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This Article is From Jul 23, 2018

राफेल लड़ाकू विमान को लेकर लड़ाई किस बात की हो रही है...

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 23, 2018 16:43 pm IST
    • Published On जुलाई 23, 2018 16:43 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 23, 2018 16:43 pm IST
हमने इस विवाद को समझने के लिए 'बिज़नेस स्टैंडर्ड' के अजय शुक्ला और 'टाइम्स ऑफ इंडिया' के रजत पंडित की रिपोर्टिंग का सहारा लिया है. ये दोनों ही रक्षा मामलों के बेहतरीन रिपोर्टर/ विशेषज्ञ माने जाते हैं. आप खुद भी तमाम लेखों को पढ़कर अपनी सूची बना सकते हैं और देख सकते हैं कि कौन पक्ष क्या बोल रहा है. हिन्दी में ऐसी सामग्री कम मिलेगी, सिर्फ नेताओं के आरोप मिलेंगे, मगर डिटेल छानने की हिम्मत कोई नहीं करेगा, वरना वे जिसके गुलाम हैं, उससे डांट पड़ेगी.

7 फरवरी, 2018 के 'टाइम्स ऑफ इंडिया' में रजत पंडित की रिपोर्ट का सार यह है कि UPA ने फ्रांस से राफेल लड़ाकू विमान ख़रीदने का करार किया था. 18 विमान तैयार मिलेंगे और 108 विमान तकनीक हस्तांतरण के ज़रिए भारत में बनेंगे. इसे लेकर मामला अटका रहा और सरकार चली गई. जून, 2015 में मोदी सरकार ने पहले के करार को समाप्त कर दिया और नया करार किया कि अब 18 की जगह 36 राफेल विमान तैयार अवस्था में दिए जाएंगे और इसके लिए तकनीक का हस्तांतरण नहीं होगा, मगर जब भी वायुसेना को ज़रूरत पड़ेगी, फ्रांस मदद करेगा. जब 'मेक इन इंडिया' पर इतना ज़ोर है, तो फिर तकनीक हस्तांतरण के क्लॉज़ को क्यों हटाया गया, इस पर रजत और अजय के लेख में जानकारी नहीं मिली.

रजत पंडित ने लिखा है कि इसके लिए रिलायंस डिफेंस और राफेल बनाने वाली DASSAULT AVIATION के बीच करार हुआ. इस विवाद में रिलायंस डिफेंस पर आरोप लगे हैं, मगर कंपनी ने इनकार किया है. राहुल गांधी ने आरोप लगाया है कि एक उद्योगपति मित्र को लाभ पहुंचाने के लिए मोदी सरकार ने यह जादू किया है कि जो विमान हम 540 करोड़ में ख़रीद रहे हैं, उसी को विमान निर्माण के मामले में नौसिखिया कंपनी को लाभ पहुंचाने के लिए 1,600 करोड़ में ख़रीदा जा रहा है. UPA और NDA के समय राफेल के दाम में इतना अंतर क्यों हैं, ज़रूर घोटाला हुआ है और प्रधानमंत्री इन सवालों पर सीधा जवाब नहीं दे पा रहे हैं.

रजत पंडित ने लिखा है कि निर्मला सीतारमण इसी साल फरवरी में भी संसद को बता चुकी हैं कि दो सरकारों के बीच हुए करार के आर्टिकल-10 के अनुसार वह इस सौदे से संबंधित जानकारियां सार्वजनिक नहीं कर सकतीं, लेकिन 18 नवंबर, 2016 को रक्षा राज्यमंत्री सुभाष भामरे संसद में लिखित जवाब दे चुके हैं कि एक राफेल विमान का औसत दाम 670 करोड़ होगा और सभी अप्रैल, 2022 तक भारत आ जाएंगे. सादा विमान का दाम 670 करोड़, लेकिन इसे हथियार के अनुकूल बनाने, हथियार से लैस करने, कलपुर्ज़े देने और रखरखाव को जोड़ने के बाद औसत दाम 1,640 करोड़ हो जाता है. यहां तक रजत पंडित का लिखा है.

अब राहुल गांधी यह नहीं बताते कि उनके समय में 540 करोड़ में एक विमान ख़रीदा जा रहा था, तो वह सादा ही होगा, हथियारों से लैस करने के बाद एक विमान की औसत कीमत क्या पड़ती थी...? ज़रूर UPA के समय एक राफेल विमान का दाम 540 करोड़ बताया जा रहा है और मोदी सरकार के समय एक का दाम 700 करोड़ से अधिक, जबकि मोदी सरकार 18 की जगह 36 राफेल विमान खरीद रही है.

अब आते हैं 22 जुलाई के 'बिज़नेस स्टैंडर्ड' में छपे अजय शुक्ला के लेख की तरफ. आप जानते हैं कि अविश्वास प्रस्ताव के समय रक्षामंत्री ने कहा कि फ्रांस और भारत के बीच गुप्त शर्तों के कारण जानकारी सार्वजनिक नहीं हो सकती और यह करार 2008 में UPA ने ही किया था. आपने रजत पंडित के लेख में देखा कि निर्मला सीतरमण इसी फरवरी में अपनी सरकार के समय किए गए करार की गुप्त शर्तों का हवाला दे चुकी हैं. अब यहां अजय शुक्ला  और निर्मला सीतरमण की बात में एक कमी पकड़ते हैं. अजय कहते हैं कि निर्मला सीतरमण ने संसद को यह नहीं बताया कि 2008 के ही करार को मोदी सरकार ने इसी मार्च में 10 साल के लिए बढ़ा दिया है. इस साल मार्च में फ्रांस के राष्ट्रपति भारत के दौरे पर थे, तभी यह करार हुआ था.

अजय शुक्ला ने लिखा है कि फ्रांस में समय-समय पर यह जानकारी सार्वजनिक की जाती है कि हर राफेल की बिक्री पर सेना को कितने पैसे मिले हैं. वैसे में शायद ही फ्रांस भारत की परवाह करे. दूसरी ओर जब रक्षा राज्यमंत्री संसद में बयान दे रहे हैं कि सरकार राफेल सौदे की सारी बातें CAG के सामने रखेगी, और आप जानते हैं कि CAG अपनी सारी रिपोर्ट पब्लिक करती है, सो, अगर CAG से पब्लिक होगा, तो सरकार खुद ही क्यों नहीं बता देती है.

अजय शुक्ला लिखते हैं कि 23 सितंबर, 2016 को रक्षा मंत्रालय खुद ही राफेल के दाम सार्वजनिक कर चुका है. रक्षा मंत्रालय के शीर्ष अधिकारी ने कुछ पत्रकारों के साथ 'ऑफ द रिकार्ड' ब्रीफिंग की थी, जिसमें एक-एक डिटेल बता दी गई थी. इसी ब्रीफिंग के आधार पर कई अख़बारों में ख़बर छपी थी. 24 सितंबर, 2016 के 'बिज़नेस स्टैंडर्ड' में लिखा है कि भारत ने 36 राफेल विमान के लिए 7.8 बिलियन यूरो का करार किया है. तब यह रिपोर्ट हुआ था कि बिना किसी जोड़-घटा के सादा राफेल विमान की कीमत 7.4 अरब तय हुई है, यानी 700 करोड़ से अधिक. जब इन विमानों को भारत की ज़रूरत के हिसाब से बनाया जाएगा तब एक विमान की औसत कीमत 1,100 करोड़ से अधिक होगी. इस प्रकार राफेल सौदे की जानकारी तो पब्लिक में आ गई थी. ख़ुद रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण बोल चुकी थीं कि वह कुछ भी नहीं छिपाएंगी, देश को सब बताएंगी. लेकिन कुछ दिन के बाद मुकर गईं और कह दिया कि फ्रांस और भारत के बीच गुप्त करार है और वह सौदे की जानकारी सार्वजनिक नहीं कर सकतीं.

दिसंबर, 2017 से कांग्रेस राफेल डील को लेकर घोटाले का आरोप लगा रही है. उसका कहना है कि इस विमान के लिए हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड को सौदे से बाहर रखा गया और एक ऐसी कंपनी को प्रवेश कराया गया, जिसकी पुरानी कंपनियों ने कई हज़ार करोड़ का लोन डिफॉल्ट किया है. जिसकी वजह से बैंक डूबने के कगार पर हैं. ऐसी कंपनी के मालिक को इस सौदे में शामिल किया गया, जिसका विमान के संबंध में कोई अनुभव नहीं है.

राहुल गांधी का आरोप है कि UPA के समय में एक राफेल विमान की कीमत 540 करोड़ थी, अब उसी विमान को मोदी सरकार 1600 करोड़ में किस हिसाब से ख़रीद रही है. प्रधानमंत्री ने ये जादू कैसे किया है. अविश्वास प्रस्ताव के दौरान राहुल गांधी ने इस बात को उठाते हुए दावा किया कि वे फ्रांस के राष्ट्रपति से मिले और उन्होंने बताया कि ऐसा कोई करार भारत और फ्रांस के बीच नहीं है. आप यह बात पूरे देश को बता सकते हैं. इस बयान के तुरंत बाद फ्रांस के राष्ट्रपति ने इसका खंडन कर दिया. बीजेपी इस बात को लेकर आक्रामक हो गई और राहुल गांधी के खिलाफ विशेषाधिकार हनन का नोटिस दिया गया है.

'इंडिया टुडे' की वेबसाइट पर 8 मार्च 2018 को एक न्यूज़ आइटम छपा है. इसकी हेडलाइन है कि मोदी सरकार विपक्ष के साथ राफेल डील के डिटेल साझा कर सकती है. यह बयान फ्रांस के राष्ट्रपति का है जो उन्होंने इंडिया टुडे टीवी को दिए इंटरव्यू में कहा था. आप इसे भी चेक कर सकते हैं. फिर सरकार क्यों किसी गुप्त शर्त के नाम पर नहीं बता रही है.

मोबाइल ऐप लॉन्च कर देना ही 'डिजिटल इंडिया' नहीं
भारतीय रेल के 50 मोबाइल ऐप हैं. क्या रेल मंत्रालय का एक ऐप नहीं होना चाहिए था, जहां से सभी ऐप तक पहुंचा जा सके. 50 ऐप का क्या मतलब है. क्या ये सारे ऐप डाउनलोड भी किए जाते हैं...? पिछले दो साल में ही भारतीय रेल ने 25 मोबाइप ऐप बनाए हैं. तीन-चार मोबाइल ऐप को छोड़कर बाकी किसी ऐप की कोई पूछ नहीं है. वे बेकार ही बनकर पड़े हुए हैं. उन्हें डाउनलोड करने वाला कोई नहीं.

कृषि मंत्रालय के 25 ऐप हैं. चावल उत्पादन को लेकर ही सात प्रकार के ऐप हैं. नेशनल मोबाइल गवर्नेन्स इनिशिएटिव (NMGI) की वेबसाइट के अनुसार 30 प्रकार के ऐप हैं, जिनमें एकमात्र भीम ऐप है, जिसे एक करोड़ लोगों ने डाउनलोड किया है, और बाकी ऐप सिंगल डिजिट में ही डाउनलोड किए गए हैं. यह मेरी जानकारी नहीं है. 21 जुलाई के 'बिज़नेस स्टैंडर्ड' में करण चौधरी और शाइनी जैकब की रिपोर्ट है. दोनों ने यह बात उजागर की है कि 'डिजिटल इंडिया' को सक्रिय दिखाने के लिए विभागों के बीच मोबाइल ऐप बनाने की होड़ मची है. एक ही बात के लिए कई-कई ऐप बने हैं और जो काम एक ऐप में हो सकता है, उसके लिए अलग-अलग ऐप बनाए जा रहे हैं.

ज़ाहिर है, ज़्यादातर ऐप का मतलब आंखों में धूल झोंकना है, प्रचार पाना है कि बड़ा भारी काम हो गया है, ऐप लॉन्च हो गया है. इस होड़ में सरकार ने 2,000 से अधिक ऐप बना दिए हैं. एक मोबाइल ऐप को बनाने में पांच हज़ार से एक लाख तक ख़र्च आ जाता है.


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