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This Article is From Dec 20, 2014

रवीश कुमार की कलम से : बख्तरबंद स्कूल में आपका बच्चा

Ravish Kumar
  • Blogs,
  • Updated:
    दिसंबर 20, 2014 11:04 am IST
    • Published On दिसंबर 20, 2014 10:59 am IST
    • Last Updated On दिसंबर 20, 2014 11:04 am IST

क्या आप ऐसे किसी स्कूल की कल्पना करना चाहेंगे, जहां आपके बच्चे को गेट पर मेटल डिटेक्टर से गुजरना पड़े, क्लासरूम में जाने से पहले उसके बैग की सुरक्षा जांच हो, प्रार्थना के बाद आतंकवाद से बचने के लिए सुरक्षा ड्रील हो, चारों तरफ सीसीटीवी कैमरे लगे हों, जिसके ज़रिये प्रिंसिपल और सिक्योरिटी अफसर बच्चों के एक-एक लम्हे पर निगाह रख रहे हों, स्कूल की दीवारें बहुत ऊंची और गेट में ग्रिल की जगह लोहे की मोटी चादर लगी हो।

अगर इस माहौल में आपका बच्चा किसी स्कूल में बितायेगा, तो उस पर क्या असर पड़ेगा, क्या हमने इस पर सोचा है। वैसे बहुत हद तक ये माहौल हमारे पास बन चुका है। इसके बाद भी सुरक्षा के ऐसे सख्त माहौल का किसी बच्चे पर क्या मनोवैज्ञानिक असर पड़ता है, इसका मूल्यांकन तो होना ही चाहिए। सिर्फ स्कलों को बख्तरबंद कर देने से हैवानियत की बंदूक को खत्म नहीं किया जा सकता है।

केंद्र सरकार ने 2010 में भी तमाम राज्यों को निर्देश भेजे थे कि स्कूलों में सुरक्षा के लिए क्या-क्या करना है। तब यह पता चला था कि मुंबई हमले का आरोपी डेविड कोलमन हेडली ने 2008 के मुंबई हमले से पहले दो बोर्डिंग स्कूलों की भी वीडियो रिकार्डिंग की थी। निर्देशिका में कहा गया है कि अगर कोई बंदूकधारी स्कूल पर हमला करे, तो छात्रों और शिक्षकों को अपने-अपने कमरे में ही रहना चाहिए। दरवाजा बंद कर देना चाहिए और जमीन पर लेट जाना चाहिए। गार्ड को अलार्म बटन दबा देना चाहिए। ऐसा करने से अंधाधुंध गोलीबारी से कई लोगों की जान बच सकती है। लेकिन तब क्या करेंगे, जब पेशावर के स्कूल की तरह बच्चों से नाम पूछकर गोली मारी जाने लगे।

दिशा निर्देश को ध्यान से पढ़ें, तो लगता है कि अब स्कूल, स्कूल नहीं रहेंगे। हालांकि स्कूल भी किसी स्टेट-सिस्टम की तरह ही काम करते हैं, लेकिन अब फर्क ये आएगा कि आतंक के नाम पर उन्हें पुलिस सिस्टम की तरह काम करने की छूट मिल जाएगी। जितने भी निर्देश बताए गए हैं, उनमें से एक भी आतंकी हमले को रोकने में कारगर नहीं है। कभी मॉल, कभी होटल, कभी अस्पताल, कभी रेलवे स्टेशन, तो कभी रैली। हर जगह आतंकवादियों ने निशाना बनाया है। बेकसूर लोगों को मारा है। आप कहां-कहां सीसीटीवी के भरोसे आतंकवाद को काबू में रखेंगे।

दुनिया में हर आतंकी हमले के बाद सरकारें सुरक्षा बजट बढ़ा देती हैं। सरकार से लेकर पब्लिक संस्थाएं अरबों रुपये इलेक्ट्रॉनिक उपकरण खरीदने में खर्च कर देती हैं। सुरक्षा उपकरणों के नाम पर हजारों की संख्या में सीसीटीवी कैमरे लगाए जा रहे हैं। इतना पैसा अगर हम पुलिस सिस्टम को बेहतर करने में खर्च करते, तो कुछ ठोस नतीजा भी निकलता। थाने में पर्याप्त पुलिस नहीं है। खुफिया तंत्र कमज़ोर पड़ा हुआ है। पुलिस न आधुनिक हो सकी है, न तकनीकी सामानों से लैस। सरकारें ये सब करने में बरसों लगा देती है और तब तक बाज़ार आतंक और सुरक्षा के नाम पर अरबों का माल बेचकर निकल जाता है। क्या अब इसका विश्लेषण नहीं होना चाहिए कि आतंकवाद को रोकने में मेटल डिटेक्टर और सीसीटीवी से कोई मदद मिली भी या नहीं। आए दिन हम टीवी पर देख रहे हैं कि नकाब पहनकर सीसीटीवी कैमरे के नीचे एटीएम मशीन तक उठा ले जा रहे हैं। हम सीसीटीवी से चोर तक नहीं पकड़ पा रहे हैं, आतंकवादी क्या पकड़ेंगे।

मुंबई हमले के बाद पूरे देश में सीसीटीवी और मेटल डिटेक्टर की बिक्री बढ़ गई है। 2008 में छपी 'बिजनेस स्टैंडर्ड' अखबार की रिपोर्ट बताती है कि सुरक्षा उपकरणों का बाज़ार 30 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है। सीसीटीवी निगरानी की जगह डिजिटल निगरानी की तरफ दुनिया जा रही है। इस सिस्टम में आप अपने कंप्यूटर से दुनिया में कहीं से भी अपनी कंपनी या स्कूल की निगरानी कर सकते हैं। गार्ड की ज़रूरत नहीं होगी। लेकिन हमले के बाद सीसीटीवी देखकर कोई पुलिस को बता भी दे, तो क्या हम ये नहीं जानते हैं कि हमारी पुलिस की क्या हालत है। डिजिटल निगरानी के नाम पर मुगालता मत पालिये।

आप शहर कस्बे में कहीं चले जाइये, स्कूलों में सीसीटीवी कैमरे लगे हैं। बेहद कम तनख्वाह पर रंगीन कपड़े में सिर्फ चाय पर बारह-बाहर घंटे खड़े ये गार्ड तैनात कम, झूलते हुए ज्यादा लगते हैं। आप किसी भी स्टेशन पर जाकर देखिये। मेटल डिटेक्टर का क्या हाल है। पूरा स्टेशन खुला हुआ है। जो खतरनाक इरादे से आएगा उसके लिए स्टेशन में घुसने के हज़ारों रास्ते हैं। पब्लिक स्पेस में आतंकी हमलों के बाद हवाई अड्डों ने ही बेहतर ढंग से खुद को सुरक्षित किया है। भारत ही नहीं शायद दुनिया भर में। ऐसा इसलिए कि हवाई अड्डों का व्यापक तरीके से आधुनिकीकरण हुआ है। पुराने को तोड़कर नया बनाया गया है। लेकिन रेलवे स्टेशन सुरक्षा के लिहाज़ से बने ही नहीं हैं।

हैदराबाद पुलिस ने स्कूलों के लिए सुरक्षा उपकरणों की एक नुमाइश भी लगाई। उन्हें नकली धमाके से बताया कि क्या क्या होता है और क्या क्या करना है। कुछ कंपनियों के उपकरण भी वहां लगा दिये, जिनकी बिक्री बढ़ जाएगी। पुलिस और सरकार का यह एक भी एक बेहद कुलीन नज़रिया है।

स्कूलों में सुरक्षा के नाम पर हम चंद महानगरों के नामी प्राइवेट स्कूलों की ड्रील से संतुष्ट नहीं हो सकते हैं। इन्हीं महानगरों में सरकारी स्कूल भी होते हैं और कई बेहद साधारण से सरकारी स्कूल। सरकारें अपने स्कूलों में शौचालय नहीं बनवा सकी हैं और वे निर्देश के नाम पर उपदेश दे रही हैं कि आप तीन-तीन गेट बनवाइये, सीसीटीवी कैमरे लगाइये, पब्लिक अनाउंसमेंट सिस्टम होना चाहिए, वगैरह-वगैरह। क्या सरकारी स्कूल के बच्चे इस देश के बच्चे नहीं हैं।

ज़ाहिर है इन आधे-अधूरे तरीकों से आतंकवाद से मुकाबला नहीं किया जा सकता है। जब सरकारें नहीं कर पा रही हैं, तो क्या सीसीटीवी कर लेंगी। इसलिए आतंकवाद के कारणों, उनकी राजनैतिक धार्मिक पृष्ठभूमि से टकराना ही होगा। हमें उस माहौल से भी टकराना होगा, जो पब्लिक स्पेस में दिन-रात सांप्रदायिक और धार्मिक कट्टरता की भाषा के ठेलने से बन रहा है। अव्वल तो हम धार्मिक कट्टरता और राष्ट्रवाद को ही शर्बत में चीनी की तरह घोलकर पीये जा रहे हैं बगैर यह समझे कि कट्टरता की यही पृष्ठभूमि काम आ जाती है आतंकवाद को रचने में।

तालिबान सिर्फ धर्म की उपज नहीं है। यह कैसे हो सकता है कि सरकारें तालिबान को जन्म भी दें, उनको पाले-पोसें और आम नागरिक से कह दें कि आप सीसीटीवी लगा लीजिए। जब तक हम इन कारणों के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय जनमत तैयार नहीं करेंगे, यह समस्या ऐसे ही हममें से किसी की भी जान लेती रहेगी। अगर यह बात नहीं समझ आती है, तो अपनी कमीज़ के कॉलर पर भी एक सीसीटीवी कैमरा लगा लीजिए। सबके हाथ में कैमरा तो है ही है। क्या इससे आतंकवाद रुक जाएगा।

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