पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की जीत से बहुलतावादी और समतावादी लोकतंत्र पर भरोसा रखने वालों के बीच जश्न का माहौल है. जिन धार्मिक प्रतीकों के सहारे भारतीय जनता पार्टी उत्तर भारत के राजनैतिक मैदानों को जीतती रही, वे बंगाल आकर बदल गए. वहां की सभाओं में लगाए जाने वाले जय श्रीराम का नारे नहीं चले, ममता बनर्जी का चंडी-पाठ चल गया. दुर्गा और काली की पूजा करने वाले बंगाल ने ममता बनर्जी के भीतर की महिषासुरमर्दिनी को ज़्यादा सम्मान दिया.
लेकिन यह रूपक क्या भारतीय राजनीति की उन गुत्थियों और चुनौतियों का सामना करने में हमारी कुछ मदद कर सकता है जो अब भी हमारे सामने खडी हुई हैं और जिनका हल हम खोज नहीं पा रहे? निस्संदेह ममता की जीत का एक संदेश तो यह है कि प्रतीकों की राजनीति को बदला भी जा सकता है. जो लोग ख़ुद को राम और हनुमान का उपासक बताते नहीं थकते थे, उनकी अपनी आक्रामकता ने उनकी छवि राक्षसों जैसी कर दी. इस अवसर पर तुलसीदास याद आते हैं जो ‘रामचरितमानस' में राम की सादगी में छुपे शौर्य का अद्भुत वर्णन करते हैं. हर तरह के छल-बल से सज्जित अपनी विराट सेना के साथ और हर तरह आयुध से लैस अपने रथ पर सवार मायावी रावण जब सामने आता है तो व्याकुल विभीषण कह बैठते हैं- रावण रथी विरथ रघुवीरा. यहां कवि कहता है कि राम का भी अपना रथ है जिसके चक्के उनके शौर्य और धीरज से बने हैं, जिसकी पताका सत्य और शील से बनी है, उनके अश्व बल और विवेक हैं जो क्षमा, कृपा और समता की डोर से बंधे हैं.
अगर बंगाल के संदर्भ में रावण रथी विरथ रघुवीरा के इस अंश का पाठ किया जाए तो यह समझने में क्षणांश भी नहीं लगता कि बंगाल में जितना अकूत धन-बल, छल-प्रपंच बीजेपी नेताओं ने प्रदर्शित किया, जितना दंभ, अहंकार और उपहास दिखाया, उसके बाद उसके नेता राम की नहीं, रावण की स्मृति जगाते नज़र आ रहे थे. अचानक इसी लहजे ने वह रूपक स्थिर कर दिया जिसमें देवी दुर्गा राक्षसों का संहार करती हैं. मां, माटी और मानुष की स्मृति इस महिषासुरमर्दिनी में एकाकार हो गई.
लेकिन असली सवाल इसी के बाद पैदा होता है? देवी दुर्गा राक्षसों से कब तक बचाएंगी? और ये मायावी राक्षस क्या अगली बार नए देवताओं का वेश धर कर, नए मंदिरों के निर्माण की शपथ लेकर नहीं आएंगे? दरअसल बंगाल के नतीजों को कुछ और तटस्थ होकर देखने की ज़रूरत है. जिस बंगाल में दस साल पहले बीजेपी पांव नहीं रख सकती थी, वहां अब उसके 73 विधायक हैं. और जिस बंगाल में वाम मोर्चे ने लगातार सात चुनाव जीते, वहां इस बार उसका खाता नहीं खुला. यही नहीं, इन तमाम चुनावों में जो कांग्रेस उसकी प्रतिद्वंद्वी बनी रही, वह भी एक विधायक नहीं जुटा पाई.
जाहिर है, ये संकेत बहुत अच्छे नहीं हैं. ममता बनर्जी बीजेपी को इस बार रोक पाई हैं, लेकिन कब तक रोक पाएंगी? जितने नाटकीय ढंग से बंगाल ने पिछले दस बरस में राजनीतिक बदलाव देखे हैं, उनके हिसाब से अभी वोटों का दस फ़ीसदी का जो दिख रहा अंतर है, उसे कोई भी एक लहर कभी भी साफ़ कर सकती है. इसलिए ममता की इस जीत के बावजूद सांप्रदायिकता के राक्षस के पास अट्टहास लगाने की बहुत सारी वजहें हैं.
ध्यान दें तो साल 2000 के बाद भारतीय राजनीति ने सांप्रदायिक राजनीति के जो धर्मनिरपेक्ष विकल्प खड़े किए थे वे दरअसल अब ध्वस्त होते जा रहे हैं. उन दिनों एक आश्वस्ति लगातार मज़बूत हो रही थी कि अब राज्यों में एक से ज़्यादा ऐसे दल हैं जो बीजेपी की सांप्रदायिक राजनीति से लोहा ले रहे हैं, उसे लगभग अप्रासंगिक बना रहे हैं. उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा, बिहार में आरजेडी-जेडीयू, बंगाल में टीएमसी-लेफ़्ट, आंध्र में कांग्रेस-टीडीपी और बाद में टीआरएस, कश्मीर में पीडीपी-नेशनल कॉन्फ़्रेंस जैसे उदाहरण और भी थे जहां बीजेपी लड़ाई में नहीं थी या पीछे थी. लेकिन धीरे-धीरे लगभग हर जगह वह आगे है. बल्कि जिन जगहों पर वह पहले सहयोगियों की दूसरी नंबर की टीम होती थी, वहां भी अब वह पहले नंबर पर है. महाराष्ट्र में कभी बाल ठाकरे बीजेपी को कमला बाई कहते थे- इस भरोसे के साथ कि बीजेपी वही करेगी, जो वे कहेंगे- लेकिन बीजेपी-शिवसेना का गठबंधन टूटने से पहले वहां वह पहले नंबर की पार्टी हो चुकी थी. बिहार में भी वह नीतीश के पीछे रही, अब नीतीश उसकी कृपा से मुख्यमंत्री हैं. जिस नरेंद्र मोदी के साथ तस्वीर साझा किए जाने पर वे आगबबूला होकर बिहार की बाढ़ में गुजरात की मदद नामंज़ूर कर देते थे, अब उन्हीं की तारीफ़ कर रहे हैं.
इसमें शक नहीं कि बीजेपी विरोधी यह राजनीति इसलिए भी विफल रही कि इसने बिल्कुल तात्कालिक लक्ष्यों पर ध्यान दिया. अगर कांग्रेस, आरजेडी और समाजवादी पार्टी को छोड़ दें तो बाकी सभी दलों ने किसी न किसी समय बीजेपी से हाथ मिलाने में कोई गुरेज नहीं किया, बल्कि उसके साथ मिलकर सरकारें चलाईं.
दूसरी तरफ़ बीजेपी धीरज से अपनी बारी का इंतजार करती रही. संघ परिवार भारतीय परिवारों के भीतर सांप्रदायिकता का ज़हर उतारता रहा और बीजेपी इसके राजनीतिक नतीजों को चुनावी स्तर पर भुनाने का यत्न करती रही. गैरभाजपाई दल इस गफ़लत में पड़े रहे कि वे गठजोड़ करके बीजेपी को रोक ले रहे हैं.
बंगाल में भी हम ऐसी ही गफ़लत के शिकार हो रहे हैं. यह सच है कि बंगाल में बीजेपी ने सरकार नहीं बनाई है, लेकिन ज़्यादा बड़ा सच यह है कि बंगाल में उसने खोया कुछ नहीं, पाया ही पाया है. निस्संदेह यह कामयाबी उसने अकूत साधन और पैसे झोंक कर हासिल की है, लेकिन यह काम वह आगे भी करती रहेगी- यह भी जानी हुई बात है.
तीसरा संकट यह है कि ख़ुद को सांप्रदायिकता विरोधी राजनीति का नुमाइंदा बताने वाली पार्टियों ने ऐसे राजनैतिक और वैचारिक विकल्प नहीं दिए जिनसे लोगों को उन पर भरोसा हो. जिस व्यक्तिवाद का आरोप बीजेपी पर अब लग रहा है वह भारतीय राजनीति का पुराना रोग है और लगभग हर दल में- क्षेत्रीय दलों में तो ख़ास तौर पर- पसरा हुआ है. दिल्ली में बनी आम आदमी पार्टी इस लिहाज से एक बड़ी संभावना हो सकती थी लेकिन कभी वह बीजेपी की बी टीम दिखती है और कभी सदाशय युवाओं की ऐसी टोली जिसमें काम करने और काम आने की इच्छा तो है लेकिन उसकी वैचारिक समझ नहीं है. जो वाम मोर्चा ऐसी बुराइयों से दूर है, वह जैसे भारतीय राजनीति से बाहर होता जा रहा है. वह न ज़मीन पर दिख रहा है और न सोशल मीडिया पर. यह हताश करने वाली सच्चाई है.
इस मोड़ पर कांग्रेस का ख़याल भी काफ़ी निराश और मायूस करता है. यह सच है कि कांग्रेस अब पहले जैसी बड़ी पार्टी नहीं हो सकती. उसको होना भी नहीं चाहिए. लेकिन उसमें इतनी ताकत तो होनी चाहिए कि वह कई क्षेत्रीय दलों को एक सूत्र में पिरो सके, भारतीय लोकतंत्र के संघीय चरित्र के अनुरूप में बड़े गठबंधन वाला राजनीतिक विकल्प दे सके. अगर वह कमज़ोर पड़ती है तो वह गठबंधन भी बिखरता है जो अन्यथा बीजेपी को रोकने में कामयाब होता.
बंगाल में ममता की जीत ने निस्संदेह एक बड़ा काम किया है. बीजेपी और आरएसएस के बेलगाम हो गए मंसूबों को इससे एक झटका मिला है. अगर बंगाल का क़िला ध्वस्त हो जाता तो उसका मनोवैज्ञानिक असर भारतीय राजनीति और समाज पर कैसा पड़ता- इसकी सहज कल्पना की जा सकती है. लेकिन ममता को अब इस जीत को स्थायी बनाने के और जतन करने होंगे. यह सच है कि बंगाल में ममता अब नया ‘वाम' है. बंगाल में वाम मोर्चा इसलिए नहीं हारा कि उसने वामपंथी मूल्यों की लकीर पकड़े रखी, बल्कि वह इसलिए हारा कि उसने नंदीग्राम और सिंगुर जैसी औद्योगिक परियोजनाओं को अपनी विचारधारा से अधिक अहमियत दी. वह भी विकास के उस झांसे में आ गया जिसके नाम पर ढेर सारे अपराध हो रहे हैं. एक बार वाम मोर्चा खिसका तो ममता बनर्जी ने मजबूती से वह जगह पकड़ ली.
दरअसल ममता इसलिए भी दुर्गा दिखती हैं कि वह अभी बंगाल के कमज़ोर और सताए हुए लोगों के साथ खड़ी नज़र आ रही हैं- वे महिलाएं हैं, वे अल्पसंख्यक हैं, वे पिछड़े हैं, वे भद्रलोक से बाहर हैं- लेकिन बंगाल उनका भी है, जैसे बाक़ी भारत उनका भी है. ममता की जीत दरअसल इस अखिल भारतीयता पर भी मुहर है. वे इस संघीय ढांचे में अब पी विजयन और स्टालिन के साथ मिलकर केंद्रीय नेतृत्व की नाक में कुछ और दम कर सकती हैं.
लेकिन दुर्गा अकेली दुर्गा नहीं बनी रह सकती. महिषासुर से लड़ने के लिए दुर्गा ने बाक़ी देवताओं से उनकी शक्तियां अर्जित की थीं. हमारी राजनीति का संकट यह है कि ऐसे देवता ख़त्म होते जा रहे हैं, दैत्य ख़ुद को देवताओं की तरह प्रस्तुत कर रहे हैं. बीजेपी इसलिए भी आश्वस्त होगी. 2021 नहीं तो 2026 में वह इस क़िले को ढहाने की कोशिश करेगी जिसमें वह कामयाब भी हो सकती है. अगर इस कोशिश को कामयाब होने से रोकना है तो बीच में एक और साल आने वाला है- 2024 का, जब लोकसभा चुनाव होने हैं. बंगाल की जीत के बाद पहली बार प्रेस से मुख़ातिब होते हुए ममता ने कहा भी कि वह लड़ाई सबको मिल कर लड़नी होगी. देखें, यह एकजुटता कितनी ताकतवर होती है, दुर्गा को असुरों के सर्वनाश के लिए कितनी शक्तियां मिलती हैं.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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