भारत जल्दी ही दुनिया की सबसे तेज़ बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था का ख़िताब हासिल कर लेगा और 2016 तक चीन को पीछे कर देगा। सभी अख़बारों ने विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की इस भविष्यवाणी को प्रमुखता से छापा है। इन दोनों संस्थाओं का मानना है कि 2016 में चीन की जीडीपी घटकर 6.3 पर आ जाएगी और भारत की बढ़कर 7.5 हो जाएगी।
एक प्रतिशत के अंतर से भारत और चीन की आर्थिक दुनिया कितनी बदल जाएगी, यह समझना मेरे लिए मुश्किल तो नहीं है, पर मैं ठीक-ठीक नहीं बता सकता कि क्यों यह बड़ी बात नहीं है। वैसे आज के 'टाइम्स ऑफ इंडिया' में ख़बर छपी है कि चीन की अर्थव्यवस्था में 2009 के बाद सबसे तेज़ गिरावट आई है। दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था 2009 से संभल नहीं सकी है।
बुधवार को 'इकोनोमिक टाइम्स' ने लिखा कि चीन से आगे निकलने की ख़बर सरकार को भी पसंद आएगी, क्योंकि हम कभी भी चीन से आगे नहीं जा सके हैं। फिर यह भी दलील दी जाती है कि भारत आगे निकल भी गया, तो भी चीन की अर्थव्यवस्था के आकार के हिसाब से काफी पीछे रहेगा। चीन की अर्थव्यवस्था का आकार दस ट्रिलयन है और भारत का दो ट्रिलियन। आकार में आप छोटे हैं, मगर रफ्तार में आगे। ये तो सौ मीटर के ट्रैक पर होता है, अर्थव्यवस्था की दौड़ में भी होता है क्या। 'इकोनोमिक टाइम्स' ने लिखा है कि भारत उपभोग की जगह निवेश की अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ रहा है, जबकि चीन अब निवेश की जगह उपभोग की अर्थव्यवस्था को अपना रहा है।
बुधवार के ही 'इकोनोमिक्स टाइम्स' में एक और ख़बर थी, लेकिन भीतर के पन्ने पर। भारत निर्यात के मामले में लगातार पिछड़ रहा है। विश्व व्यापार संगठन ने कहा है कि दुनिया भर में निर्यात में गिरावट आ रही है, क्योंकि दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाएं अभी भी नाज़ुक स्थिति में है। 2014 में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार वृद्धि की दर 4.7 प्रतिशत बताई गई थी, लेकिन हुई 2.8 प्रतिशत ही। विश्व व्यापार संगठन और विश्व बैंक अलग-अलग आंकलन क्यों देते हैं, इससे मेरे जैसे कमज़ोर विद्यार्थी को कंफ्यूज़न हो जाता है।
सेवाओं के निर्यात के मामले में जापान और नीदरलैंड तेज़ी से आगे निकल रहे हैं। भारत छठे से आठवें स्थान पर आ गया है। भारत ने पांच साल की एक निर्यात नीति भी बनाई, जिसे लेकर कई आलोचनाएं हो रही हैं। बल्कि मोदी समर्थक उन उद्योगपतियों ने अख़बारों में लेख लिखकर निर्यात नीति पर सवाल उठाए हैं। फिर भी आप सरकार के आत्मविश्वास को देखें तो लगता है कि वो काफी आश्वस्त है कि अर्थव्यवस्था पलट रही है।
आज के 'टाइम्स ऑफ इंडिया' के पहले पन्ने पर एक और ख़बर छपी है। भारतीय बैंकों के ऋण दिये जाने की विकास दर पिछले 18 साल में सबसे निचले स्तर पर है। सामान्य रूप से हम यह तो समझते ही होंगे कि अर्थव्यवस्था में तेज़ी आती है, तो कंपनियां निवेश के लिए बैंकों से ख़ूब कर्ज़ लेती होंगी। पिछले साल की तुलना में 8 लाख करोड़ अधिक कर्ज़ का उठान हुआ है, लेकिन इतनी कम वृद्धि तो आखिरी बार 1996-97 में हुई थी। क्या हम वहां पहुंच गए। सरकार कहती है कि उसने लंबित परियोजनाओं को मंज़ूरी दे दी है। बैंक कहते हैं कि जब सरकार लंबित परियोजनाओं को चालू करेगी, तब शायद कर्ज़ों का उठान होने लगेगा। हम समझते हैं कि अर्थव्यवस्था की कोई एक मुकम्मल तस्वीर नहीं हो सकती है। यहां गिरावट होगी तो वहां तरक्की, लेकिन एक ख़बर पढ़कर न तो उत्साह की आर्थिक समझ मुकम्मल है न निराशा की।
आज 'हिन्दू' अख़बार ने अपने संपादकीय में लिखा है कि 1990 से 2013 के बीच चीन की सालाना विकास दर दस प्रतिशत रही है। भारत अपने बेहतर दिनों में भी 9 प्रतिशत से आगे नहीं जा सका। भारत को अगर एक करोड़ 20 लाख युवाओं को रोज़गार देना है, तो अगले दस साल तक 7 से 8 प्रतिशत की दर से विकास करना होगा। चीन में अर्थव्यवस्था का यह संकट तब है, जब वहां शत-प्रतिशत बिजली है। भारत में एक-चौथाई परिवार बिजली से दूर हैं। चीन की प्रति व्यक्ति आय भारत से तीन गुना ज्यादा है। इस सफ़र में मंज़िल कौन सी है, पता नहीं चलता। जो विकसित है वो भी संकट में है और जो विकासशील होगा उसका जश्न है।
पिछले साल जून में इंडियन एक्सप्रेस में MINXIN PEI ने लिखा था कि साल के आखिर तक चीन दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने जा रहा है। हालांकि इस साल यह हुआ नहीं फिर भी अगर बन जाता, तो 1872 से कोई भी देश पहली बार अमरीका से आगे निकलता। पेई लिखते हैं कि पूरी दुनिया के अख़बारों में यह ख़बर छा गई, लेकिन चीन ने नज़रअंदाज़ कर दिया। सरकारी समाचार पत्रों में इसकी कोई ख़बर तक नहीं छपी। बीजिंग ने नंबर वन का एलान रोकने के लिए विश्व बैंक से लॉबिंग की। इसके अपने कारण भी गिनाये गए हैं कि सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने पर दुनिया भर में आर्थिक मदद भी देनी पड़ेगी। चीन की सरकार पर अनावश्यक दबाव बढ़ जाएगा कि वो अमरीका की तरह सामाजिक सुरक्षा पर 15 प्रतिशत की जगह 37 प्रतिशत खर्च करे। चीन को लगा कि नंबर वन के एलान से कुछ फायदा नहीं है।
भारत में मौसम ने खेती को संकट में डाल दिया है। सरकार ने मुआवज़ा बढ़ाने का एलान तो किया है, मगर कहीं भी तेज़ गति से सर्वे नहीं हो रहे हैं और किसानों के हाथ में सात सौ-आठ सौ रुपये ही पहुंच रहे हैं। किसान कर्ज़ माफी की मांग करने लगे हैं। दूसरी तरफ महाराष्ट्र से ख़बर आ रही है कि वहां 55 साल के इतिहास में गन्ने का सबसे अधिक उत्पादन हो गया है। इतना गन्ना हो गया है कि चीनी के दाम में भारी गिरावट आ गई। चीनी मीलों को सरकारी रेट पर गन्ने का भुगतान करना है, मगर उनकी चीनी का रेट मार्केट में 700 प्रति क्विटंल गिर गया है। इससे सरकार और उपभोक्ता तो खुश होंगे, मगर किसान रो रहा है, क्योंकि चीनी मीलों ने उनका 4500 करोड़ रुपया रोक लिया है। मांग हो रही है कि सरकार चीन खरीद कर स्टॉक करे।
कुल मिलाकर इस तरह की विभिन्न आर्थिक परिस्थितियां हैं। अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी भारत की तारीफ़ कर रही हैं, तो देश में अलग-अलग हालात हैं। अच्छे और बुरे दोनों। विदेश दौरों पर प्रधानमंत्री के उत्साह और आत्मविश्वास को देखकर एक बार यकीन करने का मन करता है कि क्या पता वो उस कुर्सी से देख रहे हों कि सब कुछ ठीक है। देश तरक्की कर रहा है। इसलिए उनके दौरे को एक हर्षोल्लास के इवेंट में बदला जा रहा है। लेकिन जब अख़बारों में अलग-अलग ख़बरें देखता हूं तो ऐसे हालात नज़र नहीं आते कि किसी स्टेडियम में जश्न का आयोजन किया जाए। क्या आपको लगता है कि अर्थव्यस्था बदल रही है? बदलाव ऐसा है कि सबको कुछ न कुछ मिल रहा है? ये आपको लगता है या आप ठीक-ठीक जानते हैं?