साक्षर व्यक्ति अपने अभ्यास से शब्दों की संरचना तो सीख लेता है लेकिन शब्द किस तरह समाज की संरचना से जुड़े हैं यह नहीं जान पाता है - देश के जाने माने शिक्षाविद प्रोफेसर कृष्ण कुमार की किताब ‘राज समाज और शिक्षा’की यह लाइनें मौजूदा वक्त में बिलकुल सटीक साबित होती हैं. आज हमारी पूरी शिक्षा—दीक्षा का हाल ठीक वैसा ही है, किताब में जो बातें हैं वह किसी दूसरी दुनिया की लगती हैं इसलिए क्योंकि हमने अपने आसपास बिखरे ज्ञान का अपनी भाषा में प्रयोग करने में कोई प्राथमिकता नहीं रखी. आयातित ज्ञान और थोपी गयी भाषा से मौलिक सृजन कैसे संभव है.
हमारी अपनी भाषा हिन्दी का हाल कुछ ऐसा ही है जिसे सम्मान दिलाने के लिए हर साल रस्मअदायगी की तरह हिन्दी पखवाड़े, राजभाषा दिवस, हिन्दी दिवस जैसे आयोजन करने पड़ रहे हैं. यह आयोजन हमें आयोजन की तरह न लगकर आडंबर की तरह लगते हैं क्योंकि हमारे पूरे भाषायी कर्मकांड में हिन्दी केवल दिखावा मात्र है. हम हिन्दी न जीना चाहते हैं, न हिन्दी करना चाहते हैं, इसलिए हिन्दी आज ‘बेचारी हिन्दी’है.
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इस सवाल को आज बहुत ईमानदारी से पूछा जाना चाहिए कि हिन्दी क्या जीवन की जरूरतें पूरा करती है? यदि आप साफगोई से बोलें तो जवाब ‘न’ में ही होगा. यह सही है कि इस दौर में हमारी औपचारिक और तथाकथित ‘स्मार्ट एजुकेशन’ का रास्ता केवल हिन्दी से होकर नहीं जाता लेकिन इससे पहले का एक और सवाल है. वह सवाल हमारी उस शिक्षा का है जो हर हाल में साक्षरता से अलग है. बहुत गौर से देखें तो इस शिक्षा या साक्षरता का अंतिम लक्ष्य बड़ी चतुराई से ‘नौकरी’ को बना दिया गया है . यह सही है कि नौकरी जीवन यापन का जरिया है लेकिन यह भी उतना सही है कि केवल नौकरियों से समाज नहीं बना करते, शिक्षा का एक व्यापक लक्ष्य था.
दुनिया में औद्योगिक क्रांतियों के बाद और उम्मीद भी क्या की जा सकती थी? लेकिन नौकरी से इतर का देशज ज्ञान जो भिन्न—भिन्न मौलिक भाषाओं में हमारी समाज की चेतना में बिखरा पड़ा था, उसे हमने खो दिया. अब पूरा खेल केवल नौकरी का है. अब इस दौर में ‘नॉलेज’ का संबंध नौकरी से है, ज्ञान का संबंध समाज की सामूहिक चेतना से था. ज्ञान हमेशा अपनी मौलिक भाषा में मौलिक तौर—तरीकों से ही आता है. इसलिए जो थोपा हुआ ज्ञान है वह निश्चित ही ज्ञान की परिधि का विस्तार तो करता है लेकिन मौलिकपन नहीं ला पाता. वर्तमान दौर का यही सबसे बड़ा संकट है कि हमने आयातित साक्षरता को आदर्श मान रखा है. क्या इसे हम एक तरह की वैचारिक गुलामी कह सकते हैं?
प्रोफेसर कृष्ण कुमार के ही शब्दों में ‘ऐसी साक्षरता जो शब्दों के अलावा परिस्थिति का बोध कराती है शिक्षा बन जाती है, इसके विपरीत जब शिक्षा जीवन और समाज की परिस्थिति से कट जाती है, तब वह साक्षरता बनकर रह जाती है.' भारत में बच्चों की शिक्षा वस्तुत: साक्षरता से अलग नहीं है क्योंकि वह बच्चों को समाज की सांस्कृतिक चेतना से जोड़ने की बजाय बेगाना बनने का साधन बना देती है.
हम उन्हें बेगाना बनाते कैसे हैं, इसका सबसे बड़ा जरिया तो पाठ्यपुस्तकें ही रही हैं. पाठयपुस्तकें एक सीमा में बांधती हैं. गौर करें तो बच्चों का मन उस सीमा को तोड़कर उड़ जाना चाहते है लेकिन हम कश्मीर से कन्याकुमारी तक उन्हें केवल एक जैसी भाषा में पढ़ाना चाहते हैं. उनके लिए वर्णमाला का मतलब ‘अ से अनार है और क से कबूतर’ही है. जब बच्चों की किताबों पर गौर करते हैं तो उनमें ऐसे—ऐसे तथ्य हैं जो उनके आसपास की दुनिया के हैं ही नहीं.
अपने बच्चों की किताबों के पन्ने पलटिए, हम हैरान रह जाते हैं जब उसमें ऐसे ऐसे विदेशी पक्षी होते हैं जिन्हें हमने अपने आंगन में कभी देखा ही नहीं, कई ऐसी सब्जियां हैं जो हमारे किचन में कभी आई ही नहीं, कई ऐसे वनस्पति हैं जो हमारे गली मोहल्लों ताल तालाबों के नहीं हैं, इसलिए हम जब वास्तविक दुनिया में कदम रखते है तो अपने आंगन की गोरैया को पहचानने में भी मुश्किल हो आती है? जो ज्ञान बचपन से ही किसी दूसरी दुनिया के कल्पनालोक में पहुंचाता हो, वह आगे चलकर अपनी दुनिया के आसपास कैसे हो सकता है ? इसका असर आज नहीं तो कल दिखाई देना ही है, क्योंकि यह सवाल केवल भाषा का ही नहीं है, पूरी विकास प्रक्रिया का है.
यह सही है कि हमने बरसों की गुलामी झेली, उस गुलामी ने हमारी चेतना को बदल कर रख दिया, लेकिन यह भी सही है कि उस गुलामी को गए सत्तर साल हो गए और इन सत्तर सालों में क्या हमारी सामाजिक चेतना को लौटा पाने में हम थोड़े भी सफल हुए? हमारी पूरी सोच और करने के रंग—ढंग में हम केवल चेहरों को बदलकर उसी मार्ग पर ले गए जो औपनिवेशक शक्तियां ले जा रही थीं. हम एक ऐसे देसी उपनिवेश को आगे बढ़ाते पाए गए जो हमारी मौलिकता को खारिज करता है और उसका सबसे बड़ा उदाहरण दुर्भाग्य से हमारी मातृभाषा ही रही.
एक वह दौर था जब बच्चे अंग्रेजी में पास होने के लिए अपने 17 नंबरों को निबंध, आवेदन और सवालों से जोड़ लिया करते थे उसमें भी हम कभी ‘वंडर ऑफ साइंस’ और ‘अवर नेशनल लीडर महात्मा गांधी’ से ज्यादा कुछ नहीं सोच पाए, शहरी परिवेश में अब स्कूली शिक्षा में हिन्दी का ठीक वही हाल हो रहा है जो कभी इस तरह की अंग्रेजी का था. अब हिन्दी के पर्चे में न्यूनतम नम्बरों के पाने की कवायद दिखाई देने लगी है, वह इसलिए भी क्योंकि हिन्दी को हमने उसके देशज रूप देने की जगह विशिष्ट हिन्दी का रूप दे दिया है, हिन्दी की किताब में पहली का बच्चा क्या प्राक्कथन और उसके शब्दों को समझ पायेगा?
ऐसे तमाम उदाहरण हैं जहां बच्चों को उनकी मातृभाषा में अध्ययन अध्यापन के मौके उपलब्ध कराए गए और उन्होंने उसमें ज्यादा सहज रूप में ग्रहण किया. बावजूद इन प्राप्तियों के हमने इन्हें अपनी प्राथमिकता में नहीं डाला, क्योंकि यह अपेक्षाकृत मुश्किल काम है. इसलिए भारत जैसे विविधता वाले देश में वह विविधताएं संकट में हैं. सवाल यही है कि हम इन विविधताओं का संरक्षण करना चाहते हैं या नहीं. यदि इसकी मंशा है तो हमें अपनी भाषाओं के बारे में भी उतनी ही ईमानदारी से सोचना—समझना और कुछ करना होगा.
राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के फेलो हैं, और सामाजिक मुद्दों पर शोधरत हैं...
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