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This Article is From Oct 14, 2015

राकेश कुमार मालवीय : नवरात्रि और हमारे समाज में लड़कियों की पीड़ा...

Written by Rakesh Kumar Malviya
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 20, 2015 19:35 pm IST
    • Published On अक्टूबर 14, 2015 15:28 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 20, 2015 19:35 pm IST
साल 2014 में हमारे देश में नाबालिग लड़कियों के साथ बलात्कार के 13,766 मामले दर्ज हुए। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो में इसी अवधि में मध्य प्रदेश से ऐसे 2,300 मामले सामने आए। 10 साल पहले यह आंकड़ा देश में तकरीबन 4,026 और मध्य प्रदेश में 870 तक सीमित था। जिस देश में नारी और कन्या को देवीस्वरूपा मानते हुए सदियों से पूजा जा रहा हो, उसी समाज के ये आंकड़े हमें अंदर तक हिला देते हैं।

ये आंकड़े भर नहीं हैं, दरअसल इनकी रोशनी में हम अपने सभ्य होते जा रहे चेहरे को देख सकते हैं। हम देख सकते हैं कि तमाम धार्मिक मान्यताओं और धर्म के भी बाज़ार होते जाने के बीच सामाजिक विद्रूपताएं कैसे राक्षसी आकार ले रही हैं। हमें चिंता होने लगती है कि हम आगे जा रहे हैं या नहीं, पन्ने पलट-पलटकर आंकड़ों को देखने लगते हैं, जो हमारी स्थितियों पर क्रूरता से हंसते हैं।

विद्रूपता का एक भयावह चेहरा हमें नवरात्रि के ठीक एक सप्ताह पहले देखने को मिला। मध्य प्रदेश के पन्ना जिले की सुशीला (परिवर्तित नाम) के साथ जो कुछ हुआ, वह सभ्य समाज की निशानी कतई नहीं है। सुशीला की उम्र केवल 14 साल है और इस उम्र में मां बन जाने की पीड़ा को उसने किस तरह भोगा है, यह केवल वही बता सकती है। बच्ची इसके लिए न शारीरिक रूप से तैयार होती है, न मानसिक रूप से। मां भी बनी, जबरिया।

अपने ही सौतेले बाप की हवस का शिकार होना, उसके बाद गर्भवती हो जाना, और बच्चे को जन्म देना। उस पर भी हमारी सरकारी व्यवस्थाएं, जो बलात्कार की शिकार, धोखे और अनचाहे तरीके से मां बनी एक बच्ची को सही आसरा देने में नाकारा साबित हुईं। बहरहाल, वह जबलपुर के मेडिकल कॉलेज में भर्ती है।

वैसे, यह सिर्फ पन्ना जिले की सुशीला का दुखड़ा नहीं है। ठीक इन्हीं दिनों में मध्य प्रदेश के ही शिवपुरी जिले के सड़ गांव में बलात्कार का शिकार हुई एक और बच्ची मां बनी। उसने ग्वालियर के जरारोग्य अस्पताल में बच्चे को जन्म दिया। उसके साथ गांव के ही दो युवकों ने बलात्कार किया था, जिसकी सजा उसे कुछ यूं बिन-ब्याही मां बनकर मिल रही है।

जब हम इन तस्वीरों को कुछ यूं देखते हैं कि 2005 से लेकर 2014 तक देश में ऐसी 71,872 लड़कियां वासना का शिकार हुई हैं, तब हमें समझ आता है कि दरअसल हम कन्याओं को पूजते तो हैं, लेकिन उन्हें एक सुरक्षित समाज आज तक नहीं दे पाए हैं। पहले मोर्चे पर तो हम ऐसी घटनाओं को रोक पाने में असफल हैं और दूसरे मोर्चे पर अगर ऐसी लड़कियां शोषण का शिकार हुईं भी तो उन्हें सम्मान का वातावरण दे पाने में असफल रहे।

बलात्कार के बाद मां बन जाने का मामला केवल उस बालिका के सम्मान और पूरे जीवन का मामला नहीं होता, बल्कि उससे आने वाली एक और ज़िन्दगी से जुड़ा हुआ भी होता है, लेकिन हमारा समाज ऐसे लोगों के लिए कोई स्थान नहीं छोड़ता। यह प्रक्रिया ऐसा सामाजिक बहिष्कार पैदा करती है, जिसमें दोष पीड़ित का नहीं होता, और उसकी संतान का तो बिल्कुल नहीं होता, लेकिन सबसे ज्यादा पीड़ा वहीं भुगतते हैं।

दरअसल बड़ी होती बच्चियों के बारे में ही हमारे समाज का व्यवहार ऐसा है, जिसमें उनकी सुरक्षा पुख्ता नहीं हो पाती। इसकी शुरुआत उनके अपने घर से ही होती है। किशोरावस्था, चाहे वह लड़कियों की हो या लड़कों की, उसके परिवर्तन के बारे में चुप्पी, बदलावों के बारे में बातचीत पर एक किस्म का प्रतिबंध और संवादशून्यता उन्हें अज्ञानता के अंधेरे में ले जाती है, इसलिए वे अपने साथ होने वाले यौनिक व्यवहार, जो कई बार घर की चारदीवारी के अंदर होते हैं, के खिलाफ कुछ भी नहीं बोल पातीं।

वैसे, यह मामला नाबालिग लड़कियों भर का ही नहीं हैं। हम इसे एक सामाजिक ढांचे में भी देखें तो पाते हैं कि लड़कियों के लिए हमने क्या किया है। साल 2011 की भारतीय जनगणना के कुछ आंकड़े देखिए। ये बताते हैं कि भारत में 19 साल से कम उम्र की लड़कियों की कुल संख्या 23.46 करोड़ हैं। हैरान करने वाली बात यह है कि इनमें से 1.3 करोड़ (5.6 प्रतिशत) लड़कियों का विवाह हो चुका है। इससे आगे का आंकड़ा यह है कि इनमें से 38 लाख (29 प्रतिशत) से ज्यादा लड़कियां मां बन चुकी हैं। 19 वर्ष से कम उम्र में लड़कियां 60.14 लाख बच्चों को जन्म दे चुकी हैं और इनमें से भी 9.26 लाख लड़कियां 19-वर्ष की उम्र तक दो बच्चों की मां बन चुकी थीं।

इन तथ्यों का आशय क्या है? केवल हैवानियत भरे समाज के कुछ हिस्सों में ही नहीं, एक बड़े वर्ग में भी सांस्थानिक और पारिवारिक ढांचों के बीच लड़कियों को केवल इसलिए ऐसे व्यवहारों में धकेल दिया जाता है, क्योंकि उनके लिए वातावरण सम्मानजनक और सुरक्षित नहीं है। शादी के बाद जल्द से जल्द संतानोत्पत्ति महिला का कर्तव्य हो जाता है, जिसके बिना उसका अस्तित्व पूरा नहीं माना जाता।

नवरात्रि के त्योहार में क्या हम इन तथ्यों पर गौर करेंगे। उस दौर में जब धर्म को बाज़ार अपने लिए संजीवनी के रूप में देखता है और उसमें अंदर तक धंस जाने की पुरजोर कोशिश कर रहा है, तब क्या छोटी-मोटी कोशिशें इस रूप में हो सकती हैं कि इसके असल अर्थों को हम जान सकें। जिन कन्याओं को हम नौ दिन तक पूजते हैं, उन्हें भोजन कराकर पुण्य कमाने की कोशिश करते हैं, क्या असल में हम उनके लिए एक सभ्य, सुरक्षित और सम्मानजनक वातावरण दे सकते हैं।

(राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के फेलो हैं, और सामाजिक मुद्दों पर शोधरत हैं)

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