फिर से दूरगामी परिणामों का बात हुई है. इस बार दूरगामी परिणाम अगले तीस चालीस साल में दिखने का एलान हुआ है. नीति आयोग के सी ई ओ अमिताभ कांत ने कहा है कि पिछले कुछ सालों में भारत में जो सुधार किए गए हैं उनकी बुनियाद पर भारत की कहानी अब शुरू होती है. जो अगले तीस चालीस सालों में दिखेगी. कितने आराम से अमिताभ कांत ने अगले तीस चालीस साल की भविष्यवाणी कर रहे हैं. प्रोपेगैंडा और पैंतरेबाज़ी की भी हद होती है. जब नोटबंदी आई तो कहा गया कि दूरगामी परिणाम अच्छे हुए. चार साल बाद जब उसी दूरगामी परिणाम को खोजा जा रहा है तो कहीं अता पता नहीं.
आप जानते हैं कि अर्थव्यवस्थाओं की ज़रूरत हर दिन बदल रही है. आज किया गया सुधार कल पुराना पड़ जाता है. दुनिया में कब कौन सा देश कैसी नीति लेकर आ जाए और प्रतिस्पर्धा की शर्तें बदल दे पता नहीं मगर अमिताभ कांत को सब पता है. उन्हें यह पता है कि जनता को क्या मालूम. इसलिए अभी संकट है तो तीस चालीस साल बाद का सपना दिखा दो.
कुछ महीने पहले तक इसी भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार थे अरविंद सुब्रमण्यन. अर्थव्यवस्था की थोड़ी बहुत पढ़ाई तो उन्होंने भी की होगी. वर्ना मोदी जी तो उन्हें सलाहकार बनाते नहीं. उन्होंने कहा कि भारत की अर्थव्यवस्था आई सी यू में है. सुब्रमण्यन और फेलमन ने एक पेपर लिखा है. दोनों हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं. अरविंद ने मौजूदा आर्थिक हालात को महासुस्ती (Great Slowdown) कहा है. उनका कहना है कि यह कोई सामान्य मंदी नहीं है. इसे समझाने के लिए उन्होंने बताया है कि किस तरह से भारत पर पहले से बैंकों के लोन का संकट बढ़ रहा था लेकिन नोटबंदी के बाद एक और संकट पैदा होता है जो उसे नीचे की ओर धकेल चुका है.
2004 से 2011 के दौरान स्टील सेक्टर, पावर सेक्टर और इंफ्रा सेक्टर को बहुत सारे लोन दिए गए जो बाद में नॉन परफार्मिंग एसेट बन गए. जिन्हें बैड लोन कहा जाता है. नोटबंदी के बाद प्राइवेट सेक्टर का लोन बढ़ता ही जा रहा है. जिसके कारण बैंकों पर दोहरा बोझ पड़ गया है. नोटबंदी के बाद नॉन बैकिंग फाइनेंस कंपनियां NBFC जैसे IL&FS बर्बाद हो गईं. नोटबंदी के बाद बहुत सारा कैश बैंकों में पहुंचा. बैंकों ने IL&FS को लोन देना शुरू कर दिया. IL&FS जैसी कंपनियों ने रीयल स्टेट को लोन देना शुरू कर दिया. और रीयल इस्टेट में क्या हुआ? क्योंकि लोगों के पास फ्लैट ख़रीदने के पैसे नहीं थे तो फ्लैट बिके ही नहीं. जून 2019 तक 8 शहरों में दस लाख फ्लैट बिना बिके हुए हैं. इनकी कीमत 8 लाख करोड़ बताई जाती है. चार साल में इतने फ्लैट बिकते हैं. लेकिन कोई बिका नहीं है. लिहाज़ा रीयल स्टेट को दिया हुआ लोन डूबने लगा. NBFC ने रीयल स्टेट को 5 लाख करोड़ के लोन दिए हैं. आधा पैसा बैड लोन हो चुका है. यानि डूब गया है. ज़ाहिर है इसका भार बैंकों पर पड़ेगा. जो बैंक उबरने जा रहे थे वे अब और डूबने लगे हैं. तो उन्होंने NBFC को लोन देना बंद कर दिया. जिनसे छोटे व मझोले उद्योग लोन लेते थे. उन्हें पैसा मिलना बंद हो गया. इस साल के पहले छह महीने में बैंकों ने करीब करीब न के बराबर लोन दिया. लिहाज़ा अर्थव्यवस्था की गाड़ी रूक गई.
अरविंद और फेलमन का कहना है कि भारत में 1991 में भयंकर संकट आया था. सरकार के पास पैसे नहीं थे. इस बार का संकट उससे भी गहरा है. अर्थव्यवस्था आई सी यू में पहुंच गई है. इसी संकट की एक सज़ा पंजाब महाराष्ट्र कारपोरेशन बैंक के खाताधारक भुगत रहे हैं. वे अभी भी सड़कों पर हैं लेकिन अब सब भूल चुके हैं. उनका पैसा डूब गया है. जब आपका भी डूबेगा तो ऐसे ही लोग चुप रहेंगे जैसे आज आप चुप हैं.
अगस्त से लेकर नवंबर तक भारत का निर्यात गिरा है. चमड़ा, जवाहरात, रेडीमेड गारमेंट. सबका निर्यात निगेटिव में है. ज़ाहिर है इसका असर कम कमाई वाले कर्मचारियों पर पड़ा होगा. उनकी नौकरियां जा रही होंगी. इसी तबको को उलझाए रखने के लिए हिन्दू मुस्लिम का एजेंडा ठेला जा रहा है. क्योंकि यह टापिक वाकई लोगों को उलझाता है. लोग घंटों बहस करते हैं. पूरा दिन निकल जाता है. यही नहीं आयात भी घटने लगा है. इस तरह पतन का एक चक्र बन गया है. इसका परिणाम जीएसटी संग्रह पर पड़ा है. केंद्र सरकार राज्यों को बकाया राशि नहीं दे पा रही है. कानून है कि अगर राज्यों का कर संग्रह 14 प्रतिशत की दर से नहीं बढ़ेगा तो जितना नहीं बढ़ेगा उतने का भुगतान केंद्र सरकार करेगी. इस तरह राज्यों का केंद्र सरकार पर 50,000 करोड़ का बकाया हो गया है. यह पैसा राज्यों में नहीं पहुंचेगा तो उनकी गाड़ी की रफ्तार धीमी होगी.
राज्य अपना हिस्सा मांग रहे हैं. कह रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट जाएंगे. या जी एस टी काउंसिल की बैठक में जाकर बाहर निकल आएंगे. सरकार दूसरी तरफ जीएसटी बढ़ाने के लिए देख रही है कि वह किन चीज़ों की जीएसटी दरें बढ़ा सकती है. जीसटी दरों के स्लैब में क्या क्या बदलाव हो सकते हैं. इसी बीच सरकार ने हल्के से 21 दवाओं के दाम 50 प्रतिशत तक बढ़ा दिए हैं. आफ जानते हैं कि भारत की शहरी और ग्रामीण आबादी का 15 प्रतिशत हिस्सा भी स्वास्थ्य बीमा के दायरे में नहीं आता है. आगे बताने की ज़रूरत नहीं कि हर परिवार अपनी कमाई का 10 से 25 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च कर रहा है. जिसके कारण वह गरीब है तो गरीबी रेखा से नीचे चला जाता है और मध्यम वर्ग का है तो ग़रीबी रेखा पर आ जाता है.
सरकार के पास पैसे नहीं है. ज़ाहिर है सरकार अपना संसाधन बेचेगी. पावर सेक्टर में भी यही हो रहा है. पेट्रोलियम सेक्टर में भी यही हो रहा है. पावर सेक्टर के 15 लाख कर्मचारी अब जागे हैं. अभी तक वे टीवी के फैलाए एजेंडा में मस्त थे. आज भी ज्यादातर हिन्दू मुस्लिम डिबेट में जितना हिस्सा लेते होंगे उसका आधा भी आर्थिक नीतियों पर नहीं खपाते होंगे. खैर अब जब ये 8 जनवरी को हड़ताल करेंगे तो देख लेंगे कि 15 लाख होकर भी इनकी कीमत शून्य हो गई है. मैं कई बार कह चुका हूं. भारत का लोकतंत्र बदल गया है. यह अब संख्या का कोई महत्व नहीं रहा. हर संख्या दूसरे बड़े समूह से खारिज हो जाती है.
देश के प्रधानमंत्री प्रदर्शनकारियों के कपड़े की तरफ इशार करते हैं. ज़ाहिर है उनका इरादा यही है. आफको ग़लत भी नहीं लगेगा क्योंकि प्रधानमंत्री का तो विकल्प नहीं है. मगर अंतरात्मा बची होती तो झारखंड चुनाव में दिए गए उनके बयान का मतलब आसानी से समझ लेते. सीधे नाम न लो मगर इशारे इशारे में लोगों के उस ख्याल को बड़ा करो जो उन्हें हिन्दू मुस्लिम डिबेट का दर्शक बनाती है. उपभोक्ता बनाती है. समर्थक बनाती है. नागरिक को मुर्गा बनाती है. नागरिक खत्म हो जाता है. नेता मुर्गा फ्राई कर खा जाता है. आप मुर्गा बन चुके हैं.
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