चर्चा से दूर, उत्तर प्रदेश में सत्तापलट की तैयारियां...

चर्चा से दूर, उत्तर प्रदेश में सत्तापलट की तैयारियां...

मायावती (फाइल फोटो)

पिछले दो दशकों में देश की राजनीति में आये बदलावों में बहुजन समाज पार्टी का उदय एक बड़ा मुकाम है। दलित वर्ग के सशक्तीकरण के लिए चलाये गए आंदोलनों का नेतृत्त्व कांशीराम ने लम्बे समय तक किया, लेकिन उनकी शिष्या मायावती की महत्त्वाकांक्षा के आगे उनकी नीतिगत सोच काफी नहीं थी। इस विचारधारा को चुनाव-जीतने योग्य राजनीति में सफलतापूर्वक बदलना मायावती के लिए ही संभव था।

पहली बार 1989 में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन सरकार बनाने से शुरू हुई उनकी और उनके दल की यात्रा, तीन बार भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन की सरकार बनाने के बाद से लेकर 2007 में अपने दम पर बहुमत की सरकार बनाने के बाद भी जारी है। इतने वर्षों में मायावती के दल मे बड़े बदलाव आये हैं। उनके शुरुआती दिनों के अधिकतर साथी अब उनके साथ नहीं हैं, उनके निकट सहयोगी उनके ऊपर दलितों के हित से ज्यादा अपने हित में राजनीति करने का आरोप लगाते हैं, दल के लिए धनराशि जुटाने के उनके तरीके और भ्रष्टाचार के आरोप भी हमेशा चर्चा में रहे हैं।

लेकिन, इन सब के बावजूद दलित समुदाय के लिए अभी भी बहनजी (मायावती) से ज्यादा बड़ा कोई नेता नहीं है। आज भी उनके कहने पर लाखों की संख्या में लोग लखनऊ की सड़कों पर लाइन लगा कर प्रदर्शन में या रैली में शामिल होते हैं। भले ही उनकी पार्टी  ने 2014 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से एक भी सीट न जीती हो, लेकिन चुनाव उपरांत गणना में उनका कुल मत प्रतिशत (वोट शेयर) लगभग अपरिवर्तित रहता है। उत्तर प्रदेश के सत्ता के गलियारों में आज भी कुछ समुदायों के अधिकारियों और कर्मचारियों को प्रताड़ित करने से पहले अनेकों बार सोचा जाता है। प्रदेश में आज सत्ता चाहे किसी भी दल की भी क्यों न हो, एक तलवार उनके सर पर हमेशा लटकती रहती है –संभल के रहो, नहीं तो मायावती की सरकार आ जाएगी।

आखिर कैसे बसपा की संभावनाएं हैं प्रबल...
आखिर कुछ तो है इस एक व्यक्ति-केन्द्रित पार्टी में, कि पार्टी के संगठन, वित्तीय प्रबंधन, चुनावी प्रबंधन, नीतिगत निर्णय, सरकार चलाने के तरीके और मीडिया से बात करने के अधिकार एक ही व्यक्ति तक सीमित होने के बावजूद बहुजन समाज पार्टी का रुतबा कम नहीं हो रहा, बल्कि उत्तर प्रदेश में कई राजनीतिक पर्यवेक्षक 2017 मे बसपा सरकार बनने की उम्मीद कर रहे हैं। धारणा यही है कि यदि व्यापक स्तर पर सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के खिलाफ मतदान होता है तो लोग उसी पार्टी को चुनेंगे जो सपा की धुर विरोधी नजर आती हो, और ऐसे में यह दर्जा केवल बसपा को ही मिलता है। मायावती ने भी सपा सरकार के प्रति बढ़ते असंतोष के बीच अपने निशाने पर भारतीय जनता पार्टी को ही रखा है, जिससे लोगों के बीच बसपा और भाजपा के बीच गठबंधन की सम्भावना की किसी अफवाह को ख़ारिज किया जा सके।

दूसरी ओर, सपा सरकार द्वारा लिए गए दो निर्णयों से दलित वर्ग में खासा असंतोष है जिसकी वजह से मायावती के प्रति 2014 में दिखाए गए अपने मोहभंग के बावजूद वे फिर से बसपा की सरकार बनाने का इन्तजार कर रहे हैं। इनमे एक निर्णय  सरकारी नौकरी में प्रमोशन में अनुसूचित जाति/जनजाति के कर्मचारियों के लिए नौकरी में निर्धारित किए गए कोटा को समाप्त करने का है, और दूसरा निर्णय दलितों के भूमि विक्रय संबंधी है। सरकार के निर्णय के मुताबिक अब अगर किसी दलित के पास 1.26 हेक्टेयर भूमि भी है तो वह भी खरीदी और बेची जा सकती है और अब कोई गैर-दलित भी उसे ख़रीद सकता है। इन दोनों फैसलों से दलितों के एक बड़े वर्ग में असुरक्षा बढ़ी है।

पिछले एक साल से बसपा के मंडलीय और जिला स्तर के नेता अपने क्षेत्रों के गांव और कस्बों में जाकर लोगों के बीच बसपा की सरकार फिर से बनाने की जरूरत बता रहे हैं। प्रदेश में कानून व्यवस्था की बिगड़ी स्थिति और दलितों की उपेक्षा के मुद्दों पर समर्थन लेने की कवायद जारी है। कुछ दिनों पहले पार्टी ने अपने मंडल स्तरीय पदाधिकारियों में फेर बदल किया, इनमें से कई अघोषित तौर पर 2017 चुनाव के लिए पार्टी के प्रत्याशी थे। ऐसा माना जा रहा है कि यह फेरबदल कुछ स्थानीय नेताओं की रिपोर्ट आने के बाद किया गया, जिनमें संकेत था कि वे प्रत्याशी पार्टी छोड़ सकते थे।

अपने सार्वजनिक बयानों में मायावती केंद्र और प्रदेश सरकार के हर निर्णय को दलित विरोधी बताती रहतीं हैं, और दोनों ही सरकारों द्वारा दलितों के लिए उठाये कदम को दिखावा बताती हैं। उनकी प्रेस कांफ्रेंस एकतरफा बयान पढ़ने की प्रक्रिया होती है जिसमें संवाददाताओं को सवाल पूछने की इजाज़त नहीं होती। वे अपना कई पन्नों का बयान अपने ख़ास अंदाज़ में पढ़ कर उठती हैं और चल देती हैं। उनकी पार्टी के किसी अन्य नेता या पदाधिकारी को मीडिया से बात करने की इजाज़त नहीं है। इसका उल्लंघन करने पर नेताओं को उनके पदों से हटा दिया जाता है।

मायावती मीडिया से दूर रहती हैं तो क्यों?
मीडिया से दूर रहने की उनकी नीति के अपने कारण हैं। प्रदेश के एक नेता जो अब बसपा में नहीं हैं, कहते हैं कि मायावती का समर्पित समर्थन जिस वर्ग से आता है उस वर्ग के लिए मीडिया से नजदीकी या दूरी मायने नहीं रखती। यहां तक कि मीडिया में बसपा या मायावती के बारे में क्या छपा है, यह भी मायने नहीं रखता। यह वर्ग अखबार में पढ़ कर या टीवी देख कर अपनी राजनीतिक राय नहीं बनाता। दूसरी ओर, मीडिया में जिस तरह से हर छोटी घटनाओं या निर्णयों के पीछे राजनीति देखी जाती है, ऐसे में मायावती का अपने लोगों को मीडिया से दूर रहने की चेतावनी देने का सार्थक कारण हो सकता है।

अपना काम चुपचाप करने में लगे बसपा के कार्यकर्ताओं के लिए एक ही मिशन है – बहनजी को पांचवी बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा देखना। अप्रैल में डॉक्टर अंबेडकर की जयंती पर लखनऊ में एक बड़े कार्यक्रम में मायावती अपना चुनाव प्रचार शुरू कर सकती हैं। ए.आई.एम.आई.एम. के असदुद्दीन ओवैसी बसपा के साथ चलने के संकेत दे चुके हैं, और लखनऊ में बसपा के नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने शिया नेता मौलाना सैयद कल्बे जवाद नकवी से मुलाकात की और उन्हें आश्वासन दिया कि अगर राज्य में उनकी पार्टी सत्ता में आती है तो वह सभी समस्याओं को हल करने की पूरी कोशिश करेंगे।

देखना है कि अगले कुछ महीनों में भाजपा के केशव मौर्या या सपा के शिवपाल यादव या कांग्रेस के प्रशांत किशोर बसपा की इस चुनौती से कैसे निबटते हैं। 


रतन मणिलाल वरिष्ठ पत्रकार हैं...

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