जो भूख से मरीं, सिर्फ दिल्ली की नहीं, देश की नागरिक थीं

क्या वाकई बंपर उत्पादन के बाद देश में भुखमरी है...? क्या सचमुच हालात ऐसे हैं, जिन पर अब हंगामा मचाए जाने की ज़रूरत है. बिल्कुल इस पर सियासत होनी ही चाहिए.

जो भूख से मरीं, सिर्फ दिल्ली की नहीं, देश की नागरिक थीं

जिस दिन देश की राजधानी दिल्ली में तीन बच्चियों की भूख से मौत की ख़बर पढ़ी, ठीक उसी दिन अख़बार में एक और ख़बर थी कि अकेले मध्य प्रदेश में 55 लाख टन गेहूं सरप्लस है. यह सरप्लस सरकार के सिरदर्द की वजह बन गया है और इसे दूर करने के लिए सरकार के आला अधिकारी अब मध्य प्रदेश के हिल स्टेशन पचमढ़ी में दो दिन की बैठक करने जा रहे हैं, जिसमें योजना बनाई जाएगी कि इस गेहूं के रखे होने से सरकार को जो ब्याज देना पड़ रहा है, उससे कैसे मुक्त हुआ जा सकता है...?

बहरहाल, ये दोनों ख़बरें पढ़ने के बाद मुझे किसी पत्रकार साथी का एक और विश्लेषण याद आया, जिसमें उन्होंने बताया था कि भारत में फिलवक्त गेहूं का इतना उत्पादन होता है, जिसे यदि लाइन से रखा जाए, तो वह चांद तक पहुंच जाएगी...! हैरानी की बात है कि चांद तक पहुंचने का माद्दा रखने वाली यह लाइन देश की राजधानी तक नहीं पहुंच पा रही है. केवल एक राज्य में गेहूं को खपाने के लिए सरकार को मीटिंग करनी पड़ रही है और हमें इस बात पर शर्म भी नहीं आ रही कि देश में आखिर कैसे बच्चे भूख से मर जा रहे हैं.

दुनिया बहुत आगे बढ़ गई है और अब पल-पल की ख़बर आपको है. क्या कोई ऐसा सिस्टम हो सकता है कि ऐसा बेहतर इंतज़ाम कर दिया जाए कि ऐसी मनहूस ख़बरें बने ही नहीं...? पर ऐसा होता नहीं है. ख़बरों की राजधानी दिल्ली के मंडावली में एक ही परिवार की तीन बच्चियों की मौत भी ऐसी ही मनहूसियत से भरी हुई है. हैरान हुआ जा सकता है कि देश की राजधानी में भी क्या ऐसे हालात हो सकते हैं. भरोसा सचमुच नहीं होता, इसलिए एक नहीं, दो-दो पोस्टमॉर्टम करके यह पता लगाया गया, क्या यह वाकई भूख से हुई मौत थी...?

हां, GTB अस्पताल के बाद लालबहादुर शास्त्री अस्पताल में कराए गए दूसरे पोस्टमॉर्टम में भी यही रिपोर्ट आई. बच्चियों के पेट में अन्न का दाना नहीं निकला. कोई एक बच्ची मरती, तो मान लेते. तीन-तीन बच्चियों को मौत ने अपने आगोश में ले लिया.

क्या वाकई बंपर उत्पादन के बाद देश में भुखमरी है...? क्या सचमुच हालात ऐसे हैं, जिन पर अब हंगामा मचाए जाने की ज़रूरत है. बिल्कुल इस पर सियासत होनी ही चाहिए. क्यों न हो; लेकिन सियासत यह देखकर नहीं होनी चाहिए कि यह किस सरकार का आदमी है. वह अरविंद केजरीवाल की दिल्ली है या किसी और की. इस घटना को भी अरविंद केजरीवाल सरकार की नाकामी से जोड़कर हलचल मचाई जा रही है. होना भी चाहिए, लेकिन राजनीति की इस संकीर्ण सोच में क्या इस बात से इंकार किया जा सकता है कि जो मरा, वह एक भारतीय नागरिक है. वह किसी एक राज्य का ही बाशिंदा नहीं है, वह इस देश का नागरिक है. यदि दिल्ली के अरविंद केजरीवाल उसके मुख्यमंत्री हैं, तो नरेंद्र मोदी उसके प्रधानमंत्री भी हैं. तो यह जिम्मा केवल एक सरकार या एक पद पर कैसे डाला जा सकता है... और मामला यदि इतना संवेदनशील हो, तब तो बिल्कुल भी नहीं. सच्चाई यह है कि हम सभी इस देश के नागरिक हैं और यह देश हमें जीवन का अधिकार देता है.

हमें लगता है कि बेहतर उत्पादन हासिल करने के बाद हमने भूख से मुक्ति पा ली है, पर सचमुच ऐसा हो नहीं पाया है. उत्पादन और उपलब्धता दो अलग-अलग पहलू हैं, और इन सभी के साथ ज्ञान या जानकारी का होना भी महत्वपूर्ण है. पोषण के सवाल ऐसे ही रास्तों से होकर गुज़रते हैं, जहां केवल उपलब्ध हो जाने भर से काम पूरा नहीं हो जाता.

पिछले महीने जब मैं मैदानी रिपोर्टिंग को लेकर गांव में गर्भवती महिलाओं से बात कर रहा था, तो एक ऐसी गर्भधात्री महिला मिली, जिसने चार दिन से केवल सूखी रोटी खाई थी. उससे यह जानकारी लेकर मैं भी सनसनी से भर गया था. यदि उसकी सास मुझे यह नहीं बताती कि इसे सब्ज़ी या कुछ और पसंद ही नहीं आता, इसलिए केवल नमक-रोटी खाती है. ऐसे इलाकों में गरीबी में ज्ञान और जानकारी की गरीबी भी जुड़ी है, इसलिए कमज़ोर बच्चे पैदा होते हैं और कमज़ोरी से ही असमय मर भी जाते हैं.

तो क्या हमें अब भुखमरी के कुछ दूसरे आयामों पर भी सोचना और बात करना चाहिए. कुछ साल पहले मौन रहने वाले प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने कुपोषण को 'राष्ट्रीय शर्म का विषय' बताया था. हालात अब भी बेहतर नहीं हुए हैं, तब भी हम यह नहीं देखते कि इस पर बहुत ज़्यादा बातचीत की जा रही है. अब वह वक्त आ गया है, जब सरकार, पक्ष, विपक्ष हर कोई इस दुखद पहलू पर बातचीत करे.

 
राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...

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