देह पर लाठी, घर पर बुलडोज़र

क्रूरता के इस दौर में हास्य भी क्रूर हो गया है. पुलिस से मार खाने वाले लोग उसी ज़िले में मिल जाते हैं, जिनके बारे में पुलिस कहती है कि यह वीडियो उनकी जानकारी में नहीं है जिसमें कुछ नौजवान लाठियों से मार खा रहे हैं. अच्छी बात यह हुई है कि वीडियो भले कहीं और का है, मार खाने वाले उसी ज़िले में मिल गए हैं, जिसका नाम ज़िला सहारनपुर है.

देह पर लाठी, घर पर बुलडोज़र

वातावरण में तनाव बढ़ गया है, तापमान तो बढ़ ही गया है, कब किसके घर के सामने बुलडोज़र आ जाए, इसका चांस भी बढ़ गया है. पहाड़ों, नदियां और मैदानों से पूछिए, इन्हीं बुलडोज़रों ने कितने पत्थर काट डाले, रेतों का ढेर निकाल लिया और मैदानों से मिट्टियां ग़ायब कर दीं. यह बुलडोज़र विकास का कनगोजर है, उसके कान में घुस जाता है तो धरती से लेकर पहाड़ तक को फाड़ देता है. वैध से ज़्यादा अवैध धंधे में लगे बुलडोज़रों को इन दिनों नायक बनाया जा रहा है. न्यायपालिका बनाया जा रहा है.

अपनी लल्ली और लल्ला को बड्डे गिफ्ट में बुलडोज़र ही दीजिए, कारें, तलवारें और बोर्ड गेम से बच्चे बोर हो चुके हैं. लल्ली और लल्ला में शक्ति का संचार होगा. ग़लती से ठेकेदार बन गए तो शक्ति का अवैध विस्तार होगा, ग़लती से सरकार बन गए तो अवैध का वैध में विस्तार हो जाएगा. आप लोग भी स्मार्ट हैं. समय रहते, हो गए बुलडोज़र के साथ हैं. बुलडोज़र से खेलते-खेलते लल्ली और लल्ला ख़ुद को समझेंगे मोदी और योगी, आप बड़े-बूढ़े रोगी से हो जाएंगे निरोगी. किसी के घर गिराने पर आप रो नहीं सके,एक चांस अब भी बचा है, सोचा आपको हंसा दूं,किसी के घर गिरने पर.इंसान के भीतर जानवर होने ही चाहिए वर्ना जंगलों के नाश हो जाने के बाद जानवर कहां रहेंगे. उसी तरह हर बच्चे के हाथ में एक बुलडोज़र होना चाहिए और  इस कविता का जाप घर-घर होना चाहिए. 

क्रूरता के इस दौर में हास्य भी क्रूर हो गया है. पुलिस से मार खाने वाले लोग उसी ज़िले में मिल जाते हैं, जिनके बारे में पुलिस कहती है कि यह वीडियो उनकी जानकारी में नहीं है जिसमें कुछ नौजवान लाठियों से मार खा रहे हैं. अच्छी बात यह हुई है कि वीडियो भले कहीं और का है, मार खाने वाले उसी ज़िले में मिल गए हैं, जिसका नाम ज़िला सहारनपुर है.

जो लोग अमीर होते ही भारत छोड़ गए, उन्हें ही इस बात से तकलीफ हो सकती थी कि थाने में पुलिस ऐसे मारती है, इस देश में अपने बच्चों को नहीं रखना है, मगर जब वो चले ही गए तो इस बात को लेकर नाराज़ नहीं हूं कि यहां रहने वालों में इस बात से किसी को तकलीफ नहीं है. कोई पहली बार तो पुलिस थाने में नहीं पीट रही, यही तो खूबी है, जो कांग्रेस के राज में हुआ वो अब भी होगा.लेकिन मुझे शक है, पिछले आठ साल में जिन 35000 अमीर भारतीयों ने भारत ही छोड़ दिया,उनके फैसले में ऐसे वीडियो का हाथ ज़रूर रहा होगा, आज तो एक और नई रिपोर्ट आई है कि इस साल आठ हज़ार अमीर भारतीय मेरे प्यारे भारत को छोड़ देंगे और अमरीका से लेकर लंदन तक को अपना प्यारा वतन बना लेंगे.लाइव टीवी में मेरी बात समझ नहीं आएगी, कई बार ध्यान से ससर जाती है इसलिए यू ट्यूब में दोबारा देखिएगा.अब ख़तरा इस बात का भी हो सकता है कि ऐसी पिटाई का वीडियो ही न बनें, तब उससे भी बड़ा ख़तरा इस बात को लेकर हो सकता है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के पूर्व में मीडिया सलाहकार रहे और मौजूदा समय में बीजेपी के विधायक शलभ मणि त्रिपाठी फिर इस तरह के वीडियो कैसे ट्विट करेंगे? शलभ भाई के इस दुर्लभ वीडियो से पुलिस का इक़बाल बुलंद हुआ है, जो भी इस वक्त प्राइम टाइम देख रहा है, मेरे साथ सौ बार दोहराएं वर्ना जो नहीं दोहराएगा, उसके घरबुलडोज़र आ जाएगा. यही नहीं सौ पोस्टकार्ड पर प्राइम टाइम का लिंक लिख कर ट्रेन की हर सीट पर अवश्य छोड़ दें. जो भी इसे पढ़ेगा, फिर से सौ पोस्टकार्ड छपवा कर हर सीट पर छोड़ देगा. ईश्वर बुलडोज़र से रक्षा करेंगे साथ में फूल प्रूफ पुण्य भी मिलेगा. माता रानी कृपा करेंगी.   

भारतेंदु हरिश्चंद्र होते तो कहते कि रोवहुं सब मिलीं, आवहु भारत भाई, हा हा, भारत दुर्दशा देखी न जाई. पूरी गारंटी के साथ कह सकता हूं कि अगर होते तो इस रचना के बाद उनके घर एक बुलडोज़र पहुंच जाता और तब भारतेंदु जी अपनी पंक्ति बदल देते और गोदी मीडिया के ऐंकर से कहते, हां हां भारत दुर्दशा देखी जाई, कौन कहत है कि देखी नहीं जाई, बिल्कुले देखी जाई. अबहू ना देखब,त जियब कैसे भाई. बुलडोज़रवा लउकता, उहे में सुदशा लउकता. के कहता कि दुर्दशा लउकता. 

भारतेंदु जी, यह अमेरिका का वीडियो है, इसे देखने में कोई दुर्दशा नहीं होगी, पिछले साल एक जून को अमेरिका की पुलिस घुटनों पर बैठ गई. ब्लैक जार्ज फ्लायड की पुलिस ने हत्या कर दी थी, अमरीका में प्रचंड आंदोलन छिड़ गया. ब्लैक लाइव्स मैटर्स का बैनर लिए हज़ारों लोग पुलिस के खिलाफ नारे लगाने लगे तब वहां की पुलिस आंदोलन की भावनाओं के समर्थन में घुटनों पर झुक गई. कुछ लोगों ने कहा कि पुलिस ने अपनी छवि सुधारने का नाटक किया है लेकिन ऐसे भी देखिए कि उस समाज में पुलिस को छवि सुधारने के लिए घुटनों पर बैठने का नाटक करना पड़ता है.(वीडियो फिर से) हमारा समाज का स्टैंडर्ड उससे बढ़िया है, यहां पुलिस लोगों के घुटने तोड़ने लगती है तो पुलिस की छवि पुलिस की बन जाती है. व्हाट्स एप ग्रुप के रिटायर्ड अंकिलों का पुरुषार्थ राष्ट्र राष्ट्र करने लगता है. दयालु दिल के लोग पुलिस के पक्ष में खड़े हो जाते हैं. 

हिरासत में टार्चर की ख़बर इस देश में कहीं से भी आ सकती है. चेन्नई में थाने में एक व्यक्ति की कथित रूप से इतनी पिटाई की गई वह मरा गया. दो महीने के भीतर तमिलनाडू में ऐसी दूसरी घटना है.हैदराबाद में तो आपने देखा ही कि किस तरह से वहां की पुलिस ने बलात्कार के कथित आरोपियों का एनकाउंटर कर दिया और लोगों ने पुलिस के इस काम पर फूल बरसाए. सुप्रीम कोर्ट ने बताया है कि एनकाउंटर फर्ज़ी था. रिपोर्ट में जिन युवाओं के घुटने पर पुलिस ने प्रहार किए हैं, वो ग़रीब हैं. इतने पैसे नहीं हैं कि अपने इंसाफ़ के लिए कपिल सिब्बल को वकील रख लें या हरीश साल्वे इनके लिए लंदन से आ जाएं. एक रुपया में केस लड़ने. 

जिस पुलिस वाले ने इनके घुटनों पर मारा है, यहां-वहां मारा है, रोने पर और ज़ोर से मारा है. मैं उस पुलिस वाले के बारे में सोच रहा हूं. इन्हें इस तरह कूटने के बाद क्या उसे वैसी तृप्ति आई होगी, जैसी गर्मी में ठंडा रसगुल्ला खाने के बाद आती है, पुलिस वाला कितनी देर में इनकी चीखों को भूल गया होगा या बच्चों के साथ उस रात खेल नहीं पाया होगा, दरअसल मैं इस कहानी पर एक फिल्म बनाना चाहता हूं उसमें अक्षय कुमार को पुलिस का लीड रोल देना चाहता हूं, ताकि वह फिल्म बने और पिट जाए. आप हंसे तो नहीं न,इन लोगों की जिस तरह से पिटाई हुई है, उसका यही इंसाफ होगा कि इन्हें पीटने वाले अफसर पर फिल्म बनाई जाए और वह फिल्म पिट जाए.

बेहतर है इस दौर में सब कुछ कहानियों की तरह दर्ज किया जाए, जो हो रहा है उसे साहित्य घोषित कर दें ताकि सब कुछ वास्तविक होते हुए भी काल्पनिक हो जाए. दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस ए पी शाह, मद्रास हाई कोर्ट के पूर्व जस्टिस के चंद्रू और कर्नाटक हाईकोर्ट के जस्टिस मोहम्मद अनवर, पूर्व कानून मंत्री शांति भूषण, वकील प्रशांत भूषण, चंद्र उदय सिंह, आनंद ग्रोवर, इंदिरा जयसिंह और श्रीराम पंचू ने एक बयान पर दस्तख़्त किया है. 

बुलडोज़र की यह दहाड़ क्या सुप्रीम कोर्ट तक नहीं पहुंची होगी? पहुंचती तो सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के छह पूर्व जजों और दर्जनों वकीलों को बयान जारी नहीं करना पड़ता कि यह समय न्यायपालिका के इम्तहान का है. उसे लोगों के अधिकारों के लिए आगे आना चाहिए जैसे न्यायपालिका ने प्रथम तालाबंदी के समय पलायन कर रहे मज़दूरों और पेगासस मामले में खुद से संज्ञान लिया था. बयान में लिखा गया है कि बिना किसी नोटिस और कारण के मुस्लिम नागरिकों के घर गिराए जा रहे हैं, प्रदर्शन में शामिल होने की इतनी बड़ी सज़ा दी जा रही है.जो काम न्यायालय का है, वो काम पुलिस और विकास प्राधिकरण कर रहे हैं.  ऐसा कर यूपी प्रशासन संविधान का माखौल उड़ा रहा है.घरों का इस तरह से ढहा देना कानून का उल्लंघन है. इसे स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए. अदालत से गुज़ारिश की गई है कि इस मामले को संज्ञान में ले.  सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस बी सुदर्शन रेड्डी, जस्टिस वी गोपाल गौडा और जस्टिस ए के गांगुली ने भी इस बयान पर दस्तखत किए हैं. इस पत्र में इस वीडिया का भी जिक्र है, कि पुलिस की हिरासत में लाठी से युवाओं को मारा गया है. जमीयत उलेमा ए हिन्द ने भी सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है कि बुलडोज़र को लेकर एक निर्देश जारी करें, इसे रोकें. 

लोकतंत्र की यही ख़ूबी है. अदालत की कार्यवाहियों में देरी से निराशा होती है तो उम्मीद का आखिरी दरवाज़ा भी अदालत ही है. हर तरफ से जब निगाहें थक जाती हैं तब अदालत की तरफ ही उठती हैं. अदालत आत्मा है. आत्मा की अंतरात्मा है. अंतरात्मा में परमात्मा हैं और परमात्मा में सांत्वना की अभी हम हैं. केवल एक इमारत और उसमें आते-जाते लोगों से अदालत की कल्पना करने वाले भी नहीं जानते कि अदालत किन चीज़ों से बनती है.

बुलडोज़र ने जिस घर को तोड़ा है, उस घर से निकले एक-एक सामान से कोई चाहे तो अदालत की इमारत बना सकता है. इसके मलबे में हर वो चीज़ है, जिससे एक अदालत की इमारत बन सकती है. आइये मिलकर गिनते हैं कि अदालत की इमारत के लिए किन किन चीज़ों की ज़रूरत होती है. ईंटे, सीमेंट,छड़,रेत,रंग,कीलें,लोहे, दरवाज़ों के लिए जंगल काट कर लाई गई लकड़ियां, बहुत सारी कुर्सियां, कुर्सियों पर रखे जाने वाले गद्दे, तौलियां, मेज़, मेज़ पर बिछने वाली चमड़े की चादर,कलमदानी,पंखे,बल्ब,ट्यूबलाइट,स्विच बोर्ड,एयरकंडिशन,पीने का ग्लास, ग्लास शीशे का, ग्लास के नीचे का कोस्टर, ग्लास को ऊपर से ढंकने का कोस्टर, पानी रखने का जग, पानी का बोतल, ठंडे पानी और चाय के दूध के लिए फ्रिज, फ्रिज में कुछ पेस्ट्री, खाना गरम करने के लिए माइक्रोवेव, चाय बनाने की मशीन, टी-बैग, ज़रूरी कागज़ात के लिए बहुत सी आलमारियां, टाइपराइटर, कंप्यूटर, लैपटाप, फाइलों के कवर, कवर में लगने वाली रस्सियां, पन्ने और पन्नों को दबाने के लिए पेपरवेट,अदालत में टंगने वाली घड़ी, दीवार पर टंगने के लिए एक कैलेंडर, अदालत के बाहर लगने वाला नोटिस बोर्ड, नोटिस बोर्ड पर लगने वाली जालियां, वकीलों के आने जाने के लिए चौड़े-चौड़े कॉरिडोर,कॉरिडोर में बिछा गलीचा, खिड़कियों पर टंगे पर्दे और ऊपर ले एक्साज्ट फैन,शोचालय, शौचालय में कमोड. बेसिन और बेसिन के ऊपर डिटॉल साबुन.नाम वाम लिखने के लिए कांसे और पीतल के नेम प्लेट और दरवाज़ें के बार कॉल-बेल. दरवाज़े के नीचे डोर-मेट. ठहरिए, एक चीज़ रह गई है. वो हथौड़ा जिसके ठोंकने से आवाज़ आती है आर्डर-आर्डर.एक कठघरा भी तो चाहिए जिसमें हम सब खड़े हैं. हमारा समय खड़ा है. कुछ चीज़ें छूट गई हों तो हर वो चीज़ इस मलबे से निकल सकती है जिससे जोड़ कर एक अदालत बनाई जा सकती है. संसद की एक इमारत बनाई जा सकती है, न्यूज़ चैनल का हेडक्वार्टर बनाया ा सकता है.अगर हताशा में भी कोई कहता है कि चुप्पी से लगता है कि अदालत नहीं है तो वह गलत है. अदालत है. अगर अन्याय है तो अदालत भी है. जब तक मलबे से ये सारे सामान निकलते रहेंगे, अदालत होने की कल्पना बाकी रहेगी. क्या मैंने कुछ ग़लत कहा…आप योर ऑनर से ही पूछ लें,उनका भी जवाब मिलेगा कि अदालत है. 

तभी तो यह सवाल है कि जब अदालत है तो उसकी प्रक्रिया और संवेदना का इंतज़ार क्यों नहीं है, क्यों उससे पहले किसी का घर इस तरह से ढहा दिया जाता है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मामले में सरकारों के फेल करने का रिकार्ड भी पुलिस की यातना के क्रूर किस्सों की तरह सार्वभौमिक है. शरद पवार के खिलाफ़ टिप्पणी कर देने वालों को क्या जेल में डाला जाएगा? फिर शरद पवार इस बात की आलोचना कैसे करेंगे कि प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ लिखने पर कई लोगों को जेल में डाल दिया जाता है. महाराष्ट्र के निखिल भामरे और अभिनेत्री केतकी चितले ने अगर लिख ही दिया तो क्या हो गया. बुरा लिखा तो उसे बुरा बोल कर नज़रअंदाज़ कर देना चाहिए था. 

कोर्ट ने सरकार से सवाल करते हुए ये भी पूछा है किअगर आप ऐसे ही करवाई करते रहे तो आप उस जैसी शख्सियत को नुकसान पहुंचाते है, जिसके खिलाफ टिप्पणी की गई हैं. हर दिन सैकड़ों, हजारों लोग ऐसी टिप्पणी करते है, क्या आप सब के खिलाफ ऐसा ही करेंगे ?जो धाराएं निखिल के खिलाफ लगाई गई हैं उनमें शरद पवार के खिलाफ आपराधिक धमकी और अशांति फैलाने जैसे आरोप भी हैं.निखिल ने शरद पवार का नाम लिए बगैर ट्वीट किया था

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एक महीने से ज़्यादा जेल में मराठी कलाकार केक्ति चितले भी हैं. इत्‍तेफाकन केक्ति और निखिल, दोनों एक ही दिन गिरफ्तार किए गए थे. केतकी चितले के खिलाफ राज्य में 14 से भी ज़्यादा एफआईआर हैं. जिनमें कुछ संगीन मसले भी हैं. जैसे कि अनुसूचित जाति के खिलाफ अपमानजनक बाते लिखना. लेकिन केतकी का हाल निखिल से भी बुरा है क्योंकि उनके खिलाफ मामले अधिक हैं. केतकी पर स्‍याही भी फेंकी गई और मोर्चे निकाल कर बुरा-भला भी कहा गया. महाराष्ट्र में पुलिसिया करवाई बीजेपी समर्थकों पर भी इसी तरह की गई हैं.
 
बोलने की सीमाएं होनी चाहिए, भद्दी और अपमानजनक बातों से किसी के चाहने वालों को बुरा लग सकता है. लेकिन किसी का बोलना राज्य के लिए इतना बड़ा सवाल नही हो सकता की जेल में किसी को १ महीने रखा जाए. जो लोग बोलने की आजादी चाहते हैं उन्हें अपनी विचारधारा के चस्मे से बाहर निकल कर ये लड़ाई लड़नी पड़ेगी.