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This Article is From Aug 01, 2016

सेमिनार, सेल्फी और बाउंसर अब मुझे जानलेवा लगते हैं

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 01, 2016 00:56 am IST
    • Published On अगस्त 01, 2016 00:26 am IST
    • Last Updated On अगस्त 01, 2016 00:56 am IST
लोगों की आदतों में कुछ बुनियादी बदलाव आ गए हैं. इसका नमूना देखना हो तो आप किसी सभा-सम्मेलन और सेमिनार में जाइये. सेल्फी लेने वाले हमलावर प्रशंसकों की भीड़ सभा सम्मेलनों की संभावनाओं को सीमित कर रही है. हमें सोचना होगा कि हम किसी सेमिनार में क्यों गए हैं? सेल्फी के लिए या सुनने के लिए? मैं समझ सकता हूं कि आप जिसे पसंद करते हैं उसे जताना भी चाहते हैं, लेकिन जब सेल्फी का रोग नहीं था, तब भी तो लोग किसी को पसंद करते होंगे.

जयपुर 'टॉक जर्नलिज़्म' में बोलने गया था. इन दिनों लोग पत्रकारिता को लेकर तरह-तरह की बातें कर रहे हैं तो पत्रकारिता पर बात करने का प्लान बना होगा. अच्छा लगा कि कुछ छात्र और शिक्षक सेल्फी के लिए क़रीब नहीं आए. उन्होंने बात की और मैंने भी उनसे बात की. वक्त मिला तो सेल्फी भी ले ली, मगर बहुतों ने बुरा हाल कर दिया. मैं इस डर से कमरे में बंद रह गया कि बाहर निकला तो सेल्फी हमलावर प्राण ले लेंगे. यह स्थिति भयावह है. वक़्ता के लिए भी और उन श्रोताओं के लिए जो सिर्फ सुनने आते हैं. इतने अच्छे-अच्छे विषय और वक्ता थे, मैं वहां होकर भी उनसे वंचित रह गया.

इसलिए जो युवा दोस्त ऐसे सम्मेलनों में जाते हैं, उनसे कुछ कहना चाहता हूं. आप मेरे लिए प्यारे हैं और मैं भी आपके लिए प्यारा हूं, मगर यह बात अब नहीं कही गई तो यह प्यार दोनों के लिए जंजाल में बदल जाएगा. मुझे उम्मीद है कि आप सिर्फ नाम देखकर सुनने नहीं जाते होंगे. अलग-अलग विषयों में भी रुचि रखते ही होंगे. स्वाभाविक है कि कुछ के प्रति ज़्यादा लगाव होता होगा. मैं आपकी इस श्रद्धा का क़र्ज़दार हूं, लेकिन एक सीमा से उस लगाव का प्रदर्शन किसी पत्रकार को ख़त्म भी कर सकता है.

मैं जयपुर में बोल रहा था कि क्यों किसी को रवीश कुमार नहीं बनना चाहिए. इसके ख़तरों पर अपने ब्लॉग कस्बा में लिखा था. उसी संदर्भ में कह रहा था कि हम पत्रकार हैं. सब्ज़ी और अंडा भी लाना पड़ता है और घर वालों को स्टेशन से लाना ले जाना पड़ता है. हम उद्योगपति नहीं है कि हमारे काम कोई और कर रहा है. एक बार रिक्शे से आटा लेकर आ रहा था. स्कूटर पर सवार दो लोगों ने जान ले ली कि आप आटा ख़ुद से लाते हैं। आप यहीं रहते हैं, इस तरह से 'यहीं' पर ज़ोर देते हैं जैसे आप भी इसी फटीचर इलाके में रहते हैं. हम तो आपको टीवी पर देखकर कुछ और सोचते हैं. एक रिश्तेदार घर आकर सामान से लेकर दीवार तक चेक करने लगे कि केवल टीवी पर चेहरा ही चमकता है या घर में भी कुछ है. जब बहुत प्रभावित नहीं हुए तो ताना टाइप बोल कर चले गए. दिल्ली में किसी को बता देता हूं कि मैं ग़ाज़ियाबाद में रहता हूं, तो वो ऐसे नाक भौं सिकोड़ता है, जैसे अभी कहने वाला हो कि उठो मेरे सोफ़े से और बाहर निकलो, जबकि बुलाने के लिए वही मरे जा रहे थे.

इसीलिए जयपुर में अपने होने के ख़िलाफ़ बोला. मुझे इस 'रवीश कुमार' से घबराहट होने लगी है. मुझसे मेरा अकेलापन जा रहा है. ख़ुद को बचाने के लिए ज़रूरी है कि मैं रवीश कुमार न रहूं. मैं हर वक्त किसी भीड़ से घिरा नहीं रहना चाहता बल्कि किसी भीड़ में खो जाना चाहता हूं, ताकि आपके सामने नई-नई बातों को ला सकूं. आपके बीच का ही कोई एक बनकर लिखना बोलना चाहता हूं. कुछ लोगों के घेर लिये जाने से मेरा अकेलापन, फक्कड़पन जाने लगा है. कहीं खड़ा होकर कोई चीज़ देख रहा होता हूं, कोई न कोई रुक जाता है. किसी का इंटरव्यू कर रहा होता हूं, बगल में खड़ा कोई सेल्फी ले रहा होता है. आप जिसे पसंद करते हैं, उसके बारे में इतना तो ख़्याल रखना चाहिए कि आपकी पसंद के इज़हार के कारण वो कहीं इश्तहार बनकर न रह जाए.

मुझे यह सुनकर डर लग जाता है कि कोई मुझे सुनने के लिए दरभंगा से जयपुर आ गया था. कुछ युवाओं ने जब बताया कि हम दो सौ किमी दूर टोंक ज़िले से बस से चलकर आपको सुनने आए हैं. इस प्यार का कर्ज़ चुका तो नहीं सकूंगा, लेकिन इसके बोझ बन जाने से डरता हूं. फिर भी आपसे मिल कर आपके बारे में जानना चाहूंगा कि आप कौन हैं? क्यों एक पत्रकार के काम में आपकी दिलचस्पी है? मगर इससे पहले कि आप तक पहुंचता हूं या तो सेल्फी वाले प्रेमी घेर लेते हैं या उनसे बचाने के लिए बाउंसर किनारे लगा देते हैं. मुझे बहुत लज्जा आई कि एक पत्रकार को कमरे से मंच तक बाउंसरों का दल घेर कर ले जाए और वापस बाउंसर कमरे तक पहुंचा दे. इससे होगा यह कि हम स्टार तो रह जाएंगे, मगर पत्रकार नहीं रह पाएंगे.

सबसे ज़्यादा चुभती है वो निगाहें जो आपको पहले से देखती आ रही हैं. जो तौल रही होती हैं कि क्या इसे अब यह सब अच्छा लग रहा है? क्या इसका दिमाग़ ख़राब हो रहा है? उन्हें मेरे लिए अच्छा भी लग रहा होता है पर मैं कैसे कहूं कि नहीं मैं अब भी वही हूं. जब तक उन निगाहों से टकरा कर कुछ कहने की कोशिश करता हूं, बाउंसर ठेल कर कहीं और पहुंचा देते हैं. मेरे ही दोस्त किनारे खड़े अजनबी से लगने लगते हैं. मैं जिनके साथ आया हूं, उन्हीं से दूर हो जाता हूं. उस वक्त मुझे बहुत डर लगता है.

इसलिए मेरी तरफ लपकिये मत, मैं ख़ुद आपके पास आना चाहता हूं. आपसे ज़्यादा मैं बात करने के लिए बेक़रार रहता हूं, मगर इस कमबख़्त सेल्फी ने मज़ा किरकिरा कर दिया है. किसी और को सुनने पहुंचा नहीं कि दस सेल्फी हमलावर आ जाते हैं. उन्हें मेरा नहीं तो कम से कम उनके बारे में तो सोचना चाहिए जो उस सभागार में किसी और को सुनने बैठे हैं.

सेल्फी एक राष्ट्रीय रोग है. यूं ही नहीं कहा था. सेल्फी चेहरे का जुगराफ़िया भी बिगाड़ देता है. कोई कंधे पर झुक कर तो कोई कंधे से लटक कर सेल्फी लेने लगता है. कोई घुटनों पर बैठकर सेल्फी लेने लगता है. चेहरे से ज़्यादा तोंद आ जाती है. कोई मेरी लंबाई का काट निकालने के लिए आगे जाकर सेल्फी लेने लगती है. फोटो देखकर ऐसा लगता है कि मैं उसका पीछा कर रहा हूं और वो भागी जा रही है. तभी कोई हाथ क्रेन की तरह ऊपर से आता है और फ्रेम सेट करने लगता है. नतीजा आंख की जगह मोटी नाक आ जाती है. अलग-अलग फ्रेम में अपने चेहरे की हालत ऐसी हो जाती है, जैसे किसी अवैध ज़मीन पर बिल्डर प्लॉट काट गया हो. 

संभव हो सके तो इसे चेक कीजिये. जिस दिन आप मुझसे बोर हो जाएंगे, उस दिन मेरे यार दोस्त यह पूछ-पूछ कर जान मार देंगे कि तुमको पहचाना लेकिन सेल्फी लेने नहीं आया या कोई सिर्फ मिल कर चला जाएगा तो बोलेंगे कि सेल्फी नहीं लिया जी. बल्कि ऐसा होता है, जब कभी कहीं लोग नहीं पहचानते हैं तो साथ वाला याद दिला देता है कि यहां कोई नहीं पहचाना. क्या मेरे होने का पैमाना या मतलब अब से यही है. ऐसा करके आप एक पत्रकार के भीतर की नई संभावनाओं को मार देंगे.

इस एक हफ्ते में हल्द्वानी, लखनऊ, दिल्ली और जयपुर... हल्द्वानी में बोल रहा था तो खटका कि जयपुर वाला तो नहीं बोल दिया. जयपुर में बोलते वक्त लगा कि कहीं लखनऊ में तो नहीं बोल आया हूं. जब ज़्यादा बोलेंगे तो आपके भीतर वही बात बार-बार गूंजेंगी. दो तीन वर्षों से अपने ब्लॉग कस्बा पर लिख रहा हूँ कि मुझे कहीं न बुलाया जाए. इतना न्यौता आता है कि अब फोन उठाना बंद कर दिया हूं. बुलाने से पहले यह तो सोचना चाहिए कि क्यों बुला रहे हैं? क्या मैं इतनी जगहों पर जा सकता हूं? शायद नहीं. मना-मना करते करते मन उदास हो जाता है. लोग मेरे ऊपर भावनात्मक दबावों का पहाड़ रख देते हैं.

मेरे पास काम का ही इतना दबाव होता है कि अलग से सोचने का वक्त ही नहीं मिल पाता. हर दिन अपनी छुट्टी बचाने के संघर्ष में चला जाता है कि किसी तरह शनिवार-रविवार घर में रहें. आप ही सोचिये कि हम कौन से तुर्रम ख़ां हैं, जो हर विषय पर रोज़-रोज़ बोल सकते हैं. क्या हर बात पर मेरा बोलना और लिखना ज़रूरी है? क्या मेरी प्रतिबद्धता तभी साबित होगी जब हर घटना पर स्टैंड क्लियर करूं और पटना-पाटन घूमता रहूं. तब तो मर जाने पर भी लोग बोलेंगे कि तुम इस पर बोलकर साबित नहीं कर सके. हद है. आजकल सो कर उठता नहीं हूं कि मैसेज आ जाता है कि तुम्हें उस पर बोलना चाहिए था, इस पर बोलना चाहिए था.

प्रशंसकों के साथ साथ आयोजकों से एक गुज़ारिश हैं. वे यह सोचे कि क्यों किसी को बुला रहे हैं? कहीं आप मुझे या किसी और को तथाकथित स्टार वैल्यू के लिए बुला रहे हैं? मेरे लिए इसका कोई मोल नहीं है. मैं खिलाड़ी या कलाकार नहीं हूं कि इसके बदले में प्रेशर कुकर या दंतमंजन, साफ़ी, इसबगोल का विज्ञापन मिलेगा. सेविंग क्रीम का विज्ञापन तो छोड़ ही दीजिये. यह लेख ख़त्म ही कर रहा था कि एक एसएमएस आ गया. क्या आप 4 अगस्त को मुंबई आ सकते हैं?

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