विज्ञापन
This Article is From Jun 02, 2015

इनका बनाम उनका में बिखर रहा है अटाली का तिनका-तिनका समाज

Ravish Kumar
  • Blogs,
  • Updated:
    जून 02, 2015 14:51 pm IST
    • Published On जून 02, 2015 12:39 pm IST
    • Last Updated On जून 02, 2015 14:51 pm IST
हरियाणा के बल्लभगढ़ का एक गांव है अटाली। सरकारी नामावली में आदर्श ग्राम है। गांव के कई लोगों की समृद्धि उनके मकानों से भी दिखती है। कई हिन्दू और मुसलमानों के घर चमचाते नज़र आते हैं। इस गांव के घरों में पाइपलाइन से गैस की सप्लाई होती है, जिसे आजकल स्मार्ट सिटी का गहना बताया जाता है। गांव की सड़कें काफी अच्छी हैं। बिजली के खंभे लगे हैं। गांव में चाट की दुकान है। गांव पहुंचने के रास्ते में बहुत सारी ज़मीनों के प्लॉट काटकर खंभे गाड़े गए हैं यानी इस गांव में भी कोई शहर आ रहा है।

अटाली से लौटकर उन तमाम वर्षों की नाकामी लू की तरह झोंके मार रही थी, जिनमें हमने समाज को इस तरह से बड़ा होने दिया है। हमारी यह नाकामी तब बहुत बड़ी हो जाती है जब इस तरह की कोई घटना हो जाती है और वापसी का कोई रास्ता नहीं दिखाई देता। मेरा मन किसी संप्रदाय विशेष के प्रति सहानुभूति के कारण ख़राब नहीं हुआ न ही किसी के प्रति नाराज़गी से। सौ साल से ज़्यादा समय से इस तरह की घटनाओं का एक सा पैटर्न है। आप अपनी सुविधा के हिसाब से राज्य, धर्म और जाति बदल कर देख लीजिए खास फर्क नहीं दिखेगा।

हमें स्वीकार करना चाहिए कि हमारे भीतर हिंसा है। हम जाति धर्म या क्षेत्र के आधार पर हिंसा को पोसते रहते हैं। बस इन्हें बड़ा करने के लिए तथाकथित जायज़ बहानों का सहारा चाहिए। ब्रिलियंट होराम तो मणिपुर का है उस पर भी किसी व्यक्ति ने थूक दिया। प्रतिरोध किया तो मार-मार कर घायल कर दिया। हम अपने ही देश के नागरिक से उसके चेहरे की बनावट से इतनी नफ़रत कर सकते हैं कि उसे देखते ही थूक दें। दिल्ली महानगर में आए दिन पूर्वोत्तर के राज्यों के लोगों के साथ ऐसी घटना हो रही हैं। इस मसले पर भी ऐसी कोई बात नहीं है जो कही न गई हो। यही वो हिंसा है जो किसी कुएं से दलित को पानी पीते देख भड़क सकती है तो किसी को अंडा या मांस खाते देख। यही वो हिंसा है जो ज़मीन का विवाद होने पर मेघवाल जाति के लोगों को घेर कर 6 लोगों को मार देती है। यही वो हिंसा है जो हरियाणा के एक आश्रम में रामलाल पैदा कर देती है जिसके यहां शरण लेने वालों की भीड़ लगी रहती थी।

हिन्दू बनाम मुसलमान की हिंसक घटनाओं का चरित्र भी कुछ ख़ास अलग नहीं है। मुसलमान के ख़िलाफ़ तो सब हिन्दू हो जाते हैं, लेकिन वहां से पलटते ही दलितों के ख़िलाफ़ हो जाते हैं। उसी तरह हिन्दुओं के नाम पर मुसलमान होने वाले क्यों नहीं देख पाते कि शिया सुन्नी, तबलीगी, बरेलवी और देवबंदी के नाम पर क्या होता है। ऐसा नहीं है कि दोनों समुदायों के लोगों को यह सब पता नहीं है। हर समाज में ऐसी प्रवृत्तियों की निंदा करने वाले हैं मगर वे अक्सर कमज़ोर साबित होते हैं। हम बेहद लाचार हिन्दू या कमज़ोर मुसलमान हैं। हमने धर्म के नाम पर ख़ून बहाया है तो धर्म के भीतर भी एक दूसरे का कम ख़ून नहीं बहाया है। जितने दंगे नहीं होते उससे कहीं ज़्यादा जातिगत टकराव होते रहते हैं। लोगों को वैसे ही गांव या मोहल्ले से बेदखल होना पड़ता है जैसे किसी हिन्दू-मुस्लिम दंगों या टकराव की स्थिति में। तब तो कोई इस जातिवाद के ख़िलाफ़ खड़ा नहीं होता। जो पंचायत मुसलमानों से टकराव के वक्त हिन्दू बनी रहती है वही पंचायत दलितों को मारने के बाद भी ताकतवर जाति की बनी रहती है।


नफ़रत की यह मानसिकता सिर्फ गांवों में नहीं है, शहरों में भी है। मुंबई में किसी मुस्लिम महिला को हिन्दुओं के अपार्टमेंट में मकान नहीं मिलता है तो जैन के अपार्टमेंट में मराठी को नहीं मिलता है। उसी तरह से कई जगहों पर मुसलमानों के अपार्टमेंट में हिन्दू को घर नहीं मिलता है। आप दलित बताकर हिन्दू के अपार्टमेंट में फ्लैट लेने जाइए वास्तविकता का अंदाज़ा मिलेगा। मुंबई के ही एक अपार्टमेंट में रहने वाले सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी के एक बड़े मैनेजर को जानता हूं। दलित हैं लेकिन जब उनके बच्चे का जन्मदिन होता है तो बाकी माएं अपने बच्चों को नहीं भेजती हैं। वो बच्चा अकेला अपना जन्मदिन मनाता है। मैनेजर साहब की कार के टायर पंचर कर दिये जाते हैं।

मूल रूप से हम सभी हिंसक लोग हैं। बर्बरता का अंश किसी न किसी मात्रा में ज़्यादातर लोगों में मौजूद है। इनका बनाम उनका के आधार पर की जाने वाली दलीलें अपनी हिंसा को जायज़ ठहारने के लिए होती हैं। हमने कभी लोगों से आंखों में आंखें डालकर बात नहीं की। जाति के ख़िलाफ़ भी बोलते वक्त हम बुज़दिल साबित होते हैं और धर्म के ख़िलाफ़ भी। प्रशासन और राजनीति का हाल हर दौर में रहा है। कांग्रेस ने अपने लंबे समय के शासन काल में ऐसी कोई व्यवस्था कायम नहीं होने दी जो इन बातों पर अंकुश लगाती। अपने कार्यकर्ताओं को भी तैयार नहीं किया कि इसके ख़िलाफ़ लड़ें। इस समझौतावादी रवैये के कारण उसका वजूद कमज़ोर तो हुआ ही, इसके नाम पर सांप्रदायिकता की दूसरी धारा को मंज़ूरी मिल गई। कई पार्टियां आईं मगर किसी ने लोगों के बीच जाकर इन मसलों पर बात नहीं की। वाम दल ये भूमिका निभा सकते थे मगर उनका भी वाम शासित सरकारों में बहुत अच्छा रिकॉर्ड नहीं है। बीजेपी के राज में भी आपको इसी तरह की प्रवृत्ति मिलेगी। ताकतवर से समझौता और ग़रीब या कमज़ोर की उपेक्षा। कहीं प्रशासन या कानून का राज नहीं है।

सबकी इस हार में अपनी हार का भी अफ़सोस होता है। हम हिंसा के ख़िलाफ़ कोई जनमत नहीं बना पाए। अहिंसक लोकसंस्कृति नहीं बना पाए हैं। किसी में हिम्मत नहीं है कि यह कह देने के लिए कि अगर लाउडस्पीकर से झगड़ा होता है तो इसे मंदिर-मस्जिद दोनों जगहों से बैन करो। हटाओ फ़साद की इस जड़ को। किसने कहा है कि लाउडस्पीकर के बिना ईश्वर या अल्लाह की बंदगी नहीं हो सकती। धार्मिक स्थलों से लेकर चौराहों तक में हर कोई इस स्पीकर से परेशान है। अगर हम वाकई ईमानदार होते तो फ़साद के इस एक कारण को तो मिटा ही सकते थे। जब लाउडस्पीकर नहीं था तब अजान कैसे होती थी, क्या तब मस्जिद नहीं थी, क्या तब मंदिर नहीं था, क्या तब आरती नहीं होती थी।

बुज़दिल समाज हमेशा ऐसे मामलों में पक्ष लेकर उस वक्त बनी सामूहिकता में छिपने का प्रयास करता है। उसे ताकत मिलती है लेकिन उसे यह समझना चाहिए हिन्दू या मुस्लिम नाम पर बनी ये सामूहिकता ज़्यादा टिकाऊ नहीं होती है। वो जल्दी ही दलितों को मारने लगती है, शिया-सुन्नी के खेल में एक दूसरे का गला काटने लगती है। बल्लभगढ़ की घटना के बाद किसी नेता की हिम्मत नहीं हुई कि वो दोनों समुदाय को सामने बिठाता और कड़ाई से समझौते कराता। हटा देता वहां से पुलिस और कहता कि आप एक-दूसरे की सुरक्षा के मालिक हैं। सब चुप हैं। सब एक-दूसरे की तरफ़ से बोल रहे हैं। कोई एक-दूसरे से नहीं बोल रहा है। इसी तरह की चुप्पी या एकतरफा संवाद जातिगत टकरावों के वक्त भी दिखाई देता है।

अटाली कोई अंतिम गांव नहीं है। धर्म और जाति के आधार पर किसी और गांव में ऐसी ही हिंसा जन्म ले रही होगी। वहां भी कोई जायज़ कारण ढूंढ लिया जाएगा। इस गांव की हिंसा की तस्वीरें बता रही हैं कि हिंसा से ज़्यादा बड़ा मकसद कुछ लूटपाट और आगजनी के बाद समाज को उस अंतहीन बहस में धकेला जाए जहां से लोग एक-दूसरे के ख़िलाफ़ होकर लौटते हैं।

अब आइये सोशल मीडिया के पन्नों पर। यह सांप्रदायिकता का सबसे बड़ा प्रजनन केंद्र है। आप किसी भी हिंसा की बात कीजिए तुरंत सौ लोग गाली देने आ जाते हैं। पूछने लगते हैं कि आपने कश्मीर की बात नहीं की, आपने वहां की बात नहीं की, आपने फलाने की बात नहीं की। ये कभी नहीं कहते हैं जिसकी बात हो रही है उस पर इनका क्या नज़रिया है। क्या वे कश्मीरी पंडितों के साथ हुआ के आधार पर अटाली में जो हुआ उसे सही ठहराते हैं। उन दलों की क्या मजबूरी होती होगी जो उन्हीं से समझौता कर लेते हैं जिन पर वे कश्मीरी पंडितों को बेदखल करने का इल्ज़ाम लगाते हैं। कश्मीरी पंडितों के साथ नाइंसाफ़ी से कौन इंकार कर सकता है। अपने ही देश में जलावतनी का ऐसा दर्द किसी अटाली गांव के मुसलमानों से कैसे कम हो सकता है। लेकिन अब तो सत्ता है, राजनीति है वो सब है जिन पर कश्मीरी पंडितों ने भी भरोसा किया वो क्यों नहीं कुछ कर पाते हैं।

इसलिए नहीं कर पाते हैं कि इस मामले में कांग्रेस हो या बीजेपी दोनों की प्रवृत्ति एक समान है। दोनों में साहस नहीं है कि वो इन मसलों पर समाज से सीधा संवाद करे। उनके बीच जाकर टकराए। उनसे जूझे। सही बात करने का जोखिम उठाए। उन्हें लोगों से कहना चाहिए कि अपनी नाराज़गी को हिंसा में बदलेंगे तो प्रशासन आपका साथ नहीं देगा। आप चाहें जितना गांव जमा कर लें, कानून अपना काम करेगा। हिन्दू हो या मुसलमान हो। दलित हो या सवर्ण हो। लोगों को नाराज़गी और हिंसक अपराधों में फर्क बताना होगा। किसी भी घटना का विश्लेषण कर लीजिए, किसी भी पक्ष से देख लीजिए, इंसाफ़ किसी को नहीं मिलता। बस हमारे भीतर की हिंसा को एक और जीवनदान मिल जाता है। फिर किसी और जगह भड़कने के लिए।

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com