विज्ञापन
This Article is From Nov 09, 2016

नोटों के बंद होने के बाद यूपी में नेता करेंगे कार पूल और रैली पूल!

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    नवंबर 09, 2016 11:37 am IST
    • Published On नवंबर 09, 2016 11:20 am IST
    • Last Updated On नवंबर 09, 2016 11:37 am IST
जितने भी अर्थशास्त्रियों की त्वरित प्रतिक्रिया छपी है, उनमें पांच सौ और हज़ार के नोटों को बैन करने की बहुत ठोस आलोचना नहीं है. इसलिए अर्थशास्त्रियों की नज़र से नहीं, समाजशास्त्री की नज़र से इस फ़ैसले के असर को समझने का प्रयास कर रहा हूं. एक त्वरित मनोवैज्ञानिक असर ये हुआ होगा कि बहुत से लोग अपने ही घरों में अपराधी हो गए होंगे. परिवार के समझदार लोगों से राय लेने के लिए भी उन्हें बचना होगा कि उनके पास काला कैश है. सब एक-दूसरे के सामने अपना अपराध कबूल करेंगे. बहुत लोग ऐसे पैसे को सीने पर किसी बोझ की तरह दबाए रहते हैं. ग्लानि से दबे रहते हैं. वे इस फ़ैसले से मुक्त हो जाएंगे. गीता ज्ञान का सहारा लेंगे. तुम क्या लेकर आए थे टाइप! उन्हें अपराधबोध से बाहर आने का मौका मिलेगा. यहां से वे चाहें तो ईमानदार जीवन जीने का प्रयास कर सकते हैं.

मैं क्यों ख़ुश था ? इसीलिए कि मेरा एक-एक पैसा ईमानदारी का है. हम जैसे लोग कभी नहीं चाहेंगे कि हमारे बगल में गलत सोर्स से कमाने वाला भी उसी आराम से बैठा रहे बल्कि ऐश-ओ-आराम से बैठा रहे. ऐसे लोगों के प्रति मेरी कोई सहानुभूति नहीं है. इसलिए व्यक्तिगत कारणों से ख़ुश हुआ क्योंकि इस फ़ैसले से काले धन वाले अलग-थलग हुए हैं तो हम जैसे लोग भी अलग-थलग हुए हैं. हम ख़ुद को दिखा सकते हैं कि देखो, हम सदमे में नहीं है. पंद्रह बीस हज़ार के नोट ही बदलने की मामूली तकलीफ होगी. इस बार अलग-थलग होना अच्छा लग रहा है. जब प्रधानमंत्री के ऐलान को सुन रहा था तब अपनी ईमानदारी को अलग से महसूस कर रहा था. अक्सर सिर्फ सैलरी पर जीने वाले लोगों को समाज बेवकूफ की तरह देखता है, इसलिए लगा कि हंसने की बारी मेरी है. मैं हंस सकता हूं. सो फ़ैसले की रात खूब हंसा. मैं सचमुच का ख़ुश था. बहुत लोग झूठमूठ के ख़ुश थे !

ईमानदारी एक साधना है. आपको रोज़ बड़े इम्तहानों से गुज़रना पड़ता है. यही तय करते-करते परेशान रहता हूं कि ये बेईमानी तो नहीं है. आप जब ईमानदार होते हैं तो रोज़-रोज़ डरते हैं. जब बेईमान होते हैं तो रोज़-रोज़ दुस्साहसी होते चले जाते हैं. लगता है कि कोई कुछ नहीं कर सकता. ऐसे लोगों को एक झटका लगा है सो बंदा ख़ुश हुआ है. मैं कोई अर्थशास्त्री नहीं हूं. उस लिहाज़ से मैं ये लेख नहीं लिख रहा हूं. मैं समाजशास्त्रीय नज़र से लिख रहा हूं. कम से कम चार दिन के लिए ही सही, काले धन के नाम पर कुटिल मुस्कान छोड़कर बगल से निकल जाने वालों के सामने से तनकर गुज़रने का मौका तो मिला.

अक्सर कई लोगों को देखता हूं. करोड़ों की कार है. घर आलीशान है. उनकी संपत्ति योग्यता के अनुपात में नहीं लगती है. तमाम नौकरशाह, मध्यम न निचले दर्जे के सरकारी कर्मचारी, मंझोले व्यापारी, डॉक्टर, परिवहन विभाग के कर्मचारी , कोचिंग पढ़ाने वाले टीचर. ये लिस्ट लंबी हो सकती है. काले पैसे के दम पर उनकी शाहख़र्ची और राजनीतिक ताकत मुझे हैरान करती है. ऐसे लोगों को चार रात के लिए भी नींद नहीं आती है तो न आए. प्रधानमंत्री मोदी ने बड़ा अच्छा काम किया. उन्हें कई रातों के लिए जगा दिया.

लेकिन क्या वाक़ई ऐसा होगा? ठोस रूप से कुछ भी मालूम नहीं. मुझे इस फ़ैसले के असर को समझने की योग्यता नहीं है. अंदाज़ा लगा सकते हैं. क्या इतनी बड़ी संख्या में लोगों ने नोट बदल लिये होंगे? मुमकिन नहीं लगता. क्या ऐसे चतुर लोगों को पहले से भनक होगी? मान लीजिये कि होगी. लेकिन जब ये लोग बैंकों तक गए होंगे, सौ के नोट में बदलने के लिए तो ऐसी ख़बरें आमतौर पर बाहर आ जाती हैं. इतना पैसा बैंक तक ले जाने का यह भी मतलब होता है कि आप घोषित कर रहे हैं कि आपके पास ये काला धन है.

हां, मैं उन तथ्यों को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता कि दो हज़ार के नोट की तस्वीर सोशल मीडिया में घूम रही थी. रिज़र्व बैंक ने भी कहा है कि तस्वीर सही है और उनकी गुप्त प्रक्रिया के बावजूद किसी ने तस्वीर बाहर कर दी. जो लोग बड़े पैमाने पर नगद काला धन रखते हैं, वो इस तरह के इशारे को तुरंत समझ जाते हैं. हम इस तरह की बातों की समझ नहीं रखते कि जब ऐसे लोगों को ये सूचना मिल जाए तो वो क्या क्या कर सकते हैं! वैसे भी अख़बारों में छह-सात महीने से पांच सौ और हज़ार रुपये के नोट बंद करने के विश्लेषण तो छप ही रहे थे. आप गूगल कर सकते हैं. इसी साल के मई महीने में लाइवमिंट और इकोनोमिक टाइम्स में नोटों को बैन करने के असर पर लेख छपे हैं.

अक्‍टूबर महीने में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्राबाबू नायडू ने केंद्र सरकार से मांग की थी कि पांच सौ और हज़ार के नोट बंद कर दिये जाएं. उन्होंने प्रधानमंत्री को चिट्ठी भी लिखी थी. तब इसका विश्लेषण इस तरह से भी हुआ था कि नायडू इसके ज़रिये अपने विरोधी जगन को निहत्था करना चाहते हैं. कुल मिलाकर अगर इस तरह के विवाद, मांग और विश्लेषण आ ही रहे थे और इन सब के बीच दो हज़ार के नोट की तस्वीर आ रही थी, तो देखना होगा कि इसका फायदा किन लोगों ने उठाया. शायद पता भी न चले.

बात है कि क्या काला धन बंद होगा? मोटी बुद्धि से तो यही समझ आती है कि जिनके पास भारी मात्रा में अघोषित नगद है, उन्हें तो अब योग से भी लाभ नहीं होगा. लेकिन हमें ध्यान रखना चाहिए कि काला धन के अनेक रूप होते हैं. काला धन इसके बनने की प्रक्रियाओं में जीवित रहता है. काला धन की समझ हमारी थोड़ी फ़िल्मी है. एक रिश्वत दे रहा है और दूसरा ले रहा है. ये तो कब का पुराना हो चुका है. इसलिए जिनके पैसे गए हैं या उनके जाने के अनुमान में हम ख़ुश हुए जा रहे हैं, अभी रुक कर देखना चाहूंगा कि क्या ऐसे लोग वाक़ई बर्बाद होंगे? लगता है उन्हें कुछ नहीं होगा.

इसका जीता जागता प्रमाण आपको यूपी और पंजाब के चुनाव में दिखेगा. अगर वाक़ई काला धन मिट गया है तो यूपी का चुनाव भारत के चुनावी इतिहास का सबसे सादा और सबसे आदर्श होगा. मुमकिन है चारों दलों के नेता एक ही कार में प्रचार करते मिलें. कार पूल की तरह रैली पूल करें और एक ही रैली को बारी-बारी से संबोधित करें. क्या आपको सपना आया है कि ऐसा होगा? यूपी का चुनाव भारतीय इतिहास का सबसे महंगा चुनाव होने जा रहा है.

जो नेता इस फ़ैसले के स्वागत में डांस कर रहे हैं, उनके पास काला धन आज भी और कल भी रहेगा. वरना उनकी घोषित आय जितनी है उसके हिसाब से उन्हें आल्टो कार में नज़र आने चाहिए और उनकी घड़ी दो चार हज़ार वाली होनी चाहिए. दस लाख वाली नहीं. यूपी, पंजाब के चुनाव में ग़रीब जनता को मतदान की रात से पहले पुख़्ता तौर पर पता चल जाएगा जब उसे पता चलेगा कि किसी बस्ती और टोले में पैसा नहीं बंटा है. प्रचार इतना सादा हो जाएगा कि पूछिये मत, आपको लगेगा कि इससे ज़्यादा तो होली-दिवाली में बधाइयों वाले पोस्टर लग जाते हैं. उम्मीदवार क़ानूनी रूप से मान्य खर्चे का प्रबंध नहीं कर पाएगा. ऐसा होगा ? बिल्कुल नहीं. क्या हेलीकाप्टर उड़ेंगे? आप ख़ुद भी आसमान में गिन सकते हैं.

अगर ऐसा नहीं हुआ तो मेरे पास आइएगा, बताऊंगा कि काला धन कैसे ख़त्म नहीं हुआ. काला धन ख़त्म होने का सबसे बड़ा इंडिकेटर यानी सूचक चुनाव है. जो राजनीतिक दल बीस हज़ार से कम का चंदा लेते हैं ताकि क़ानूनन चंदा देने वाले का नाम न बताना पड़े, आप यक़ीन कर सकते हैं वो काला धन ख़त्म करेंगे. आपसे चार हज़ार का हिसाब मांगा जा रहा है और ख़ुद कानून बनाने वाले बीस हज़ार का हिसाब नहीं देते. एक अंदाज़े के मुताबिक़ अगर राजनीतिक दलों को सौ करोड़ चंदा मिलता है तो वे चुनाव आयोग को यही बताते हैं कि अस्सी फीसदी पैसा बीस हज़ार से कम का है. इसलिए नाम नहीं बताते क्योंकि काला धन में हेरफेर करना होता है. हमें पता भी नहीं कि इतने हेलिकाप्टर किसके पैसे से उड़ते हैं.

क्या चंद्राबाबू नायडू की पार्टी सिर्फ और सिर्फ ईमानदारी के पैसे से चुनाव लड़ती है? कहीं वो अपने विपक्ष को ख़त्म करने के लिए तो चिट्ठी नहीं लिख रहे थे? क्या हम उम्मीद करें कि राजनीतिक दल अपने पैसे का सोर्स पब्लिक को बताएंगे? अपने यहां कम से कम पैसे से जुड़े सवाल पूछने के लिए सूचना का अधिकार लागू करेंगे ? कोई दल अपने यहां सूचना के अधिकार को लागू नहीं करता जबकि केंद्रीय सूचना आयुक्त का फ़ैसला है. जगदीप छोकर साहब इसकी लड़ाई लड़ रहे हैं. हाईकोर्ट में एक याचिका भी डाली है कि जिस राज्य में जिस तारीख को चुनाव है उस तारीख से एक साल पहले तक का ख़र्चा बताएं. चुनावी पैसे का बड़ा हिस्सा चुनाव से पहले से ख़र्च होने लगता है. आचार संहिता के लागू होने से बहुत पहले.

इस फ़ैसले को अर्थव्यवस्था में आने वाले बदलावों और उछालों के संदर्भ में देखने की ज़िद नहीं छोड़नी चाहिए. क्या बैंकों को समृद्ध करने के लिए ये कदम उठाया गया है? हाल ही में ख़बर आई थी कि 57 लोगों पर बैंकों का 85,000 करोड़ बक़ाया है. बैंक वसूल नहीं पा रहे है. 2014 से पहले की तरह हाल के दो वर्षों में भी  बैंकों का नॉन प्रोफ़िट असेट बढ़ा है. क्या लोग जब अपना पैसा बैंकों में डालेंगे तो इससे बैंकों की हालत बेहतर होगी? अगर ऐसा है तो इसका असर अर्थव्यवस्था में आने वाले उछालों पर भी दिखेगा? नौकरियों पर भी दिखेगा. अगर नहीं दिखा तो यह फ़ैसला सिर्फ इतिहास बनाने के लिए ही ऐतिहासिक कहलाता रह जाएगा. आप पाठकों को भी कई विश्लेषणों को पढ़ना चाहिए और समझ बनाने का प्रयास करना चाहिए. क्यों ज़रूरी है कि हम आज और इसी वक्त सब समझ जाएं. कुछ ठहर कर भी देखते हैं. फिलहाल स्वागत करते हैं.

तब तक आप एक काम कर सकते हैं. नोट बंद होने पर आए अनगिनत लतीफों का मज़ा ले सकते हैं. इतनी जल्दी ऐसे मैसेजों की भरमार कैसे हो जाती है, हैरानी भी होती है. लोग कितने सृजनशील हो गए हैं. इन लतीफों को स्कैन करते हुए लगा कि लोगों को कोई राजनैतिक घटनायें याद हैं, तभी तो उनके आधार पर लतीफे बनाये जा रहे हैं. बनाने वाला और हंसने वाला तुरंत इसलिए रिएक्ट कर रहा है क्योंकि उसे याद है.

इस लेख से जुड़े सर्वाधिकार NDTV के पास हैं. इस लेख के किसी भी हिस्से को NDTV की लिखित पूर्वानुमति के बिना प्रकाशित नहीं किया जा सकता. इस लेख या उसके किसी हिस्से को अनधिकृत तरीके से उद्धृत किए जाने पर कड़ी कानूनी कार्रवाई की जाएगी.

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
डार्क मोड/लाइट मोड पर जाएं
Previous Article
BLOG : हिंदी में तेजी से फैल रहे इस 'वायरस' से बचना जरूरी है!
नोटों के बंद होने के बाद यूपी में नेता करेंगे कार पूल और रैली पूल!
बार-बार, हर बार और कितनी बार होगी चुनाव आयोग की अग्नि परीक्षा
Next Article
बार-बार, हर बार और कितनी बार होगी चुनाव आयोग की अग्नि परीक्षा
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com