आखिर किसके लिए है यह ग्लोबलाइजेशन?
पहला धरना प्रदर्शन और दूसरा कानूनी रास्ता. यह दूसरा रास्ता सरकारों के नेताओं और अफसरों को अड़चन में डाले रहता है. वैसे तो स्थानीय स्तर पर धरना प्रदर्शनों या एफआईआर लिखाने से तत्काल न्याय मिलने की सूरत कहीं दिखाई नहीं देती. लेकिन धरने प्रदर्शनों की खबरों और एफआईआर दर्ज होते ही मामले के तथ्यों को जनता तक पहुंचाने के लिए मीडिया के सक्रिय हो जाने से सरकारों के खिलाफ जनमत बनने लगता है. दोनों ही तरीकों में एक बात समान है कि मीडिया के ज़रिए अफसरों और नेताओं के गड़बड़झालों की बात जनता तक पहुंचने लगती है. इस तरह यह प्रस्तावित कानून पत्रकारिता पर पाबंदी के लिए ज्यादा दिखता है.
क्या कोर्ट को भी एफआईआर के लिए सरकार से पूछना होगा?
हमारी व्यवस्था में सरकार का मतलब ही जनप्रतिनिधि और अफसर होता है। उनके किसी खटकर्म की शिकायत करना हो तो हमारे पास एक न्यायिक प्रक्रिया उपलब्ध है. इसकी शुरुआत प्राथमिकी नाम की रिपोर्ट यानी एफआईआर से होती है. और अगर नेताओं और अफसरों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने के लिए उनसे ही मंजूरी लेने का कानून बन रहा हो तो पहली नजर में विसंगति दिखेगी ही.
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मंजूरी मिलने में एक उम्र का लगना
कहते हैं कि शिकायत की मंजूरी मिलने की मियाद एक दो हफ्ते नहीं बल्कि पूरे छह महीने रखी जा रही है. यानी सरकार जिस मामले में चाहे वह छह महीने तक एफआईआर दर्ज कराने की मंजूरी की अर्जी को चाप कर बैठ सकती है. नौकरशाही के कामकाज से जो लोग वाकिफ हैं वे बता रहे हैं कि इतने दिनों के भीतर किसी के खिलाफ शिकायत के सबूतों को इधर उधर करना कोई मुश्किल काम नहीं होता. मंजूरी मिलने में इतना वक्त गुज़ार देने से एक स्थिति यह भी बनती है कि खुद शिकायत करने वाले के सामने ही चुप हो जाने के कारण पैदा करना आसान हो जाएगा.
ऐसे कानून का आगा पीछा
इतिहास बताता है कि जनता अपनी शिकायत रखने की स्वतंत्रता में कोई बाधा स्वीकार नहीं करती। कानून तो है ही, इसके अलावा अपनी मांग या शिकायत सार्वजनिक मंच पर रखने को सामान्य नागरिक अपना विशेषाधिकार समझता आया है. उसे किस तरह समझाया जाएगा कि शिकायत पर किसी भी तरह की पाबंदी या अड़चन डालना उसके ही हित में है और जहां तक ऐसी पाबंदी के असर की बात है तो अब तक का अनुभव है कि ऐसी पाबंदियों का असर किसी भी सरकार के लिए भयावह ही रहा है. सामान्य अनुभव है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए जब कोई वैध उपाय उपलब्ध नहीं होता तो छोटे छोटे धरने प्रदर्शन बड़े बड़े आंदोलनों में तब्दील होते देर नहीं लगती. वैसे भारतीय लोकतंत्र में आंदोलनों या कैसे भी विरोधप्रदर्शनों से निपटने की प्रोद्योगिकी भी विकास पर है. सरकारें अपने विरोध के खिलाफ विरोध का प्रबंध करने में जिस तरह से पटु होती जा रही हैं वह खुद में एक चिंता की बात है.
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तो फिर प्रस्ताव का मतलब
कुलमिलाकर यह मीडिया के लिए अड़चन पैदा करने का कानून कहा जाएगा. अफसरों या नेताओं को बचाने या उन्हें कवच देने के लिए इससे ज्यादा कारगर उपाय और क्या हो सकता है? एक निष्कर्ष यह निकलता है कि विधायिका अब एफआईआर दर्ज कराने की अर्जी पर मंजूरी देने का अधिकार लेकर खुद को न्यायपालिका का रूप् धारण करने की कोशिश में लगी दिख रही है और अगर यह सोचें कि सरकार इसमें कहां तक कामयाब होगी, तो याद दिलाया जा सकता है कि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के तीनों अंगों में संप्रभुता किसी भी अंग के पास नहीं है. यहां तक कि न्यायपालिका के पास भी नहीं. वह भी कानून की संप्रभुता मानने को बाध्य है. जाहिर है कि ऐसा कानून बन पाने में ढेरों सांवैधानिक प्रावधान आड़े आएंगे। और जब बहसबाजी होगी तो सरकार की नीयत उजागर हो जाने का जोखिम है ही.
सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्त्री हैं...
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