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This Article is From Jul 16, 2020

मैं जागा क्यों रह गया?

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 16, 2020 10:25 am IST
    • Published On जुलाई 16, 2020 10:25 am IST
    • Last Updated On जुलाई 16, 2020 10:25 am IST

रात तीन बजे दिलबाग चायवाले की याद आ गई. नींद टूट गई थी. नींद टूटती है तो बहुत सी बातें याद आने लगती है. ऐसा लगता है कि रात पीछे रह गई है. आप आगे निकल गए हैं. तभी दिलबाग चायवाला की याद आ गई. नाम से कुछ भी याद नहीं आया. एक बड़ी सी केतली याद आ रही थी. तांबे की केतली. हरमंदिर साहिब के बगल के बाज़ार की गली याद आने लगी. बहुत सारी तांबे की केतलियां थीं. साल भी याद नहीं आया. यही बात घूमती रही कि वो चायवाला भी तो कभी अपनी गली से नहीं निकला था. उसी गली में अपने छोटे से खोमचे में बरसों बैठने का अनुभव था. क्या वो कभी बोर नहीं हुआ होगा?

पूछने पर कहा था कि सिर्फ एक बार अमृतसर से बाहर गया है. जालंधर, वैष्णो देवी और चंडीगढ़. तीस साल से उसकी दुनिया इसी गली और इसी केतली के साथ गुज़रती है. शहर को लेकर कोई उत्साह नहीं था. वो शहर को छोड़ कर आगे बढ़ गया था. या ठहर गया था और शहर को जहां जाना हो, जाने का रास्ता दे दिया था.

कोई 12 साल पहले पहाड़गंज में चाकू की धार तेज़ करने वाले ने भी ऐसा ही कुछ कहा था. वो साइकिल पर ही बैठा रहता है. साइकिल को दीवार से सटा देता है ताकि अतिक्रमण न लगे और चाकू तेज़ करता है. उसने कहा था कि कभी एम्स नहीं देखा है. कनाट प्लेस किस तरह से बदला है वो नहीं देखा है. हर सवाल के जवाब में कहता है कि नहीं देखा. दिल्ली में होकर भी वो दिल्ली में नहीं है. वो अपने काम को जानता है. दिल्ली को नहीं जानता है. 
पटना के हज़ारीसाहू याद आते हैं. जब भी उन्हें देखा उसी काउंटर पर देखा. मैं जब छोटा था तब वे बड़े थे. मैं जब बड़ा हुआ तो वे बूढ़े थे.उनकी दुकान से सटा एक रास्ता था. दिन भर अर्थियां जाती रहती थीं. उसी रास्ते से बहुत से लोग सब्ज़ी लेने जाते थे. दुकान में ख़ूब भीड़ होती थी. हर उधार सामान का सही हिसाब लिख लेते थे. हज़ारीसाहू एक ही जगह बैठे रहते थे. एक दिन वो काउंटर ख़ाली हो गया. हज़ारीसाहू उसी रास्ते से चले गए जिस रास्ते से बाकी लोग जाया करते थे. वे कभी दुकान से बाहर नहीं देखते थे. सब बाहर से देखते थे कि वे अपनी दुकान में हैं या नहीं. साहू जी अपनी दुकान के भीतर आए ग्राहकों और दुकान के सामानों को देखते थे. उन्होंने भी शहर को जाने का रास्ता दे दिया था.

चार महीने से जैसे हूं वैसे ही हूं. कई बार लगता है कि बोर हो गया हूं. कई बार लगता है कि बोरियत मुझसे बोर हो गई है. वो चाहती है कि मैं बोर हो जाऊं लेकिन मैं बोर नहीं हो रहा हूं. यह पूरी तरह सही नहीं है. बोर होता हूं. बोर नहीं होता हूं. तो फिर मैं हज़ारी साहू, दिलबाग और चाकू की धार तेज़ करने वालों को क्यों याद करता रहा? यही जानने के लिए न कि वे बोर होते हैं या नहीं. क्या मैं अपनी बोरियत को समझने के लिए उन्हें याद कर रहा था या इसलिए कि उन लोगों ने एक पूरा जीवन तालाबंदी का बिताया है. हम चार महीने में बेचैन हैं. पर वो रोज़गार करते हुए नज़रबंद थे. हम नज़रबंद होकर रोज़गार कर रहे हैं. 

राणा प्रताप बहल. हमारे टीचर थे. यारबाज़. मस्त. एक दिन कह दिया कि अबे रिक्शा वाले से पूछो. क्या वो कभी बोर होता है. तुम लोग पढ़ने से बोर हो जाते हो. बोर होना लग्ज़री है. सारे लोग बोर नहीं होते हैं. बहुत सारे लोग हैं जो बिना बोर हुए जीते हैं. 

मैं राणा प्रताप बहल को क्यों याद करने लगा? मास्टर से बोरियत को ऐतिहासिक संदर्भ में समझने के लिए? 

मैं जागा क्यों रह गया?

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