बिलासपुर में नसबंदी के दौरान हुई त्रासदी के दिल तोड़ने वाले ब्योरों के बीच यह बात भी सामने आ रही है कि इस अभियान में कई बैगा महिलाओं की भी नसंबदी करा दी गई, जबकि वे संरक्षित समुदाय हैं और उनकी नसबंदी पर रोक है।
हम अभी तक इस बात के पहले सिरे को ही थामे हुए हैं कि डॉक्टरों और गांवों में काम करने वाली स्वास्थ्यकर्मियों ने कितनी लापरवाही दिखाई है और कैसे विलोप के ख़तरे से जूझ रहे एक समुदाय की एक महिला से उसकी प्रजनन क्षमता छीन ली है।
हालांकि इस बात का दूसरा सिरा कहीं ज़्यादा मार्मिक है। बैगा महिलाओं को नसबंदी कराने की इजाज़त क्यों न हो? क्या बैगा समुदाय इसलिए घटते चले गए कि वे नसबंदी करा लिया करते थे? और क्या नसबंदी न कराने से उनकी तादाद बढ़ती चली जाएगी?
जाहिर है हमारे कल्पनाशून्य सरकारी तंत्र को बैगाओं के संरक्षण का सबसे आसान तरीक़ा यही सूझा कि उनकी नसबंदी पर रोक लगा दी जाए। अब किसी बैगा महिला के तीन या चार बच्चे हो जाएं और फिर वह वाकई नसबंदी कराना चाहे तो उसको विशेष इजाज़त लेनी होगी। और जब तक यह इजाज़त नहीं मिलती उसे बच्चे पैदा करते रहना होगा, ताकि उसकी नस्ल ख़त्म न जाए।
यह बड़ी त्रासद स्थिति है− जैसे हम बैगा आदिवासियों को इंसान नहीं जानवर समझते हों। उन्हें यह हक़ भी देना नहीं चाहते हों कि वे अपने बच्चे पैदा करने या न करने का फ़ैसला कर सकें। बैगा या हमारे दूसरे आदिवासी समुदायों को अगर संरक्षण की नौबत आई है तो दरअसल इसी नज़रिए की वजह से। ख़ुद को मुख्यधारा का प्रतिनिधि मानने वाला भारत का सत्ता प्रतिष्ठान आदिवासियों के सहज−सामूहिक और जंगल पर आधारित जीवन से बेख़बर या बेपरवाह रहा है और उन्हें उजाड़ने में उसने कोई कसर नहीं छोड़ी है। वे जैसे इंसान नहीं विकास की बलि वेदी पर चढ़ाए जाने वाले पशु हों या फिर विकास के चक्के को खींचने वाले बैल। उनके खेत और जंगल छीन कर हमने उद्योग बिठाए, सड़कें बनाई, हवाई अड्डे बनाए, खदानें खोदीं, उन्हें बड़ी कंपनियों को लीज़ पर दे दिया और जब समझ में आया कि जंगल ख़तरे में है तो वन कानून बनाकर आदिवासियों के वहां दाखिल होने तक पर रोक लगा दी।
इस देश का आदिवासी नसबंदी करा लेने की वजह से कम नहीं हो रहा है, बल्कि इसलिए घट रहा है कि हमने उसके जीने के साधन उससे छीन लिए हैं। उसे उसके जंगलों और खेतों से निकाल कर शहरों में रिक्शा खींचने से लेकर दूसरी तमाम तरह की दिहाड़ियां करने को मजबूर कर दिया है।
कभी खेतों और जंगलों में अपने मर्दों से कंधे से कंधा मिलाकर काम करने वाली आदिवासी औरतें अब महानगरों के आलीशान घरों में काम वाली की नई पहचान के साथ खटती रहती हैं और आधुनिक भारतीय मध्यवर्ग की लड़कियों की आर्थिक आज़ादी की सहूलियत जुटाती हैं। ये कहानी भी उन लोगों की है जिनकी क़िस्मत सबसे अच्छी है, वरना इससे भी बुरी नियति आम तौर पर बहुत सारी महिलाओं को झेलनी पड़ती है।
ऐसा नहीं कि आदिवासियों को विकास नहीं चाहिए, लेकिन हम विकास की बात करते हैं तो दरअसल अपने लिए करते हैं जिसमें आदिवासी को सिर्फ उजड़ना होता है। वैसे ये हालत सिर्फ़ आदिवासियों की नहीं सारे ग़रीबों की है। हालांकि इस गरीबी का बहुत बड़ा हिस्सा आदिवासियों−दलितों और पिछड़ों से बनता है। सरकारें इनमें से किसी की बहला−फुसला कर नसबंदी कराती हैं और किसी की नसबंदी रोक देती हैं। जब बिलासपुर जैसी त्रासदी घट जाती है तो उसकी भी सज़ा इन्हीं गरीबों में से कुछ लोगों को मिल जाती है− मसलन ताज़ा मामले में उन परिचारिकाओं को मिलेगी जिन्होंने बैगा या दूसरी गरीब महिलाओं पर नसबंदी के लिए दबाव बनाया। यह गरीबों के साथ सत्ता प्रतिष्ठान का वह बहुत बारीक खिलवाड़ है, जिसकी सज़ा किसी को नहीं मिलेगी।
This Article is From Nov 17, 2014
प्रियदर्शन की बात पते की : हम आदिवासियों को समझते क्या हैं?
Priyadarshan
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Updated:नवंबर 19, 2014 15:33 pm IST
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Published On नवंबर 17, 2014 20:33 pm IST
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Last Updated On नवंबर 19, 2014 15:33 pm IST
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