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This Article is From Jun 26, 2018

इमरजेंसी: क्या भूलें, क्या याद करें, किन-किन ने मांगी माफ़ी?

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जून 26, 2018 16:34 pm IST
    • Published On जून 26, 2018 16:34 pm IST
    • Last Updated On जून 26, 2018 16:34 pm IST
फिल्म 'आंधी' 1975 में बनी थी इमरजेंसी से पहले. फिल्म में सुचित्रा सेन ने एक ऐसी नेता की भूमिका अदा की थी जो अपने पति से अलग रह रही है. बरसों बाद वे मिलते हैं और उनके बीच पुरानी स्मृतियों का रेला बहता रहता है. सुचित्रा सेन का मेकअप काफी कुछ इंदिरा गांधी जैसा था. इमरजेंसी के दौरान यह फिल्म रोक दी गई. लेकिन 1977 में इमरजेंसी खत्म होने के बाद फिल्म फिर से रिलीज हुई और बेहद कामयाब रही. राहुल देव बर्मन ने फिल्म का जो संगीत दिया था, वह आज भी हिंदी फिल्मों के बेहतरीन संगीत की विरासत है. गुलजार के लेखन और निर्देशन की जानी-पहचानी भावुकता को छूती संवेदनशीलता यहां भी मौजूद है.

लेकिन इमरजेंसी और उसकी ज़्यादतियों को याद ऱखने की नसीहत देते प्रधानमंत्री 'आंधी' के सिलसिले को गड्डमड्ड कर बैठे. बताया कि कांग्रेस ने इमरजेंसी के कई साल बाद भी फिल्म को बैन किया. दरअसल उनको यह बताना था कि आपातकाल की मानसिकता आपातकाल खत्म होने के बाद भी कांग्रेस में बची रही. काश कि यह बात साबित करने के लिए वे कोई ज्यादा सही उदाहरण खोजते- जो निस्संदेह उनको आसानी से मिल जाते. क्योंकि यह सच है कि आपातकाल या तानाशाही की मानसिकता वह चीज़ है जो इस देश के लोकतंत्र ने वास्तविक तानाशाही या  आपातकाल से कहीं ज़्यादा झेली है, अब भी झेल रहा है. और यह वह चीज़ है जो सिर्फ कांग्रेस की नहीं, बाकी पार्टियों की भी समान बपौती है.

कांग्रेस में अगर आंतरिक लोकतंत्र नहीं है तो लगभग उन्हीं कसौटियों पर बीजेपी में भी नहीं है. कांग्रेस को वंशवाद पर घेरने वाली बीजेपी यह भूल जाती है कि उसके अपने दल में बेटों-भतीजों की बड़ी कतार राजनीति का मोर्चा संभाल रही है. यशवंत सिन्हा के बेटे जयंत सिन्हा, राजनाथ सिंह और कल्याण सिंह के बेटे, गोपीनाथ मुंडे की बेटियां- यह लिस्ट बहुत बड़ी है. यही स्थिति लगभग तमाम क्षेत्रीय दलों की है. बहरहाल, इमरजेंसी या तानाशाही की मानसिकता पर लौटें. तानाशाही की वैधता के लिए कई तरह के झूठ गढ़ने होते हैं, कई तरह के नकली भरोसे पैदा करने होते हैं. यह भरोसा दिलाना पड़ता है कि तानाशाह जो ज़्यादतियां कर रहा है, वह देशहित में उसकी मजबूरी है. यह बताना पड़ता है कि उससे पहले जो लोग आए, वे लोकतंत्र की पोशाक में कहीं ज़्यादा बड़े हिटलर थे.

अरुण जेटली ने सोमवार के अपने ब्लॉग में यही काम किया. इंदिरा गांधी की तानाशाही को हिटलर की तानाशाही से जोड़ दिया- बस इसी तर्क पर कि दोनों ने प्रेस सेंसरशिप थोपी, विपक्षी नेताओं को गिरफ़्तार किया और दोनों ने संविधान का अपनी तानाशाही के लिए इस्तेमाल किया. लेकिन क्या वाकई हिटलर और इंदिरा गांधी एक ही थे? फिलहाल उनके वैचारिक पक्ष छोड़ दें- यह भूल जाएं कि हिटलर ने सांप्रदायिकता का वह घृणित खेल खेला जो हमारे यहां बहुत सारे लोग खेलने की कोशिश कर रहे हैं, बस यह देखें कि दोनों की तानाशाही के वास्तविक नतीजे क्या रहे. हिटलर ने यहूदियों के नरसंहार का जो सिलसिला शुरू किया, उसके शिकार पूरे यूरोप में 60 लाख यहूदी हुए. 
भारत में आपातकाल के दौरान एक लाख से ज़्यादा लोगों की गिरफ़्तारी की बात कही जाती है. निस्संदेह एक लाख लोगों की गिरफ़्तारी बहुत बड़ी बात है, लेकिन क्या इसकी तुलना 60 लाख लोगों के क़त्ल से की जा सकती है? जो लोग यह तुलना करते हैं, वे दरअसल इतिहास को याद रखने का नहीं, उसके साथ छल करने का काम करते हैं. तानाशाही की मानसिकता क्या होती है? दूसरों पर अपनी राय, अपने फ़ैसले, अपने रंग-ढंग थोपना, बताना कि सिर्फ उसकी प्रस्तावित जीवन-दृष्टि या शैली ही श्रेष्ठ है. जो विरोधी या असहमत हैं, उनके बारे में यह राय बनाना कि वे तो हमेशा से दूसरों के पक्ष में थे. इन दिनों यह प्रवृत्ति अपने शिखर पर है. आप नरेंद्र मोदी की आलोचना करें तो आपसे पूछा जाता है कि आपने नेहरू की आलोचना की थी? आपने इंदिरा गांधी की आलोचना की थी? आपने राजीव गांधी की आलोचना की थी?

यह देखना कम दिलचस्प नहीं होगा कि वे कौन लोग हैं जो इन तमाम लोगों की आलोचना करते हैं और कब-कब कौन लोग किनकी तारीफ़ में पकड़े गए हैं. अब अटल बिहारी वाजपेयी के समर्थक इस बात को झूठ बताते हैं कि उन्होंने इंदिरा गांधी की तुलना दुर्गा से की थी, हालांकि अपने स्वस्थ रहते अटल ने बरसों तक इस बात को ग़लत नहीं बताया, लेकिन नेहरू की मृत्यु पर उन्होंने संसद में जो भाषण दिया था, उसे तो वे ख़ारिज नहीं कर सकते. वह भाषण बताता है कि वाजपेयी नेहरू के किस कदर मुरीद थे.

कह सकते हैं, किसी के जाने पर श्रद्धांजलि का यह लिहाज होता है कि उसकी आलोचना न की जाए. लेकिन हिंदी के जनकवि ने यह लिहाज नहीं रखा था. उन्होंने नेहरू को इन कठोर शब्दों के साथ श्रद्धांजलि दी- 'तुम रह जाते दस साल और/ तन जाता भ्रम का जाल और.' नागार्जुन ने नेहरू को ही नहीं, इंदिरा गांधी तक पर वार किया. लेकिन साथ में ही फासीवादी ताकतो को भी नहीं छोड़ा, 'देवरस दानव रस चूस लेगा मानव रस' या बाल ठाकरे-बाल ठाकरे बर्बरता की खाल ठाकरे' जैसी साहस भरी कविताएं भी उन्होंने ही लिखी. यह सिलसिला और आगे तक जाता है- दूसरे कई लेखकों-पत्रकारों तक मिलता है. आतंकवादियों की गोली खाकर मरने वाले पाश जैसे कवि ने इंदिरा गांधी के निधन और राजीव गांधी के सत्तारोहण को लेकर लिखा था, 'मैंने जीवन भर उसके ख़िलाफ़ लिखा और सोचा है आज अगर उसके शोक में सारा देश शामिल है तो इस देश से मेरा नाम काट दो. मैं उस पायलट की धूर्त आंखों में चुभता हुआ भारत हूं. उसका अपना कोई भारत है तो उस भारत से मेरा नाम काट दो.'

क्या इसके बाद आपकी यह शिकायत बची रहती है कि इस सरकार की आलोचना करने वाले पिछली सरकारों की आलोचना नहीं करते थे? इंदिरा गांधी को जेटली आज हिटलर कहने की हिम्मत कर पाए, नागार्जुन ने उनके रहते उनके 'हिटलरी गुमान' की खिल्ली उड़ाई थी. शायद यह विषयांतर है. मूल विषय पर लौटें. इमरजेंसी के 43 साल पूरे होने पर देश को उसकी याद दिलाने के लिए काला दिवस मना रही बीजेपी को शायद यह याद नहीं है कि इमरजेंसी के 25 साल पूरे होने पर भी उसने कार्यक्रम किए थे. इन दिनों बीजेपी के सांसद रहे सुब्रमण्यन स्वामी ने तब 'द हिंदू' में एक लेख लिखा था. 13 जून 2000 को छपे इस लेख में वे लिखते हैं, 'कम से कम दो वजहों से यह हास्यास्पद है कि वह इमरजेंसी के एलान को याद करने के लिए बैठकों की घोषणा करे, जिसके इस 26 जून को 25 बरस पूरे हो रहे हैं. पहली वजह ये कि 1975 से 1977 के दौरान बीजेपी-आरएसएस के ज़्यादातर लेखकों ने इमरजेंसी के ख़िलाफ़ चल रहे संघर्ष से धोखा किया था. यह महाराष्ट्र विधानसभा की कार्यवाही के रिकॉर्ड में है कि तब आरएसएस प्रमुख रहे बाला साहब देवरस ने पुणे की यरवडा जेल से इंदिरा गांधी को माफ़ी की कई चिट्ठियां लिखीं और आएसएस को जेपी के नेतृत्व वाले आंदोलन से अलग करते हुए 20 सूत्री कार्यक्रम के लिए काम करने की पेशकश की.

इंदिरा गांधी ने एक भी चिट्ठी का जवाब नहीं दिया. अटल बिहारी वाजपेयी ने भी इंदिरा गांधी को माफ़ीनामे लिखे और उन्होंने उन्हें उपकृत किया. दरअसल 20 महीने की इमरजेंसी के ज़्यादातर समय वाजपेयी पैरोल पर रहे जो उन्हें इस आश्वासन पर मिली थी कि वे सरकार के ख़िलाफ़ किसी कार्यक्रम में शामिल नहीं होंगे.' सुब्रमण्यन स्वामी के मुताबिक जेपी आरएसएस के इस धोखे से दुखी थे. इन पंक्तियों का लेखक सुब्रमण्यन स्वामी पर भरोसा नहीं करता. लेकिन आज की तारीख़ में वे बीजेपी के सांसद हैं. क्या जेटली या मोदी जी को ऐसा कोई इतिहास याद है? 

पत्रकारों से झुकने को कहने पर उनके रेंगने लगने पर चुपचाप ताना कस देने वाली बीजेपी क्या आरएसएस या अपने विरुद्ध कही जा रही इस बात का खंडन करती है? तानाशाही की मानसिकता का एक लक्षण यह भी होता है, जिस बात का जवाब न हो, उसे भूल जाओ, गोल कर जाओ. इमरजेंसी को याद करना जरूरी है. यह भी याद करना जरूरी है कि तब किन लोगों ने संघर्ष किया और किन लोगों ने घुटने टेके. और उससे ज़्यादा यह याद करना ज़रूरी है कि इमरजेंसी वाले तौर-तरीक़े अब कौन हैं जो अख़्तियार कर रहे हैं. 

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...

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