पिछले दिनों देहरादून में अपने बेटे से फ़्लैट में हमने देखा कि उसकी मेज पर एक उजला टेबल लैंप रखा हुआ है. हमें कुछ संतोष और अभिमान हुआ. यह टेबल लैंप हिंदी की प्रख्यात लेखिका कृष्णा सोबती ने हमें उपहार में दिया था. हमने इसे अपने बेटे के पास भेज दिया- इस प्रतीकात्मक उम्मीद के जादू से वशीभूत कि यह लैंप उसको कृष्णा सोबती के हिस्से की कुछ रोशनी देगा.
आज सुबह-सुबह एक बिलखती आवाज़ ने बताया कि कृष्णा सोबती नहीं रहीं. उन्होंने सफ़दरजंग के एक अस्पताल में आख़िरी सांस ली. यह अस्पताल पिछले कुछ दिनों में उनके दूसरे घर की तरह हो गया था. बीते साल जिस दिन उन्हें ज्ञानपीठ सम्मान देने की घोषणा हुई थी, तब भी वे अस्पताल जाने की तैयारी कर रही थीं और जिस दिन उनका आयोजन हुआ, उस दिन भी वे अस्पताल में ही थीं.
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लेकिन अस्पताल की इस आवाजाही से यह अनुमान लगाना बिल्कुल गलत होगा कि कृष्णा सोबती कहीं से लाचार या कातर थीं. 94 बरस की इस अप्रतिम हिंदी लेखिका की अपनी शारीरिक परेशानियां रही होंगी, उम्र का कुछ दबाव रहा होगा, लेकिन मन से वे पूरी तरह स्वस्थ थीं और ख़ुश भी. जो जीवट उनके साहित्य का बीज शब्द रहा, दरअसल वही उनके जीवन का भी मूल मंत्र था. वे अपनी नायिकाओं की तरह दिलेर थीं. उनकी नायिकाएं जिस हाल में हों, कभी 'पीड़ित' या 'शिकार' होने की कुंठा उनके भीतर नहीं दिखती. जीवन उनके लिए अपनी ज़िद पर अमल का नाम है. वे बेख़ौफ़, बेधड़क, रूढ़ियों की परवाह न करने वाली औरतें हैं जो यथास्थिति को बार-बार चुनौती देती हैं, जीवन को उसकी दी हुई शर्तों पर मंज़ूर नहीं करतीं, उसे अपने ढंग से बदलने का जतन करती हैं.
सरदारी से पिटती हुई मित्रो कहीं से लाचार नजर नहीं आती, वह अपनी दैहिकता के ताप का निःसंकोच ज़िक्र करती है, सरदारी लाल के दोस्तों के साथ खुल कर गप करती है, और अपनी सास और देवरानियों को भी जब तब याद दिला देती है कि वह उनके उलाहनों और उनकी तोहमतों के पार है. बेशक, ये नायिकाएं कई बार एक हद तक जाकर लौट भी आती हैं, लेकिन यह लौटने का फ़ैसला भी उनका ही होता है। यह जीवट उन्हें जुझारू बनाता है, सुंदर बनाता है और जाने-अनजाने एक छूटी हुई लड़ाई का सिपाही बनाता है. 'डार से बिछुड़़ी', 'ज़िंदगीनामा' 'ऐ लड़की', 'सूरजमुखी अंधेरे के' से लेकर 'समय सरगम' और पाकिस्तान गुजरात से हिंदुस्तान गुजरात' तक उनके कई उपन्यास, 'हम हशमत' जैसी उनकी संस्मरणात्मक किताबें- सब इस जीवट, जुझारूपन और गर्मजोशी का आईना हैं.
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हिंदी साहित्य में आज बहुत सी लेखिकाएं हैं. स्त्री लेखन और स्त्री विमर्श जैसे एक विस्फोट की तरह हमारे सामने है. लेकिन यह स्थिति अनायास नहीं बनी है. इसके स्रोत भी जिन कुछ लोगों के लेखन तक जाते हैं, उनमें कृष्णा सोबती अहम रहीं. वे जिस दौर में लिख रही थीं, वह मूलतः पुरुष लेखकों का दौर था- उस लेखन में मध्यवर्गीय जीवन की बहुत सारी कशमकश थी लेकिन स्त्रियों की जगह नहीं थी या थी भी तो पुरुषों द्वारा निर्मित छवि के आसपास थी. तब बहुत कम लेखिकाएं रहीं जिन्होंने अपने समय के लेखकों के बीच अपनी अलग पहचान बनाई. महादेवी वर्मा और सुभद्रा कुमारी चौहान जैसी कवयित्रियों के बाद- ख़ास कर गद्य लेखन में- कृष्णा सोबती और मन्नू भंडारी को इस सिलसिले की प्रारंभिक कड़ियों में गिना जा सकता है. इन दो लेखिकाओं ने अपने समय के कथाकारों- राजेंद्र यादव, कमलेश्वर, मोहन राकेश, भीष्म साहनी, निर्मल व्रर्मा आदि को शोहरत के स्तर पर लगभग बराबरी की टक्कर दी. बाद में मृदुला गर्ग, ममता कालिया, उषा प्रियंवदा, चित्रा मुदगल और नासिरा शर्मा जैसी लेखिकाओं ने इस परंपरा को और पुख़्तगी दी. बेशक, कृष्णा सोबती के विपुल विराट लेखन की छाया पूरे हिंदी साहित्य और समाज पर पड़ी. अचानक वे शोख, बेबाक और ज़िद्दी नायिकाएं आम हो गईं जिनकी कहानियां कहने से लोग बचते थे.
वैसे स्त्री-स्वातंत्रय या बराबरी के ये वैचारिक सूत्र कृष्णा सोबती के लेखन में किसी शून्य से नहीं आए थे या किसी इकलौती ज़िद की तरह मौजूद नहीं थे, वे एक समग्र वैचारिकता का हिस्सा थे जिसमें आज़ाद भारत की संस्कृतिबहुलता और बराबरी के आदर्श की भी जगह थी. लाहौर में पढ़ी और दिल्ली को अपना ठिकाना बनाने वाली कृष्णा सोबती को विभाजन की तकलीफ़ मालूम थी और यह बात समझ में आती थी कि राजनीतिक या सांप्रदायिक कट्टरताएं मनुष्यता से अपनी कितनी बड़ी क़ीमत वसूल करती हैं. यही वजह है कि हाल के दिनों में बढ़ती सांप्रदायिकता और असहिष्णुता के विरुद्ध इस उम्र में भी आवाज़ उठाने में उन्होंने कोताही नहीं की.
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94 साल की उम्र में उन जैसे जीवट की कल्पना करना मुश्किल है. वे जब भी मिलतीं, बहुत उत्साह से मिलतीं, अपनी तकलीफ़ों की नहीं, देश और दुनिया की बात करतीं. उनके लिए मौजूदा दौर के राजनीतिक हालात बहुत अहमियत रखते थे. उनको लगता था कि उनकी कल्पनाओं का हिंदुस्तान यह नहीं है जो बनाया जा रहा है. करीब दो साल पहले जब मैं उनसे मिलने गया था तो उन्होंने बहुत शिद्दत से इन सब पर बात की. हम बस अभिभूत यह देखते रहे कि नब्बे पार की यह लेखिका मानसिक तौर पर कितनी चुस्त-दुरुस्त है.
आज सुबह मेरी जनसत्ता के पूर्व संपादक और बुद्धिजीवी ओम थानवी से बात हुई. वे याद कर रहे थे कि बीमारी के इन दिनों में भी उन्होंने अपनी उत्फुल्लता का दामन नहीं छोड़ा था. थानवी जी ने बताया कि कुछ दिन पहले जब वे बाहर थे और कृष्णा सोबती से मिल नहीं पाए तो कृष्णा जी का मोबाइल पर रिकॉर्ड किया हुआ एक संदेश उन्हें मिला- आपके बिना दिल्ली कुछ कम दिल्ली लग रही है.
मुझे खयाल आया- कृष्णा सोबती के बिना भी दुनिया कुछ दुनिया हो गई है, हिंदी कुछ कम हिंदी हो गई है और दिल्ली कुछ कम दिल्ली रह गई है.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...
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