हाल ही में भारत सरकार के राजपत्र की अधिसूचना में न्यूनतम मजदूरी की दरों में इजाफा किया गया है। यह इजाफा देश के 35 राज्यों के लिए अमूमन साल में एक बार किया जाता है। हर राज्य में मजदूरी की दरें अलग-अलग हैं। देश में जिस तरह लोगों को तेल-आटा और नून-मिर्ची के भाव पता चल रहे हैं, उससे यह बड़ी उम्मीद की जाती है कि सबसे निचले तबके के लिए जनकल्याणकारी सरकार सबसे ज्यादा सोचे, सोचकर अच्छा करे, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा। 'जन' कहीं है और मन 'किसी और' के कल्याण में लगा है, 'गण' बेचारा वैसा ही है दशकों से...! ऐसे में संविधान की प्रस्तावना में निहित बराबरी का संकल्प एक इबारत से ज्यादा कुछ नहीं लगता।
अगर संकल्प होता तो वह नीतियों में दिखता भी... आइए देखिए, 35 राज्यों में मजदूरी की बढ़ी दरों को। 22 राज्यों में वृद्धि दहाई के अंक को भी नहीं छू सकी। एक राज्य (ओडिशा) में तो कोई वृद्धि हुई ही नहीं। 'पढ़े-लिखों' के राज्य पश्चिम बंगाल ने केवल दो रुपये बढ़ाए। पांच हजार करोड़ की भारी-भरकम रकम 'सिंहस्थ' पर खर्च करने वाले 'अजब-गजब' एमपी के मजदूरों को पहले से केवल आठ रुपये ज्यादा मिलेंगे। छत्तीसगढ़ में रमन सिंह सरकार भी आठ रुपये बढ़ाकर मजदूर जनता में भरोसा स्थापित करने और 'रेड कॉरिडोर' खत्म करने का दम भर रही है। बिहार में विकास पुरुष की जेब से पांच रुपये ही अधिक निकल पाए। देश को प्रधानमंत्री देने वाले गुजरात के मजदूर 10 रुपये अधिक में क्या हासिल कर लेंगे...?
बड़े राज्यों का हाल बुरा है, और आश्चर्य यह है कि छोटे-पिछड़े और गरीब राज्य ज्यादा भले दिख रहे हैं। गौर करें, अदना-से गोवा में न्यूनतम मजदूरी अब 229 रुपये होगी, निकोबार जिला 243 रुपये दे रहा है, चंडीगढ़ में यह 248 रुपये है, और केरल में 240 रुपये।
इस योजना का मकसद देश में जरूरतमंद परिवार को सामान्य परिस्थितियों में भी कम से कम 100 दिन का रोजगार उपलब्ध करवाना था। सूखे के साल में इससे अपेक्षा बढ़ जाती है। कई राज्यों ने 100 दिन के रोजगार को बढ़ाकर 150 दिन कर भी दिया है, जो पलायन की विभीषिका को रोकने के लिए एक कारगर कदम है। किंतु इसमें सबसे बड़ी बाधा मजदूरी के देरी से हुए भुगतान की है। कई जमीनी अध्ययन बताते हैं कि तमाम राज्यों में मजदूरी के देरी से भुगतान के कारण लोगों ने मनरेगा की बजाए दूसरी जगहों पर कम मजदूरी के बावजूद काम करने को तरजीह दी है। केंद्र ने भी हाल ही में सूखे के मद्देनजर रुके हुए भुगतान का बड़ा हिस्सा जारी किया है। सवाल यह है कि क्या यह भुगतान जानबूझकर रोका गया था, और यदि सूखा नहीं होता तो इसे 'इंतजार की खूंटी' पर टंगा रहने दिया जाता...! क्या राज्य ऐसा ही व्यवहार अपने कर्मचारियों के साथ कर सकता है, शायद नहीं...
एक बहाना सरकारी खजाने की खस्ता हालत या मानसून की बेरुखी का हो सकता है (जिसके लिए पिछले वित्तवर्ष में भारी कटौती की भी गई), तो फिर क्या खाए-अघाए कर्मचारियों के लिए सातवें वेतन आयोग की कवायद भी उतनी ही ज़रूरी है। जो छोटे से छोटे कर्मचारी को भी कम से कम 18,000 रुपये देने का प्रावधान करता है, जबकि मजदूर को 100 दिन के हिसाब से 1,391 रुपये प्रतिमाह ही मिलेंगे। क्या इसमें एक परिवार का गुजारा हो सकता है। तो पहले चिंता किसकी होनी चाहिए...? 196 तरह के वेतन-भत्ते लेकर भी छापों में लाखों-करोड़ों उगलने वाले कर्मचारियों की, या दाल-रोटी के लिए बेबस मजदूरों की।
अनुमान लगाया जा रहा है कि नए वेतन आयोग के बाद 24,300 करोड़ का मौजूदा खर्च 12,000 करोड़ बढ़कर 36,000 करोड़ का हो जाएगा। यह राशि मनरेगा के एक साल के बजट के लगभग बराबर है। पिछले 15 साल में सरकार का कुल वेतन बिल पांच गुना बढ़ गया है। अनुमान है कि सातवें वेतन आयोग के बाद यह 1,49,524 करोड़ रुपये का होगा।
...तो ये दो चेहरे किसके लिए हैं... मंदी है तो सबके लिए है, सब उसका सामना करेंगे, और यदि समृद्धि है तो भी सबके लिए है...
राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के फेलो हैं, और सामाजिक मुद्दों पर शोधरत हैं...
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