रवीश कुमार की कलम से : पोस्टरों और स्लोगनों से आज़ाद करो विवेकानंद को

उस रोज़ गंगा की गोद में बहुत कम लोग थे। आस-पास से दो-चार नावें गुज़र रहीं थीं। हर नाव में तीस से पैंतीस लोग सवार थे, जिनके चेहरे की झुर्रियां बता रही थीं कि वे उसी तबके से आते हैं, जिनकी मुक्ति की कामना में विवेकानंद 11 सितंबर, 1893 की रात अपने कमरे में रोते रहे, जब धर्म संसद में उनके भाषण ने उन्हें विश्वप्रसिद्ध कर दिया था। रोते हुए विवेकानंद ने कहा था, "ओह मां! नाम और प्रसिद्धि लेकर मैं क्या करूंगा, जब मेरी मातृभूमि अत्यंत गरीब है... कौन भारत के गरीबों को उठाएगा...? कौन उन्हें रोटी देगा...? हे मां! मुझे रास्ता दिखाओ, मैं कैसे उनकी सहायता करूं...?"

दस रुपये से ज्यादा किराया होता तो शायद ये लोग दक्षिणेश्वर से बेलूर मठ के लिए नाव की सवारी भी नहीं कर पाते। बेलूर मठ के घाट पर उतरते ही एक खास किस्म की सादगी ने स्वागत किया। शायद बेलूर मठ में प्रवेश करने का यह पिछला रास्ता होगा। दो-चार चाय-समोसे और खिलौने के ठेले लगे थे। बेलूर मठ की तरफ मुड़ते ही एक मज़ार दिखा। पानी की बोतलें बिक रही थीं और अंदर कोई गतिविधि नहीं। अंदर जाकर पूछने पर पता चला कि चार सौ साल से यह मज़ार यहां मौजूद है। किसी पीर का है, जो दुनिया की नज़रों से दूर अपने तरीके से भारत को समझ रहा होगा। पास में ही विवेकानंद की भी समाधि है। क्या पता, दोनों आज भी गंगा की लहरों को साक्षी मान संवाद करते होंगे कि धर्म को लेकर लोग वहशी क्यों हो गए हैं। ज़्यादा पूछताछ के लिए उपयुक्त व्यक्ति के न होने के कारण मैं मठ के अंदर प्रवेश कर गया।

स्वामी रामकृष्ण मंदिर के बाहर खड़ा गाइड अंग्रेज़ी में विवेकानंद के बारे में बता रहा था। स्वामी जी ने सभी जगहों और धर्मों की पॉज़िटिव बातें लेकर इस मंदिर का निर्माण किया है। इस मंदिर की वास्तुकला को देखिए। इसमें मस्जिद, चर्च, बौद्ध स्तूप के अंश मिलेंगे। विवेकानंद ने इस मंदिर का डिज़ाइन तैयार करने के लिए भारत का भ्रमण किया था। सभी धर्मों का सार लिया था। गाइड की बातों से इतर मैंने भी खूब निहारा मंदिर को। वाकई वास्तुशैली का बेहतरीन नमूना है, और शायद एक प्रस्थान बिंदु भी। अद्भुत!

मंदिर के बगल में विवेकानंद म्यूज़ियम है। उनके कपड़े-जूते सब रखे हैं। जीवन से जुड़ी कई झांकियां हैं। हम सब जल्दी-जल्दी घूमकर निकल आते हैं। किसके मन में क्या चल रहा है, कौन जानता है। वातावरण में एक शांति तो है, मगर विचार करने का अवसर नहीं। बेलूर मठ पर्यटन स्थल में बदल गया है। विवेकानंद जीवनभर भारत और धर्म के सार को समझते रहे, लेकिन यहां भारत-भर से लोग भारत को समझने के लिए नहीं, विवेकानंद के आकर्षण के कारण आए हैं। डेढ़ सौ साल बाद भी विवेकानंद में इतनी दिलचस्पी सुखद आश्चर्य के समान है।

मंदिर और म्यूज़ियम के बाद मैं इसी परिसर में मौजूद साहित्य केंद्र में प्रवेश करता हूं। दुकान के भीतर जहां भी नज़र ठहरती है, वहां विवेकानंद या रामकृष्ण परमहंस के नाम से ही साहित्य मौजूद है। दोनों के विचारों को वर्गीकरण कर अलग-अलग नाम से पैकेजिंग की गई है। मंदिर की तरह अगर विवेकानंद को इस साहित्य भंडार को बनाने का मौका मिलता तो वह क्या करते। वेदान्त, हिन्दू धर्म, भारतीयता, राष्ट्रीयता जैसे शीर्षकों में खुद को सजा देख विवेकानंद की क्या प्रतिक्रिया होती। उनके विचारों की समग्रता का बाज़ारी वर्गीकरण और सूत्रीकरण देख अच्छा नहीं लगा।

ज़रूर विवेकानंद अपने नाम पर बने इस साहित्य केंद्र में अपनी आलोचना की किताबें भी रखते। धर्म और संस्कृति पर दुनियाभर का और भी साहित्य होता, ताकि उनके अनुयायी धर्म और संस्कृति को समग्र रूप से समझते, न कि विवेकानंद को सिर्फ हिन्दू धर्म के प्रणेता के रूप में जानकर यहां से लौटते। जिस महान शख्स ने बेलूर का मंदिर बनाने के लिए पूरे विश्व की संस्कृतियों, वास्तुकलाओं का संग्रह किया हो, वह कैसे इस परिसर में सिर्फ अपने विचारों की किताबों को रखना पसंद करते या अपने ऊपर की गई सख्त आलोचनाओं को भी जगह देते।

मैंने जिस विवेकानंद को पढ़ा और जितना जाना है, वह ऐसे नहीं हो सकते थे। कुछ किताबें थीं, जो विवेकानंद से इतर थीं, पर ज़्यादातर किताबों के नाम से लगा कि उन्होंने जिस चिन्तन शैली को धक्का दिया था, वह अब छपकर जड़ हो गई है। उनकी बातें सिर्फ उनके प्रचार का साहित्य बन गई हैं। नई बातों के आविष्कार का साहित्य नहीं मिला।

मैंने वहां से कई किताबें खरीदीं। विवेकानंद को पढ़ना मुझे अच्छा लगता है। घर लौटकर पढ़ने लगा तो हर किताब में पिछली किताब का हिस्सा मिलने लगा। शक हुआ कि एक ही किताब तो बार-बार नहीं पढ़ रहा हूं। उनके विचारों को यहां-वहां ठूंसकर अलग-अलग नामों से विवेकानंद साहित्य का भंडार पैदा किया जा रहा है। हिन्दू धर्म, वेदान्त और भारतीय व्याख्यान, बौद्ध धर्म और छात्रों के लिए। इन नामों की कैटेगरी से छपी किताबों में वेदान्त पर उनका चिन्तन कहीं से बीच में आ जाता है।

राजनीति में भी यही देखता हूं। विवेकानंद के नाम पर लोग उनके चिन्तनों से आगे-पीछे की पंक्तियां काटकर उद्धरण बना लेते हैं। विवेकानंद के विचार कम, उनके कोट्स ज्यादा लोकप्रिय हो गए हैं। वह पोस्टरों में कैद कर दिए गए हैं। उन्हें संदर्भों से काटकर कोट्स में बदल दिया गया है। पोस्टरों में ढाल दिया गया है। एक संन्यासी, जो यथास्थिति को झकझोर देना चाहता था, उसे आज की राजनीति ने यथास्थिति में ढाल दिया है। विवेकानंद को फॉर्मूले की तरह पेश किया जा रहा है।

मेरे लिए विवेकानंद का मतलब है, हर उस सवाल को साहस से उठाना, जिसे हम धर्म की सत्ता से डरकर छोड़ देते हैं। मेरे पास विवेकानंद के ऊपर बहुत-सी किताबें हैं। मैं विवेकानंद को लेकर कम्युनिस्टों की तरह दुविधा में नहीं हूं और न ही दक्षिणपंथियों की तरह उनका अंधभक्त, क्योंकि विवेकानंद ने मुझे यह नहीं सिखाया है। वह पुरोहितशाही के विरोधी थे, ब्राह्मणवाद पर खुलकर चोट करते थे, संस्कृत, साहित्य और मंदिरों को दलितों के लिए खोल देना चाहते थे।

उन्होंने हिन्दू धर्म को गौरवान्वित किया तो यह भी कहा कि किसी भी धर्म का एकाधिकार ठीक नहीं है। एकाधिकार चला जाता है। आज राजनीति में खुद को उनका प्रतिनिधि बताने वाले भी ब्राह्मणवाद पर हमला नहीं कर सकते। कइयों को तो 'पीके' फिल्म की मामूली आलोचना तक पसंद नहीं आई। विवेकानंद का मतलब है खुलकर सोचना और साहस से कहना। क्या आज की राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था में यह संभव है। पहला विरोध विवेकानंद का पोस्टर लगाने वाले ही करेंगे।

"सभी सात्विक और आध्यात्मिक कवायदों का संक्षेप में यही सच है कि मैं पवित्र हूं और बाकी सब अपिवत्र... कितना पशुत्वपूर्ण दानवी और नारकीय विचार है यह..." अगर विवेकानंद के अनुयायी इस बात के मर्म को समझे होते तो मंदिर परिसर में प्रसाद लेते वक्त मुझे नहीं झिड़कते। मैं सूखा प्रसाद लेने के लिए लाइन में खड़ा हो गया। मेरी बारी आई तो वामहस्त होने के कारण मैंने बायां हाथ बढ़ा दिया। प्रसाद देने वाले ने विरक्ति भाव से देखा और बिना कहे आंखों को बंद कर बाएं हाथ को हटा लेने का इशारा करने लगा। जैसे बाएं हाथ से प्रसाद लेने पर प्रसाद अपवित्र हो गया हो।

अपने साथ हुए इस बर्ताव से मैं सिहर उठा। विवेकानंद ने तो मनुष्यों के बीच जाति-धर्म की अपवित्रता की धारणा को पाशविक विचार कहा था, लेकिन उनके बनाए परिसर में कैसे इस विचार को जगह मिली हुई है। यही होगा, अगर हम विवेकानंद को फॉर्मूला बनाकर बेचते रहेंगे। अपवित्रता के खिलाफ विवेकानंद की बातों को लेकर आज कितने लोग वर्ण-व्यवस्था, जाति-व्यवस्था पर प्रहार करते हैं। कोई वर्ण-व्यवस्था और जातिवाद के खिलाफ काम नहीं करता। जात के नाम पर उम्मीदवार चुनते हैं और भारत के नाम पर वोट मांगते हैं।

विवेकानंद को पार्टी या किसी धर्म का प्रतीक मत बनाइए। उनकी समालोचना को जगह मिलनी चाहिए और उनके इस्तेमाल पर भी सवाल होने चाहिए। विवेकानंद धार्मिक और आर्थिक शोषण - दोनों के खिलाफ थे। "1928-29 में स्वामी विवेकानंद के अनुज डाक्टर भूपेंद्रनाथ दत्त ने 'विवेकानंद - द सोशलिस्ट' नामक पुस्तिका का प्रकाशन किया था... 1927 में भगतसिंह और उनके साथियों ने नौजवान सभा के एक कार्यक्रम में पश्चिम में क्रांतिकारियों की दशा नामक विषय पर संबोधन के लिए बुलाया था... इस पुस्तर पर रूढ़ हिन्दुओं ने नाक-भौं सिकोड़ी, क्योंकि उनके लिए विवेकानंद रहस्यवादी वेदांती से ज्यादा कुछ नहीं थे..." (विवेकानंद का जनधर्म - कनक तिवारी)

विवेकानंद का हिन्दू धर्म राजनीतिक हिन्दुत्व नहीं था। विवेकानंद ने बार-बार कहा है कि मैं हिन्दू शब्द का प्रयोग नहीं करूंगा। हम वैदिक अथवा वैदान्तिक शब्द का करेंगे, जो उससे भी अच्छा है। 'एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति' - विवेकानंद ने इस सूत्र वाक्य को बार-बार दोहराया है कि सत्य एक है, मगर व्याख्याएं अनंत। क्या विवेकानंद के विचारों की अलग-अलग व्याख्या पेश की जाती है। कहीं हम विवेकानंद के नाम से डरने तो नहीं लगे हैं या कोई डरा तो नहीं रहा है।

"यदि हर-एक मनुष्य का धार्मिक मत एक हो जाए और हर-एक, एक ही मार्ग का अवलम्बन करने लगे तो संसार के लिए वह बड़ा बुरा दिन होगा... तब तो सब धर्मों के सारे विचार नष्ट हो जाएंगे... वैभिन्य ही जीवन का मूलसूत्र है..."

Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com

मैं विवेकानंद की इस बात से अपनी बात समाप्त करना चाहूंगा। हिन्दी के मशहूर कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ने अनुवाद किया है, जिसे नागपुर मठ ने 'स्वामी विवेकानंद – भारतीय व्याख्यान' के नाम से छापा है। यह वाक्य उन लोगों के लिए भी ज़रूरी है, जो समस्त राष्ट्रीय पहचान को एक धार्मिक पहचान देना चाहते हैं। पहचानों को धार्मिक नाम देने का मतलब ही है विविधता को खत्म करना।