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This Article is From May 27, 2015

मनरेगा की सत्यनारायण कथा और किसान चैनल की सत्यकथा

Ravish Kumar
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  • Updated:
    मई 27, 2015 13:01 pm IST
    • Published On मई 27, 2015 12:39 pm IST
    • Last Updated On मई 27, 2015 13:01 pm IST
आज सुबह दस बजे विविध भारती के एफएम चैनल 100.10 पर अचानक मनरेगा का गाना बजने लगा। ग्रामीण विकास मंत्रालय ने इस कार्यक्रम को प्रायोजित किया है, जिसमें दो सूत्रधार हैं। विकास और भारती। विकास के पास सारे दुखों का जवाब है और भारती अपने भाई की नौकरी जाने से दुखी है। विकास समझाता है कि मिल जाएगी, लेकिन सोचो, गांवों में लाखों लोगों को काम नहीं मिलता है, इसलिए सरकार ने 2005 के एक कानून से मनरेगा बनाया है। मनरेगा कार्यक्रम नहीं, एक कानून है। इस कानून के तहत कोई भी अपने सरपंच से काम मांग सकता है और 15 दिन में काम नहीं मिला तो उसे बेरोज़गारी भत्ता भी मिलेगा। विकास के जरिये यह कार्यक्रम मनरेगा के मकसद को बताने लगता है।

भारती विकास की इन बातों से हैरान होती है कि मनरेगा में काम तभी मिलेगा, जब कोई काम मांगेगा। नसीब के भरोसे काम नहीं मिलता है। इसके बाद विकास भारती को सुमेर और सुमति की कथा सुनाता है। सत्यनारायण पूजा की तर्ज पर कथा शुरू होती है कि काम न मिलने के कारण सुमेर और सुमति परेशान थे। उन्हें लगता है कि मनरेगा में सरंपच के लोगों को ही काम मिलता है, इसलिए सरपंच के पास जाने के बजाए सुमेर शहर जाकर काम करेगा। उन दोनों को बाहर जाते सरपंच साहब देख लेते हैं और कहते हैं कि जब तुम काम मांग सकते हो तो बाहर क्यों जा रहे हो। ग्राम सभा में आकर एक फॉर्म भर जाओ, तुम्हें कोई न कोई काम तो मिलेगा ही, लेकिन काम तभी मिलेगा जब मांगोगे।

दिल्ली की सड़क पर कार चलाते-चलाते मनरेगा का यह कार्यक्रम थोड़ी देर के लिए इससे जुड़े राजनीतिक विवादों में भी ले गया। घर आकर मैं गूगल करने लगा। जिस मनरेगा को प्रधानमंत्री ने गड्ढे खुदवाने का कार्यक्रम कहकर मज़ाक उड़ाया था, उन्हीं की सरकार के इस कार्यक्रम में मनरेगा को लेकर गाना है कि अब चला विकास गांव की राह। विकास भारती को कहता है कि अगर इंदिरा आवास योजना के तहत किसी का घर बन रहा हो तो उसमें भी मनरेगा के चलते मज़दूरी मिल सकती है। राजनीति जो भी हो, मनरेगा का बचा रहना ज़्यादा ज़रूरी है।

मुझे तो यह कार्यक्रम अच्छा लगा। बस, इसके जरिये यह भी बताया जाता कि कितनी मज़दूरी मिलेगी, बेरोज़गारी भत्ता कहां से मिलेगा, कितने दिन में मिलेगा, मज़दूरों के अधिकार क्या हैं। ख़बरें आती रहती हैं कि मनरेगा की पूरी मज़दूरी भी नहीं मिलती है। कॉपीराइटर ने मनरेगा की मज़दूरी को ऐसे पेश किया है, जैसे यह न्यूनतम मज़दूरी न होकर किसी सीईओ की तनख्वाह हो। मनरेगा की मज़दूरी को बेहतर ज़िंदगी से ऐसे जोड़ा जा रहा है, जैसे सुमेर और सुमति नोएडा एक्सटेंशन में फ्लैट बुक करा लेंगे। कॉपीराइटरों को समझना चाहिए कि मनरेगा सिर्फ बुनियादी ज़रूरत का कार्यक्रम है। साल में सौ दिन के रोज़गार से किसी की ज़िन्दगी बेहतर नहीं होती, उसका काम ज़रूर चल जाता है। सरकार को बताना चाहिए कि मनरेगा की पूरी मज़दूरी न मिलने पर मज़दूर क्या कर सकता है।

मोदी सरकार ने मनरेगा में पिछले वित्त वर्ष की तुलना में 12 प्रतिशत ज़्यादा पैसा दिया है - 34,669 करोड़। गूगल किया तो एक और ख़बर निकल आई। 7 मई को लोकसभा में 15 विपक्षी सांसदों ने सरकार से कहा कि मनरेगा का पैसा राज्यों को जल्दी भेजा जाए। ग्रामीण विकास मंत्री वीरेंद्र सिंह ने जवाब दिया कि 12,000 करोड़ रुपये भेजे जा चुके हैं, लेकिन काम न मिलने पर बेरोज़गारी भत्ता देने की बात है, वह राज्य सरकार की ज़िम्मेदारी है। लोकसभा में कांग्रेस के मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि राजस्थान और मध्य प्रदेश ने भी शिकायत की है कि केंद्र से पैसा नहीं मिल रहा है। हमें नहीं पता चल रहा है कि सच कौन बोल रहा है। इसी साल 23 अप्रैल की एजेंसी की ख़बर है कि मनरेगा के तहत 2014-15 में कार्यदिवस पिछले साल की तुलना में 46 से कम होकर 40 हो गए हैं, जबकि होने चाहिए 100 दिन। केंद्रीय ग्रामीण विकास राज्यमंत्री ने लोकसभा में कहा कि ऐसा इसलिए हुआ है कि मनरेगा मांग पर आधारित कार्यक्रम है। कई कारणों से मांग में कमी आई है।

यह सब इसलिए बताया कि मनरेगा को लेकर अति आशावाद से बचना चाहिए। सरकारी कार्यक्रमों को भी व्यावहारिक धरातल पर बनाया जाना चाहिए। आलोचक इस बात से खुश हो सकते हैं कि सरकार मनरेगा को अपनाने लगी है। अब वह मनरेगा को यूपीए से जोड़कर नहीं देखती है, इसलिए विविध भारती के प्रायोजित कार्यक्रम में पहले ही कहा जाता है कि यह वर्ष 2005 का कानून है। इतनी ईमानदारी भी कम नहीं होती।

प्रधानमंत्री ने देश के किसानों के लिए किसान टीवी लॉन्च किया है। यह एक अच्छा कदम है, मेरी दुआ है कि यह चैनल सफल हो। मैंने प्रसार भारती के चेयरमैन ए सूर्यप्रकाश से बात भी की। उन्होंने बताया कि किसान चैनल पर देश के एक हज़ार मंडियों के भाव बिजनेस चैनल की तर्ज पर नीचे की पट्टियों पर चला करेंगे। देश के किसानों को एक साथ और एक ही समय में पता चल जाएगा। इसके अलावा मौसम विभाग के सहयोग से मौसम की जानकारी दी जाएगी। मौसम पर रोज़ आधे घंटे का कार्यक्रम भी होगा। किसान को यहां तक बताया जाएगा कि बुलंदशहर या पानीपत में मौसम ठीक है और वे अगले हफ्ते से बुवाई कर सकते हैं। मौसम विभाग के पास देश के हर ज़िले के पांच दिनों का अनुमान होता है। सूर्यप्रकाश ने कहा कि हमने इसके लिए नई टीम बनाई है और पूरा फोकस इस बात पर होगा कि किसान के चश्मे से खेती को देखा जाए।

इस चैनल की कामयाबी बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगी कि सरकार इसके जरिये किसानों को वैकल्पिक खेती के लिए कैसे प्रोत्साहित करती है। मोदी सरकार का आर्गेनिक खेती का वादा भी है, जिसकी चर्चा भी सुनाई नहीं देती है। एक ही आशंका है कि कहीं यह चैनल बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बीज और तकनीक के हथकंडे का शिकार न हो जाए, क्योंकि यह देश का पहला चैनल है, जो सीधे किसानों से बात करेगा। इस गंभीर आशंका से अलावा किसान चैनल से उम्मीद ही ज़्यादा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस पर कृषि नीतियों पर खुलकर बहस होगी।

इससे पहले भी कई लोगों ने खेती से जुड़ा अख़बार निकालने का प्रयास किया है। महाराष्ट्र में 'सकाल ग्रुप' का एक कृषि अख़बार है 'एग्रो वन', जिसे किसान सहेजकर रखते हैं। इसमें काम करने वाले कई संवाददाता कृषि-स्नातक होते हैं। इसी तरह अकोला से 'कृषकोन्नति' नाम से एक अखबार निकल रहा है। गीतकार नीलेश मिसरा भी 'गांव कनेक्शन' (डिस्क्लेमर - इसमें मेरा भी कॉलम आता है) के नाम से अख़बार निकालते हैं। खेती, किसानी और गांव पर ज़ोर देने की ज़रूरत है।



मैं रंग में भंग नहीं डालना चाहता, लेकिन प्रधानमंत्री के हाथ में हल की तस्वीर देखकर लगा कि यह वही हल तो नहीं, जो रामलीला मैदान में राहुल गांधी को दिया गया था। राजनीतिक मंचों पर हल की मौजूदगी की निरंतरता का ज़िक्र इतना बताने के लिए किया कि हल अब किसान की पहचान नहीं है। कई गांवों में तो हल दिखेगा भी नहीं। चंद्रभान प्रसाद अपने शोध से दिखा चुके हैं कि उत्तर प्रदेश के पूर्वी इलाके में हल समाप्त हो चुका है। इसका एक महत्व है। राजनीतिक और आर्थिक दोनों। हल के साथ-साथ हरवाही भी मिट गई है। हम हल के नाम पर कितना ही किसान-किसान कर लें, लेकिन सच्चाई यह है कि हल उठाने वाले किसान दलित होते थे और उनके साथ बराबरी का व्यवहार नहीं होता था।

इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी दोनों अगली बार जब खेती का कोई कार्यक्रम करें तो हल न थामें। हल अब समाधान नहीं है। 'उपकार' फिल्म में मनोज कुमार ने हल उठाकर इसे राष्ट्रवादी प्रतीक में बदल तो दिया और लाल बहादुर शास्त्री के 'जय जवान जय किसान' के नारे के दौर में हल कुछ पार्टियों का सिंबल भी बन गया, मगर हल और हल-छाप वाली पार्टियां दोनों मिट चुके हैं। हल और हरवाही हमारे समाज के शोषण की तस्वीर है, न कि महानता की।

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