचिव और उच्च नागरिक सेवाओं के सभी सदस्यों को याद दिलाना चाहते हैं कि ये उनका संवैधानिक दायित्व है कि वो अपने राजनीतिक आकाओं के विकृत आदेशों के बजाय बिना डरे क़ानून का राज स्थापित करें.

इसी के साथ  इलाहाबाद हाइकोर्ट से आग्रह किया गया है कि वह इस घटना का स्वत: संज्ञान यानी suo motu cognizance लें और अपनी निगरानी में एक न्यायिक जांच का आदेश दें.

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