...और यूपी को गाली पड़ गई

मुश्किल यह है कि यूपी की ये पहचानें मिटती जा रही हैं और उसकी एक उद्धत और आक्रामक, भदेस और हमलावर पहचान विकसित की जा रही है. उसकी गरीबी और बेरोज़गारी तक का मज़ाक बनाया जा रहा है.

...और यूपी को गाली पड़ गई

निर्मला सीतारमण के 'यूपी जैसा जवाब' संबंधी कमेंट को लेकर कांग्रेस हमलावर है

बात छोटी सी थी, मगर बढ़ गई. इस चक्कर में यूपी को गाली पड़ गई. राहुल गांधी ने बजट की आलोचना की. यूपी के वित्त राज्य मंत्री ने कहा कि राहुल को बजट समझ में नहीं आया. इस पर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने वित्त राज्य मंत्री की पीठ थपथपाई- कहा, बिल्कुल सही किया, यूपी जैसा जवाब दिया.

समझना मुश्किल है कि निर्मला सीतारमण का क्या आशय था? 'यूपी जैसा जवाब' क्या होता है? क्या वे कहना चाहती थीं कि यूपी वाले तू-तड़ाक जैसे जवाब में भरोसा रखते हैं? या वे यह बताना चाहती हैं कि यूपी वालों को जानकारी हो या न हो, वह जवाब देना जानते हैं?

यह सच है कि यूपी-बिहार की छवि एक अभिजात तबके में मज़ाक का विषय रही है. बिहारी हिंदी या बलियाटिक भोजपुरी जैसे विशेषण या 'जाट रे जाट यानी सोलह दूनी आठ' जैसे मुहावरे ऐसे लोगों को बहुत गुदगुदाते हैं. नफ़ीस कपड़े पहनने वाले, नफ़ीस अंग्रेज़ी बोलने वाले, अपने आधे-अधूरे ज्ञान को नकली भाषा में चबा-चबा कर बांटने वाले ये लोग दरअसल सिर्फ यूपी-बिहार को नहीं, उस पूरी भदेस भारतीयता को उपहास की नज़र से देखते हैं जो सभ्यता की उनकी कसौटी पर खरे नहीं उतरती. ऐसे लोगों के लिए कभी हिंदी भवानी प्रसाद मिश्र ने एक कविता लिखी थी- ‘जाहिल मेरे बाने'. कविता इस तरह है-

'मैं असभ्य हूं क्योंकि खुले नंगे पांवों चलता हूं
मैं असभ्य हूं क्योंकि धूल की गोदी में पलता हूं
मैं असभ्य हूं क्योंकि चीरकर धरती धान उगाता हूं
मैं असभ्य हूं क्योंकि ढोल पर बहुत ज़ोर से गाता हूं

आप सभ्य हैं क्योंकि हवा में उड़ जाते हैं ऊपर
आप सभ्य हैं क्योंकि आग बरसा देते हैं भू पर
आप सभ्य हैं क्योंकि धान से भरी आपकी कोठी
आप सभ्य हैं क्योंकि ज़ोर से पढ़ पाते हैं पोथी
आप सभ्य हैं क्योंकि आपके कपड़े स्वयं बने हैं
आप सभ्य हैं क्योंकि जबड़े ख़ून सने हैं

आप बड़े चिंतित हैं मेरे पिछड़ेपन के मारे
आप सोचते हैं कि सीखता यह भी ढंग हमारे
मैं उतारना नहीं चाहता जाहिल अपने बाने
धोती-कुरता बहुत ज़ोर से लिपटाए हूं याने!

ये लोग नहीं जानते कि दरअसल ये जाहिल बाने की हिंदुस्तान की शोभा हैं. क़िस्सा मशहूर है कि महात्मा गांधी- जिन्हें चर्चिल ने 'नंगा फकीर' कहा था- जब 1931 में ब्रिटिश सम्राट जॉर्ज पंचम से मिले तो उन्होंने अपनी जानी-पहचानी धोती पहनी थी और एक शॉल लपेट रखी थी. गोलमेज सम्मेलन के लिए आए लोगों को तब जॉर्ज पंचम ने दावत का न्योता दिया था जिसमें सबसे औपचारिक पोशाक में आना अपेक्षित था. बाद में पत्रकारों ने गांधी से पूछा कि क्या आपकी पोशाक उपयुक्त थी? गांधी का जवाब था- इसकी फ़िक्र मत कीजिए. मेरे हिस्से के कपड़े भी सम्राट ने पहन रखे थे.

अरविंद मोहन की किताब 'गांधी और कला' में एक दिलचस्प प्रसंग आता है. गांधी के पास एक कंबल था जो ओढ़ते-ओढ़ते लगभग घिस और फट गया था. गांधी जी ने जमनालाल बजाज की पत्नी जानकी देवी बजाज को दिया कि वे इसे सिल दें. जानकी देवी ने कंबल को उलट दिया, और उस पर एक मोटा रंगीन कपड़ा लगा दिया. गांधी बहुत खुश हुए. उन्होंने कहा कि यह लंदन ले जाने के लिए सबसे सही है.

यह अनायास नहीं है कि यह गांधी बीजेपी को समझ में नहीं आते. वह उदात्तता और चकाचौंध के आकर्षण में पड़ी एक ऐसी पार्टी है जिसे सबकुछ भव्य और दिव्य चाहिए- अपने भगवान का मंदिर भी. अयोध्या में वह करोड़ों दीए जलवाती है ताकि गिनीज बुक में नाम आ सके. 

यह भी अनायास नहीं है कि उसका बहुत सारा ज़ोर तरह-तरह की सुंदरीकरण की योजनाओं पर है जिसका दरअसल मूल मक़सद सभी सेवाओं को उच्चवर्गीय अपेक्षाओं के अनुकूल बनाना है, भले इसकी जो क़ीमत चुकानी पड़े वह गरीब आदमी चुका न पाए.

यूपी और निर्मला सीतारमण पर लौटें. निर्मला सीतारमण की भी एक छवि है और यूपी की भी एक छवि है. दोनों छवियां एक-दूसरे से मेल नहीं खातीं. निर्मला सीतारमण एक अलग और संभ्रांत भारत की नुमाइंदगी करती लगती हैं और यूपी एक भदेस भारत का हिस्सा जान पड़ता है. जाहिर है, यह छवियों का खेल है, सच इनसे अलग है. संभ्रांतता की भी अपनी विरूपताएं होती हैं और भदेसपन का भी अपना सौंदर्य.

यूपी इस देश का बहुत बड़ा हिस्सा है. वह छोटा सा भारत है. वहां लखनऊ भी है जिसे तहज़ीब का शहर कहते रहे, वहां इलाहाबाद भी है जिसे पूरब का ऑक्सफोर्ड कहा जाता रहा. यहां मथुरा है जहां कृष्ण हुए जो प्रणय के देवता हैं और युद्ध के भी. वे रासलीला भी करते हैं और महाभारत के परिपार्श्व में भी केंद्रीय भूमिका में खड़े रहते हैं. वहां बनारस भी है जो सभ्यता के सबसे लंबे समय का साक्षी है. यहां अयोध्या है जहां राम हुए और जिसे दुनिया ने निजामे हिंद माना. यूपी ने कई प्रधानमंत्री दिए. नरेंद्र मोदी ने भी गुजरात छोड़ा और यूपी से अपनी पहचान जोड़ी.

मुश्किल यह है कि यूपी की ये पहचानें मिटती जा रही हैं और उसकी एक उद्धत और आक्रामक, भदेस और हमलावर पहचान विकसित की जा रही है. उसकी गरीबी और बेरोज़गारी तक का मज़ाक बनाया जा रहा है. उसकी गंगा-जमुनी संस्कृति को जिन्ना और पाकिस्तान विमर्श की फूहड़ता के साथ नष्ट किया जा रहा है. राम, कृष्ण और शिव जैसे भारतीय महास्वप्न के प्रतीक शहरों अयोध्या, मथुरा और काशी को ओछी राजनीति के केंद्रों में बदला जा रहा है.

निर्मला सीतारमण शायद इसी यूपी को जानती हैं. इसलिए वे राहुल गांधी की बात पर एक उद्धत-आक्रामक जवाब को 'यूपी टाइप जवाब' कह कर दरअसल पूरे यूपी का अपमान कर डालती हैं. क्या अब भी यूपी इन्हीं लोगों के साथ खड़ा रहेगा?

ऐसे अवसरों पर धूमिल याद आते हैं. 'संसद से सड़क तक' में उनकी एक कविता है- 'कवि 1970'. उसकी आख़िरी पंक्तियां हैं-

'वादों की लालच में / आप जो कहोगे / वह सब करूंगा / लेकिन जब हारूंगा / आपके ख़िलाफ़ ख़ुद अपने को तोड़ूंगा / भाषा को हीकते हुए अपने भीतर / थूकते हुए सारी घृणा के साथ / अंत में कहूंगा— / सिर्फ़, इतना कहूंगा— ‘हां, हां मैं कवि हूं, / कवि—याने भाषा में / भदेस हूं; / इस क़दर कायर हूं / कि उत्तर प्रदेश हूं!'

क्या वाकई यूपी ऐसी गाली खाने का हक़दार है?

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

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डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.