रवीश कुमार : 'जय श्री राम' से जीतन राम तक बीजेपी

नई दिल्ली : 19 फरवरी की शाम छह बजे के आसपास बिहार बीजेपी के सबसे बड़े नेता सुशील मोदी के सरकारी आवास 1, पोलो रोड पर एक हलचल होती है। सुशील कुमार के घर में एक प्रेस रूम बना हुआ है, जिसकी दीवार पर पिछले दो महीने से एक होर्डिंग टंगा था, जिस पर लगी तस्वीर में तीन लोग हैं। नीतीश लालू यादव के चरणों में गिरे हैं। मांझी कुर्सी पर बैठे मुस्कुरा रहे हैं। टाइटल है 'जंगल राज - पार्ट 2'... इस होर्डिंग को ठीक उस प्रेस कॉन्फ्रेंस से पहले हटाया जाता है, जिसमें आकर सुशील कुमार मोदी ऐलान करते हैं कि बीजेपी मांझी का समर्थन करेगी। इस नज़ारे को वहां मौजूद चंद विधायकों और समय से पहले पहुंचे कुछ पत्रकारों ने ही देखा था।

15 नवंबर, 2014 को बीजेपी ने एक पुस्तिका भी छापी थी, जिस पर 'जंगल राज 2' लिखा था। उस पुस्तिका पर भी वही तस्वीर थी, जो सुशील कुमार मोदी के घर पर टंगे होर्डिंग पर बनी थी। इस पुस्तिका में मांझी सरकार के कार्यकाल पर भी आठ पन्ने खर्च हुए हैं, जिसमें थानों की बिक्री, अफसरों की नीलामी, अपराध वगैरह के बढ़ने के आरोप लगाए गए हैं। मांझी के परिवारवाद और गया में उनके बेटे के किसी महिला के साथ पकड़े जाने की ख़बर का भी ज़िक्र है। बीजेपी ने चुपके से जिस होर्डिंग को हटा दिया और जिस पुस्तिका को भूल गई, आज सुबह अपने हाथों में लिए हमारे सहयोगी मनीष कुमार टीवी के सामने खड़े थे।

तब बीजेपी को मांझी के कामकाज में सामाजिक न्याय क्यों नज़र नहीं आया और अब जब सामाजिक न्याय नज़र आ रहा है तो मांझी की भ्रष्ट छवि पर बीजेपी चुप क्यों हो गई। प्राइम टाइम में बिहार के प्रभारी भूपिंदर यादव जी से पूछता रहा कि क्या वह मानते हैं कि मांझी विकास पुरुष हैं। अच्छा काम कर रहे हैं तो इस सवाल का जवाब नहीं दे पाए। कहते रहे कि हां या ना में सारे सवालों के जवाब नहीं दिए जा सकते। भूपिंदर यादव का यह बयान ठीक भी है। इससे बेहतर जवाब की उम्मीद भी नहीं थी। बस बीजेपी को अब बताना होगा कि अगर वह प्रशासनिक क्षमता और भ्रष्टाचार की छवि को दरकिनार कर मांझी में सामाजिक न्याय ही देखेगी तो नीतीश कुमार भी यादव की भ्रष्ट छवि को दरकिनार कर उनमें सामाजिक न्याय का चेहरा देखते हैं तो इसमें बीजेपी के अनुसार गलत क्या है।

जात-पात की राजनीति के खिलाफ बीजेपी ने जिस तरह लोकसभा चुनावों के दौरान लाइन ली है, वह लाइन बिहार में जाकर पिटती नज़र आ रही है। बीजेपी के नेता और समर्थक बता रहे हैं कि महादलित नीतीश से नाराज़ है। बीजेपी मांझी का साथ देकर महादलित को अपने पाले में ला सकती है, पर नौ महीने पहले बिहार में जब लोकसभा चुनाव हुए, तब भी इस महादलित को नीतीश का जेबी वोट बैंक बताया गया था। इसके बावजूद नरेंद्र मोदी ने सबको चारों खाने चित्त कर दिया था। मोदी को बिहार में हर तबके का वोट मिला था। यह वही वोटबैंक था, जो 10 साल से नीतीश कुमार को जात-पात से ऊपर उठकर वोट कर रहा था।

ठीक है कि लोकसभा में नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव अलग-अलग लड़ रहे थे और अब साथ-साथ हैं। इसके बाद भी बीजेपी को क्यों लगा कि लालू-नीतीश का जो फॉर्मूला पिट गया है, उनके लिए हिट हो सकता है। बीजेपी ने यह भी नहीं देखा कि मांझी के साथ कौन लोग खड़े हैं। पप्पू यादव और साधु यादव की संगत में मांझी क्या सिर्फ महादलित के अपमान का प्रतीक हैं, जिसकी लड़ाई अकेले बीजेपी लड़ने निकली हैं। जीतन राम मांझी ने एक इंजीनियरिंग कालेज का नाम बदलकर जगन्नाथ मिश्र इंजीनियरिंग कालेज कर दिया। जगन्नाथ मिश्र भी चारा घोटाले के आरोपी हैं और कुछ मामलों में लालू यादव की तरह दोषी भी पाए गए हैं। क्या सामाजिक न्याय के नाम पर यह सब भी बर्दाश्त किया जाएगा।

बिहार में बीजेपी जातिगत समीकरण की तलाश में है। उसकी यह तलाश रामविलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा को साथ लेकर और उन्हें मंत्रीपद देकर भी पूरी नहीं हुई है। बताया जा रहा है कि महादलितों में फूट पड़ेगी तो बहुत कुछ छिटकर बीजपी के पाले में आएगा। क्या बीजेपी यह बता रही है कि उसके पास सिर्फ सवर्ण ही हैं। सारे पिछड़े बोरिया-बिस्तर बांधकर नीतीश-लालू के पास चले गए हैं और अब महादलित को लाए बिना वह नया गठजोड़ नहीं बना सकती। मेरी राय में बीजेपी से चूक हुई है। जिस पार्टी ने जातपात से ऊपर उठकर एक राष्ट्रीय आकांक्षा को पकड़ा था, उसने अब आकांक्षा की राजनीति को छोड़ जातपात में दिमाग लगाना शुरू कर दिया है।

दिल्ली चुनाव से पहले तक विदेशों में भारत की नई साख, देश में विकास और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के श्रेष्ठ कामकाज़ पर भरोसा रखने वाली बीजेपी का भरोसा जात-पात में कैसे इतना ज्यादा हो गया कि वह दो महीने पहले जिस जीतन राम मांझी को अक्षम और भ्रष्ट बताती रही, उनके सम्मान की लड़ाई लड़ने लगी। जब गुजरात से निकलकर मोदी बिहार में नीतीश और लालू को मात दे सकते हैं तो प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठकर और अपने कामकाज़ के दम पर क्यों नहीं। क्या बीजेपी का विकास की राजनीति से भरोसा उठ गया है।

यूपी की तरह बीजेपी बिहार में भी दोहरा सकती है, लेकिन सम्मान की लड़ाई इतनी एकतरफा भी नहीं है। दलित-पिछड़ों के सम्मानित नेताओं में से एक कर्पूरी ठाकुर के साथ भी सवर्ण नेताओं के गुटों ने जो किया, वह आज भी अक्षम्य है। जिस तरह से कर्पूरी ठाकुर की मां तक को गालियां दी गईं, वह अक्षम्य था। गाली देने वाले कौन लोग थे, यह बिहार के पुराने जानकार जानते हैं। यह भी सही है कि पिछड़ों और दलितों की लंबे समय तक नहीं बनी है, लेकिन यह पूरा सत्य नहीं है। उत्तर प्रदेश के आरक्षित सीटों पर सबसे अधिक समाजवादी पार्टी का कब्जा है। बिहार की रिजर्व सीटों पर बीजेपी और जेडीयू का बराबर-बराबर कब्ज़ा है। राजनीति में समय-समय पर अब हर समाज का हर समाज के साथ गठबंधन हो चुका है। यह बदलता रहता है।

दरअसल बिहार की राजनीति में जो हो रहा है, उसे आप किसी की साइड लेकर जायज़ नहीं ठहरा सकते हैं। जेडीयू से लेकर बीजेपी तक सबकी दलीलें सत्ता के उस खेल को सही साबित करने में लगी हैं, जिसकी एकमात्र उपलब्धि मिल जाने भर में है। चूंकि बीजेपी नई राजनीति की बात कर रही है, इसलिए जवाबदेही उसकी भी बनती है। मांझी को समर्थन देकर बीजेपी को क्या मिला, यह तो चुनाव में पता चलेगा।

ऐसी चर्चाएं बीजेपी के लिए भी सही नहीं हैं कि मांझी, पप्पू यादव मिलकर कोई दल बना लेंगे और वह उनसे सीटों का तालमेल कर लेगी। क्या बीजेपी अब पप्पू यादव और साधु यादव को भी सामाजिक न्याय का प्रतीक बनाने वाली है। यह सब सवाल पूछे जाएंगे कि बीजेपी चुनावों में मांझी के सम्मान की लड़ाई लड़ेगी। क्या वह मांझी को अपने साथ लेकर लड़ाई लड़ेगी या उन्हें किनारे लगाकर मुद्दा बनाती रहेगी। जो भी हो, मांझी आज दलितों के बड़े नेता तो बन ही गए हैं। पटना की सड़कों पर लोगों ने कहना शुरू कर दिया है कि रामविलास पासवान तो एक समुदाय के नेता हैं, लेकिन मांझी तमाम दलितों के नेता बन गए हैं। तो क्यों न बीजेपी मांझी को ही मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित कर दे, मांझी न सही, किसी दलित को ही घोषित कर दे, जिससे महादलितों के सम्मान की उसकी लड़ाई और भी विश्वसनीय लगे।

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व्यावहारिक धरातल पर ऐसी सैद्धांतिक बातों का असर नहीं पड़ता है, लेकिन अगर जीत ही सब कुछ है तो फिर बहस की क्या ज़रूरत। सबको खुलकर कहना चाहिए कि हमें यह ठीक लगता है और हम यही करेंगे। गलत है तो क्या हुआ। हम जीत रहे हैं, हमारे लिए यही सही है।