हम लोगों ने दुनिया को उलझा लिया है, इसे सुलझाने के लिए हमें फिर से एलियन बनकर ही धरती को देखना होगा। जैसे देखने के लिए 'पीके' किसी अनजान ग्रह से धरती पर आता है। वह धरती को गोला कहता है। अंतरिक्ष में तैरते अनगिनत गोलों में से एक छोटा-सा गोला। एक छोटा-सा गोला, ताकि मज़हब और मुल्क की सीमाओं के बीच घिरे हम और आप अपने नज़रिये का विस्तार कर सकें। हम एक बार बाहर से धरती को देख सकें कि हमने इसके बाशिंदों को किस कदर बांट दिया है। विधु विनोद चोपड़ा और राजकुमार हिरानी की फिल्म 'पीके' अपने रिलीज़ होने के समय के संदर्भ के कारण भी एक रोचक और साहसिक फिल्म बन जाती है।
यह फिल्म बताती है कि कई बार कही जा चुकी और जानी-पहचानी कहानियों के सहारे ही ज़िंदगी में लौटना पड़ता है। हर बार किसी आसमानी कहानी की तलाश में हम कहानी का सारा तारतम्य बिगाड़ देते हैं। आमिर खान अपने स्टारडम को दांव पर लगाकर एक ऐसे समय में उन विषयों पर बात करने का रास्ता दिखा देते हैं, जिनके बारे में इन दिनों बात करते हुए कई लोग कहते हैं कि अब ऐसी बातों को सुनने वाले लोग ही नहीं रहे। आमिर सबसे पहले दर्शकों को उस ज़मीन पर ले जाते हैं, जहां हम सब नंगे खड़े हैं। रेगिस्तान के निर्जन मैदान, जिनमें दूर-दूर तक एक पेड़ भी नज़र नहीं आता। नज़र आती है एक रेलगाड़ी, जो हमें जहां हैं से निकालकर कहीं और ले जाना चाहती है। जहां हम सबको एक बार फिर से नंगा होकर ही सोचना होगा। नंगा होने का मतलब उस अर्थ में नहीं, जैसा कि फिल्म के पोस्टर को देखकर कई लोग सोचने लगे थे। नंगा होने का मतलब उन बेकार की दलीलों के आवरण को उतार फेंकना और अपनी मनुष्यता को पहचानना है।
इस फिल्म की सार्थकता उस संयोग के कारण भी बड़ी हो जाती है, जब आज ही दिल्ली के अखबारों के पहले पन्ने पर हरियाणा में सिरसा के विवादित तथाकथित संत राम रहीम की फिल्म का फुल पेज विज्ञापन छपा हुआ था। जिसमें राम रहीम ने दावा किया है कि वह भगवान का मैसेंजर है, संदेशवाहक है। यह फिल्म राम रहीम ने ही बनाई है। फिल्म के पोस्टर पर आप पहली बार किसी संत को नायक की तरह बाइक पर सवार देखेंगे। कुछ ही दिन पहले हरियाणा में रामपाल का गढ़ हम सबने ढहते देखा है। ऐसे संत खुद को अदालत और नागरिकता से ऊपर समझने का मुगालता पाल लेते हैं। अवतार घोषित कर खुद अदालत बन जाते हैं। हम सब ऐसी धार्मिकताओं से घिरे हुए हैं और इन्हीं सब को असली आध्यात्म मानने लगे हैं।
ऐसे वक्त में मुंबइया फिल्म का इतना बड़ा स्टार अपनी टोपी उस रिंग में उछाल देता है, जहां आस्था के नाम पर कहने की हिम्मत कमज़ोर पड़ चुकी है। जहां धर्म के नाम पर ताकत बटोरने वाले ही विजयी हो रहे हैं। उस न्यूज़ एंकर के पीछे त्रिशूल घोंप देते हैं, जिसके दर्द को ढोते हुए वह धार्मिक अंधविश्वास से पंगा लेने से हाथ खड़े कर देता है। आमिर सिर्फ फिल्म के भीतर पंगा नहीं लेते, बल्कि फिल्म के बाहर मौजूद समाज से भी पंगा लेते हैं। इसमें न्यूज़ चैनल भी शामिल हैं, जो निर्मल बाबा के चमत्कारी उपायों का प्रसारण करते हैं और दुख निवारण यंत्र बेच रहे हैं। इतना ही नहीं, ऐसे संतों की राजनीतिक सत्ता और बाज़ारी दुकानदारी से भी आमिर ने इस फिल्म में लोहा लिया है।
यह फिल्म हम सबको अच्छा बनाती है, हमारी धुलाई करती है। बता रही है कि हमने अपने ऊपर इतने कपड़े डाल लिए हैं कि खुद को देखना तक बंद कर दिया है। एक कौवे को दिखाकर आमिर कहते हैं कि देखो, वह नंगा है क्या। दरअसल नंगापन कपड़े के होने या न होने से नहीं होता। नंगापन होता है हमारे ढकोसलेपन में। धार्मिक अंधविश्वास और नफरत से लड़ने का साहस आमिर ने किया है। पहले भी ऐसी फिल्में बनी हैं, लेकिन जैसा कि मैंने कहा कि संदर्भ से फिल्म बड़ी होती है।
आज चारों तरफ धर्मांतरण, धार्मिक संकीर्णता, कट्टरता के बयान सुनाई दे रहे हैं। राजनीतिक सत्ता के दम पर धार्मिक संगठन गैर-संवैधानिक बातें बोल रहे हैं। उनकी बातों में इंसानियत के तत्व नहीं हैं। जो सही सोच के लोग हैं, वे भी कहते हैं कि सेकुलर शब्द का नाम लेने वाला कोई नहीं रहा। हमारा मतदाता भी संकीर्णता की तरफ चला गया है। ठीक ऐसे वक्त में आमिर लोगों में भरोसा खोज लेते हैं कि ये वही लोग हैं, जिनसे इन सब सवालों पर बात की जा सकती है और वह कर लेते हैं।
आमिर यह भी कहने की हिम्मत कर जाते हैं कि अगर हमने इस पर सवाल नहीं किया तो एक दिन इस गोले पर सिर्फ जूता बचेगा। उनके हाथ में उस दोस्त का जूता है, जो कुछ देर पहले रेलवे स्टेशन पर हुए बम धमाके में मारा जाता है। वह इस फिल्म में लगातार विश्वास के धागे को खोज रहे हैं। तर्क के लिए जगह बना रहे हैं। उनकी बातों पर विश्वास करने के लिए इसी खराब मीडिया से एक पत्रकार निकल आती है। जग्गू बनी अनुष्का और उसे एक संपादक का साथ मिलता है बाजवा बने बोमन ईरानी का। विधु विनोद चोपड़ा और राजकुमार हिरानी को बधाई देनी चाहिए कि वे ऐसी फिल्म बनाने की हिम्मत कर पाए। फिल्म पूरी तरह पारिवारिक है और कम से कम बच्चों को तो दिखानी ही चाहिए, ताकि वे अपने आस-पास जड़ हो चुकी तस्वीरों को नए सिरे से देख सकें।
फिल्म समीक्षक इसे एक तारा या ढाई तारा देते रहेंगे, लेकिन एक दर्शक की निगाह से फिल्म देखते हुए महसूस किया कि सिनेमाहॉल में मौजूद सारे लोग इस कदर खामोश हो गए, जैसे किसी ने उनकी नब्ज़ पकड़ ली हो। जब दर्शक सहमत हो जाएं और वे थोड़ी देर के लिए सही, अच्छे के लिए बदल जाएं, तभी कोई फिल्म बड़ी होती है। हमेशा अपने क्राफ्ट या शैली के कारण ही कोई फिल्म बड़ी नहीं होती, इसलिए धरती पर सिर्फ जूता ही न बचा रह जाए, इस फिल्म को देखिए और न भी देखें तो इन सवालों पर तमाम कपड़ों के आवरण उतारकर सोचिए। ऐसा करके भी आप 'पीके' देख लेंगे। 'पीके' देखने के लिए 'पीके' देखना ज़रूरी नहीं है। अब क्या करें। फर्स्ड डे, फर्स्ट शो फिल्म देखने की पुरानी आदत जो है।
This Article is From Dec 19, 2014
रवीश कुमार की कलम से : शुक्रिया आमिर... ताकि सिर्फ जूता न रह जाए...
Ravish Kumar, Vivek Rastogi
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Updated:दिसंबर 19, 2014 16:10 pm IST
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Published On दिसंबर 19, 2014 16:07 pm IST
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Last Updated On दिसंबर 19, 2014 16:10 pm IST
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