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This Article is From Apr 25, 2015

रवीश कुमार : ज़िंदगी और मौत के बीच के चंद पलों में ले गया था भूकंप

Ravish Kumar
  • Blogs,
  • Updated:
    अप्रैल 30, 2015 11:50 am IST
    • Published On अप्रैल 25, 2015 13:52 pm IST
    • Last Updated On अप्रैल 30, 2015 11:50 am IST

नई दिल्ली : विल्फ्रेड ओवन की प्रथम विश्व युद्ध पर लिखी कविता पढ़ रहा था। कविता कितनी समझ आ रही थी यह अलग बात है मगर इस किताब के ज़रिये उस वक्त मैं 1914 के साल में ही था, जब बिस्तर कांपने लगा। एक झटके में मैं सौ साल का सफ़र तय करते हुए 2015 के इस क्षण में आ गया। दसवीं मंज़िल पर बिस्तर ऐसे कांपा जैसे किसी ने जबड़े से जकड़ लिया हो। मेरे साथ बिजली की गति के साथ मेरे घर के सारे लोग बरामदे में आ गए।

चारों तरफ से भय और जिज्ञासा का कालोहल कानों तक पहुंचने लगा। बरामदा तेज़ी से हिल रहा था और हम उन कुछ सेकेंड के दौरान फैसला करने में लगे रहे कि लिफ्ट से उतरें या सीढ़ियों से। भूकंप के वक्त बताए गए एहतियातों में ये दोनों मना हैं। फिर एक आवाज़ आई कि टेबल के नीचे सब बैठते हैं लेकिन जब टेबल को देखा तो यकीन हो गया कि यह टेबल एहतियात की किताबों वाला टेबल नहीं है। इसके नीचे हम बिल्कुल महफूज़ नहीं हैं।

हम अब सीढ़ियों से उतरने लगे थे। इमारत कांप रही थी, हम सब हांफ रहे थे। कोई आगे हो जा रहा था तो कोई आगे जाकर फिर से पीछे आ रहा था। बुजुर्ग लोग धीरे-धीरे सीढ़ियों को नापते उतर रहे थे। काफी वक्त लग गया दसवीं मंज़िल से नीचे आने पर। तब तक धरती ने हिलना बंद कर दिया था, लेकिन नीचे आने वाले अभी तक भीतर तक हिल रहे थे। बाहर आकर सबने एक दूसरे को इस तरह से देखा कि जैसे पहली बार किसी को ज़िंदा पहचान रहे हों। बिल्कुल नई ज़िंदगी सा अहसास, बचकर निकल आने के बाद सा।

ये वो पल था, जिसके दायरे में न तो ज़िंदगी थी और न मौत। आज था न कल। आप होते हुए भी आप नहीं थे। इन पलों के दौरान धरती ने हमें अतीत वर्तमान और भविष्य के दायरे से काट दिया था। जब तक धरती हिलती रही हम सब एक शून्य में तैरने लगे। इस समय का किसी घड़ी में कोई हिसाब नहीं होता है। एक किस्म का अतिरिक्त समय पैदा हो गया। कांपना बंद हुआ, लेकिन हांफना जारी रहा। शरीर और धरती के थम जाने के बाद भी दिमाग़ के भीतर हलचल होती रही। हाउसिंग सोसायटी के लोग एक दूसरे को हैरत से देख रहे थे। अजीब-अजीब कपड़ों में एक दूसरे को देखना बता रहा था कि हम बिना दीवार के भी समाज में सामान्य रूप से रह सकते हैं। कुछ लोग तैयार होते-होते नीचे आए और कुछ नीचे आने के बाद भी कपड़ों को संभालते रहे।

डर लगा? शायद नहीं। बाद में पता चला कि डर था। उस वक्त तो आप शून्य के भंवर में थे। जहां डर या मज़बूती सा कोई अहसास ही नहीं था। कोई दोस्त नहीं कोई दुश्मन नहीं। कोई बैंक बैलेंस नहीं कोई राष्ट्रवाद नहीं। कोई कविता नहीं कोई यथार्थ नहीं। ये वो क्षण था, जिसमें आप सिर्फ आप थे। जो आपके साथ था उसके साथ भी आप नहीं थे। बहुत से लोग सीढ़ियों से उतरते वक्त अपने आप में अकेले उतर रहे थे। सबकी यात्रा अकेले की हो गई थी। अंतिम यात्रा के पहले का सफ़र शायद ऐसा ही होता होगा। कुछ याद नहीं आया कि पीछे कौन रह गया है। कुछ याद नहीं आया कि साथ कौन चल रहा है। सब तेज़ी से उतर रहे थे। एक बार और बच जाने के लिए।

भूकंप सिर्फ धरती के नीचे नहीं आता है, धरती के ऊपर वालों के भीतर भी आता है। उसके लौट जाने के बहुत बात तक हम हिलते रहते हैं। दसवीं मंज़िल का मकान आसमान से भले बातें करता होगा लेकिन आज लगा कि ऊंची इमारतें ज़मीन की मेहरबानी से आसमान से बातें करती हैं। तूफ़ान में कोई पेड़ भीतर तक कितना कांपता होगा, अपना घर कांपा है तो ऐसे ख़्यालों का वबंडर उठ रहा है।

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