एक पुराना और बार-बार दुहराया जाने वाला क़िस्सा है. एक बार संसद भवन में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के कार से उतरते ही उनका गिरेबान एक बूढ़ी महिला ने पकड़ लिया. उस बुज़ुर्ग महिला ने पूछा, देश आज़ाद हो गया है, तुम प्रधानमंत्री हो गए, लेकिन मुझे क्या मिला? कहते हैं, नेहरू ने जवाब दिया- आपको यह मिला कि आप देश के प्रधानमंत्री का कॉलर पकड़ सकती हैं.
आज़ादी के 75वें साल में क्या यह आज़ादी कुछ कमज़ोर पड़ गई है? क्या इस देश के लोग अपने प्रधानमंत्री का कॉलर पकड़ना तो दूर, उनके पास फटक भी नहीं सकते? क्या एक दौरे पर अचानक सड़क पर कुछ लोगों के खड़े हो जाने से इस देश के प्रधानमंत्री को इतना डर जाना चाहिए कि वह लौटते हुए कुछ अफ़सरों से कहे कि अपने मुख्यमंत्री को धन्यवाद कहना, ज़िंदा लौट आया हूं?
56 इंच का सीना रखने वाले प्रधानमंत्री डरपोक नहीं हैं, इसको लेकर कोई शक नहीं होना चाहिए. तो क्या यह भी एक राजनीतिक जुमला भर था जो उन्होंने अपने पिछले कुछ जुमलों की तरह इस्तेमाल किया था? क्या वे अपनी एक रैली की राह में अचानक आई रुकावट से इतने खिन्न हुए कि उन्होंने मुट्ठी भर प्रदर्शनकारियों को बिल्कुल दुश्मन मानते हुए राज्य सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया? क्या वाकई कांग्रेस का यह आरोप सही है कि मौसम ख़राब होने के बाद हेलीकॉप्टर छोड़ कर सड़क मार्ग चुनने वाले प्रधानमंत्री अचानक इसलिए लौट गए कि फ़िरोज़पुर में ख़ाली कुर्सियां उनकी राह देख रही थीं?
लेकिन पहले इन सवालों को स्थगित रख एक बात मान लें. प्रधानमंत्री की सुरक्षा के प्रोटोकॉल में चूक हुई है. प्रोटोकॉल यह है कि प्रधानमंत्री का क़ाफ़िला किसी भी सूरत में नहीं रुकना चाहिए- उनके रास्ते को पूरी तरह 'सैनेटाइज़' होना चाहिए. अब इसके लिए एसपीजी ज़िम्मेदार है या राज्य सरकार- यह जांच का विषय है. इस जांच में यह बात भी शामिल होनी चाहिए कि प्रधानमंत्री के दौरे का कार्यक्रम कितने समय पहले बदला और सवा सौ किलोमीटर लंबे सड़क मार्ग से प्रधानमंत्री को फ़िरोज़पुर तक ले जाने का फ़ैसला किसका था?
लेकिन सुरक्षा प्रोटोकॉल में गड़बड़ी के इस पहलू को बीजेपी नेताओं ने बिल्कुल अतिनाटकीय आयाम दे डाले. प्रधानमंत्री के 'अपने मुख्यमंत्री को धन्यवाद बोलना' वाले बयान के बाद स्मृति ईरानी ने इसे 'कांग्रेस की ख़ूनी साज़िश' क़रार दिया और दावा किया कि कांग्रेस मोदी से नफ़रत करती है और प्रधानमंत्री से हिसाब ले रही है. अब प्रधानमंत्री के प्राणों की रक्षा के लिए महामृत्युंजय जाप हो रहा है- यह जाप करने वालों में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी शामिल हैं. वैसे महामृत्युंजय जाप जिन स्थितियों में करने का नियम है, उनमें राज्य या संपदा के जाने का अंदेशा भी शामिल है और धार्मिक कार्यों से विमुख होने का पाप भी.
बहरहाल, प्रधानमंत्री की सुरक्षा में लगी सेंध और उसके बाद बताए जा रहे ख़तरे पर लौटें. ऐसा पहली बार नहीं है कि किसी प्रधानमंत्री या महत्वपूर्ण नेता को भीड़ की वजह से रुकना पड़ा हो. लौह नेता कहलाने वाली इंदिरा गांधी की तो भीड़ से कई बार झड़प होती रही. फिल्मकार राजेश चेटवाल ने आज ही मुझे न्यूयॉर्क हेराल्ड ट्रिब्यून की एक कतरन भेजी है. 8 फरवरी 1967 की इस रिपोर्ट के मुताबिक प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर भुवनेश्वर की एक सभा में पत्थर फेंके गए. उनको चोट पहुंची, उनका होंठ कट गया, लेकिन इंदिरा गांधी मंच से हटने को तैयार नहीं हुईं. उन्होंने पलट कर सभा से पूछा कि क्या आप ऐसे ही लोगों को वोट करेंगे? इंदिरा गांधी ने उस सभा में जान पर ख़तरे की बात नहीं कही, लोकतंत्र पर ख़तरे की बात कही- कहा कि ऐसे लोगों को वोट न दें.
नेहरू से मनमोहन सिंह तक ऐसी मिसालें अनेक हैं. यह बात सर्वज्ञात है कि दिल्ली में चल रहे दंगों के दौरान एकाधिक बार पंडित नेहरू सड़क पर आकर दंगाइयों को रोकने का काम करते रहे. उनको मालूम था कि उनके उतरने का मतलब क्या है. पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को स्वर्ण मंदिर से लेकर जेएनयू तक विरोध प्रदर्शन झेलने पड़े. उन्होंने कहीं जान बच जाने की बात नहीं कही. भारतीय लोकतंत्र की देह तो जैसे विरोध-प्रदर्शनों के दौरान ही बनी है. आज़ादी की लड़ाई के सबसे बड़े योद्धा महात्मा गांधी तो जैसे लगातार हमलों से घिरे रहे. 30 जनवरी से पहले 20 जनवरी 1948 को भी उनकी सभा में बम फटा था. उन्होंने कहा- डरो नहीं, बैठे रहो. यह मृदु शांत आवाज़ आप चाहें तो अब भी यू ट्यूब पर सुन सकते हैं.
प्रधानमंत्रियों को छोड़ दें. जयप्रकाश नारायण जैसे नेता ने लाठियां खाईं, जेल झेली, कभी यह नहीं कहा कि उनकी जान जा सकती है. बल्कि एक तरह से जान दांव पर लगाकर उन्होंने लोकतंत्र की रक्षा की. दोनों में कोई तुलना नहीं है, लेकिन इस सिलसिले में प्रियंका गांधी को भी याद किया जा सकता है. पिछले दिनों प्रियंका गांधी के साथ जिस तरह की खींचतान हुई, उसके बाद वे भी प्रधानमंत्री को धन्यवाद दे सकती थीं कि धक्कामुक्की के बावजूद उनकी जान बच गई.
यह भी छोड़ दें कि कब किसने क्या कहा. फिर दुहराने की ज़रूरत हो रही है कि हमारे मौजूदा प्रधानमंत्री भी बहुत सारे आंदोलनों में शामिल रहे हैं, वे संपूर्ण क्रांति आंदोलन से लेकर राम मंदिर आंदोलन तक की यात्रा करते देश के प्रधानमंत्री बने हैं. उनको तो भली-भांति पता होगा कि विरोध प्रदर्शनों और हमलों में क्या अंतर होता है? फिर ऐसा क्या हुआ कि अचानक उनको कुछ अफ़सरों को यह बताना पड़ा कि उनकी जान बच गई?
यहां से एक चिंताजनक सवाल पैदा होता है. क्या प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी जनता से दूर होते चले गए हैं? उनकी चुनावी कामयाबी यह नहीं कहती. बीजेपी में वे अगर अकेले नहीं तो सबसे बड़े वोट जुटाऊ नेता हैं. उनकी लोकप्रियता में शक नहीं है. लेकिन किसी नेता का लोकप्रिय होना इस बात का सबूत नहीं होता कि वह जनता से भी उसी तरह जुड़ा है. लोकप्रियता का आधार कई बार धारणाएं भी होती हैं. जिसे राजनीति में व्यक्ति पूजा कहते हैं, दरअसल वह यही चीज़ है. लोग एक छवि को पूजने लगते हैं, व्यक्ति और उसकी वास्तविकता- दोनों दूर होने लगते हैं. 1971 के युद्ध के बाद भारत में इंदिरा गांधी और बांग्लादेश में शेख मुजीबुर्रहमान दोनों इस नियति के शिकार हुए और दोनों की परिणतियां अपने-अपने ढंग से त्रासद रहीं. भारत में आपातकाल आया और बांग्लादेश में खुद बंग बंधु की लाश पर सैन्य शासन. भारत में लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं तब भी इतनी मज़बूत थीं कि भारत फिर लोकतंत्र की राह पर लौट आया, जबकि बांग्लादेश को तानाशाही का एक लंबा सफ़र तय करना पड़ा. चाहें तो याद कर सकते हैं कि उन दिनों इंदिरा गांधी भी साज़िश के संदेह से घिरी रहती थीं.
क्या प्रधानमंत्री मोदी के साथ ही यह प्रक्रिया शुरू हो गई है? जो आम सुरक्षा की चूक है, उसे बीजेपी साज़िश साबित करने पर तुली है. ख़ुद प्रधानमंत्री की जो बात सामने आई है, उससे लगता है कि उन्हें भी कुछ ऐसा लग रहा है. जाहिर है, यह भी व्यक्ति पूजा का ही एक विडंबनामूलक नतीजा है. प्रधानमंत्री की जान पर ख़तरे की ख़बर के साथ देश के अलग-अलग हिस्सों में जैसे कर्मकांडी तमाशे शुरू हो गए हैं, उससे भी इसकी पुष्टि होती है.
यह ठीक है कि प्रधानमंत्री का रास्ता नहीं रोका जाना चाहिए था. लेकिन प्रधानमंत्री का रास्ता किन लोगों ने रोका था? इस देश के नागरिकों ने- जो पिछले कई दिनों से लगातार आंदोलनरत थे. क्या ये नागरिक देश के दुश्मन हैं? क्या प्रधानमंत्री इन्हें देश का दुश्मन मानते हैं? क्या वाकई उन्हें लगता है कि ये लोग उनकी जान लेने आए थे और इनसे बच कर वे निकल गए? दुर्भाग्य से अपने विरोधियों के प्रति मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान की यही भाषा होती जा रही है. दिल्ली की सरहदों पर चले किसान आंदोलन के दौरान आंदोलनकारियों को नक्सली, ख़ालिस्तानी और गद्दार कहा गया. इसके पहले नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध में चल रहे बिल्कुल शांतिपूर्ण- बल्कि लोकतंत्र को नई गरिमा देने वाले- आंदोलन को भी ऐसी ही संज्ञाओं से नवाज़ा गया. और तो और, नोटबंदी के बाद के माहौल की शिकायत करने वालों और टीकाकरण पर सवाल उठाने वालों को भी देशद्रोही ही बताया गया.
जनता द्वारा चुनी हुई सरकारों के जनविरोधी होते जाने का यह इकलौता उदाहरण नहीं है. और ऐसे तमाम मामलों में जनता सरकारों को नहीं, सरकारें जनता को ख़ारिज करती हैं. वे जनता द्वारा मिले विराट बहुमत का हवाला देते हुए धीरे-धीरे नागरिक अधिकारों का भी अपहरण करना शुरू करती हैं. यह अनायास नहीं है कि संवाद की अहमियत समझने वाले प्रधानमंत्री ने इन तमाम वर्षों में लगातार मन की बात की और देश को एकाधिक बार संबोधित किया लेकिन कभी खुले संवाद के लिए नहीं आए. क्या यह अपने विशिष्ट होने का भाव है जो उनको बाक़ी जनता को हेय समझने या उससे संवादविमुख होने को प्रेरित करता है?
कल से बीजेपी यह याद दिला रही है कि प्रधानमंत्री किसी एक दल के नहीं, देश के प्रधानमंत्री हैं. वे सबके नेता हैं. कांग्रेस भी यह बात बार-बार दुहरा रही है कि प्रधानमंत्री सबके हैं और उनकी सुरक्षा में कोई कसर नहीं होनी चाहिए. लेकिन दुर्भाग्य से जैसे प्रधानमंत्री ख़ुद इस बात को भूलते नज़र आते हैं. वे जैसे हमेशा चुनावी भाषण देते रहते हैं. अयोध्या पर फ़ैसला आता है तो वे राम मंदिर का शिलान्यास करने चले जाते हैं लेकिन यह नहीं पूछते कि मस्जिद का क्या हो रहा है और यह नहीं बताते कि वे उसका भी शिलान्यास या उद्घाटन करने को तैयार हैं या नहीं. अगर वे इस देश के प्रधानमंत्री हैं तो उनको सबके दुखों पर फाहा रखना चाहिए, सबकी खुशी में शामिल होना चाहिए. लेकिन धीरे-धीरे जैसे वे ख़ुद को बहुसंख्यक तबके का प्रधानमंत्री साबित करने में लगे हुए हैं. यह अनायास नहीं है कि धीरे-धीरे हमारे समाज में एक टूटन बढ़ रही है, नफ़रत और हिंसा की भाषा बढ़ रही है और ऐसी भाषा बोलने वाले प्रधानमंत्री के मंत्रिमंडल को सुशोभित कर रहे हैं या फिर प्रधानमंत्री उन्हे सोशल मीडिया पर फॉलो करते नज़र आ रहे हैं.
हिंसा और टूटन के इस माहौल में ही किसी को लग सकता है कि हर विरोध प्रदर्शन खूनी और जानलेवा साजिश है. लेकिन सच बस इतना है कि इस माहौल में प्रधानमंत्री की जान को ख़तरा हो या न हो, हमारे लोकतंत्र की जान ख़तरे में ज़रूर है. बेशक, इससे उबरने का रास्ता भी लोकतंत्र को और इस देश की जनता को खोजना होगा- और वह रास्ता अंततः चुनाव की गली से ही जाता है.
लोकतंत्र इस बात से नहीं बचता कि प्रधानमंत्री के आसपास सुरक्षा का घेरा कितना बड़ा है और उनके आने-जाने के रास्ते के सारे अवरोध दूर किए जाते हैं या नहीं, लोकतंत्र इस बात से ज्यादा बचता है कि वह आदमी कितना सुरक्षित है जो किसी आवेश में प्रधानमंत्री का गिरेबान पकड़ ले. आज़ादी की जो कसौटी अचानक नेहरू ने निर्धारित की थी, वह एक बड़ी कसौटी है जिसे हमें भूलना नहीं चाहिए.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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