दिल्ली के साकेत कोर्ट में एक महिला वकील के साथ बलात्कार का मामला सामने आया है. आरोपी वकील ही है और घटना कोर्ट परिसर में हुई है. वकील गिरफ्तार है और उसका चेंबर सील है. मैं इसका ज़िक्र इसलिए नहीं कर रहा क्योंकि किसी रिपोर्ट में भारत को महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित जगह बताया गया है. मैं इसलिए भी नहीं कर रहा कि कुछ लोग अपनी भड़ास निकालने आ जाएं कि इन सबको चौराहे पर फांसी दे देनी चाहिए. दरअसल मैं इसीलिए कह रहा हूं, क्योंकि फांसी-फांसी करके हमने हासिल कुछ नहीं किया. कई राज्यों ने फांसी की सज़ा जोड़ दी मगर हमारे समाज में औरतों के प्रति क्रूरता का अंत नहीं हुआ. अंत छोड़िए, लगता नहीं कि ऐसी घटनाएं कम हो रही हैं. आए दिन ऐसी घटना ज़रूर हो जाती हैं जो पिछली घटना से ज़्यादा क्रूर होती है.
13 जुलाई की रात इस जगह पर एक महिला बलात्कार के बाद आग में झोंक दी गई. यहां जिस महिला की राख है वो जब ज़िंदा थी तब अपनी छोटी बेटी के साथ थी. तभी पांच लोग आए और उसे अगवा करके ले गए. उसके साथ उन पांचों ने बलात्कार किया और वहीं पर छोड़ दिया. उनके जाने के बाद महिला पुलिस को 100 नंबर डायल करती रही मगर किसी ने नहीं उठाया. पति को फोन मिलाया मगर नहीं मिला. भाई सतीश को नंबर लगाया लगा तो सारी बात बता दी. इस बीच अपराधी फिर लौटकर आए और महिला को वहां से उठाकर ले गए. मंदिर के पास पुजारी की इस कोठरी में महिला को जलती आग में झोंक दिया. उसकी चीख किसी ने नहीं सुनी, वो जलकर मर गई. सतीश ने बताया कि जब वह आधी रात बाद पहुंचा तो देखा कि बहन जल रही थी और वहां उनकी सास बैठकर रो रही थी. उस वक्त आग जल रही थी, जिसे सतीश ने ही बुझाया.
सतीश ने बताया कि पुजारी की कोठरी खाली थी. पुजारी बाहर चला गया था. इसका फायदा उठाकर अपराधी महिला को वहां ले गए और जला दिया. मंदिर के पुजारी की कोठरी का ज़िक्र इसलिए नहीं किया है कि कोई फिर से सोशल मीडिया पर मंदसौर जैसी घटना के बहाने हिन्दू-मुस्लिम करना शुरू कर दे. यह घटना पुजारी की कोठरी के अलावा भी कहीं हुई होती तो भी क्रूर है और हम सबको शर्मसार करने के लिए काफी है. आप तो अपने घरों में बैठे हैं मगर इस जगह पर जमा इन औरतों के बारे में एक पल के लिए सोचिए, वो कैसे भीतर तक सहम गई होंगी, उनके पास शायद हमारे आपके जैसे शब्द नहीं होंगे, निंदा करने के, प्रतिकार करने के, सहते रहने के शब्दों के अलावा.
ठीक ऐसी घटना इसी साल मई के महीने हो चुकी है. झारखंड के चतरा में 18 साल की एक लड़की के साथ बलात्कार के बाद जब परिवार वालों ने पंचायत से शिकायत की तो पंचायत ने अपराधियों को पुलिस के हवाले नहीं किया उन पर जुर्माना लगाया. अपराधियों ने पंचायत का फरमान मानने से इंकार कर दिया और घर में घुस कर आग लगा दी और लड़की जल कर मर गई. इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है यह बहस के केंद्र में है भी और नहीं भी है. दरअसल भारत के मर्द दुनिया के सबसे निर्दोष प्राणी हैं. वे किसी भी चीज़ के लिए ज़िम्मेदार नहीं हैं, क्योंकि कानून के राज ने उनका सही से इलाज कभी नहीं किया. समाज और राजनीति ने उन्हें हमेशा ही सर पर चढ़ाकर रखा है. ठीक से इलाज हुआ होता तो दिल्ली की एयरहोस्टेस अनिसिया को छत से कूदकर जान नहीं देनी पड़ती. जून महीने में ही उनके पिता ने थाने में शिकायत दर्ज कराई थी कि अनिसिया का पति दहेज के लिए प्रताड़ित करता है. अनियिसा का दोबारा पोस्टमॉर्टम किया गया है. इस घटना को पढ़ते समय यही सोच रहा था कि आज की लड़कियां अपने मुल्क और समाज के बारे में क्या सोचती होंगी,
कर्नाटक के बीदर में गूगल में काम करने वाले इंजीनियर मोहम्मद आज़म अहमद की कार उल्टी पड़ी है. इसके चारों तरफ भीड़ खड़ी है. भीड़ पुलिस के साथ झगड़ा कर रही है कि उल्टी पड़ी गाड़ी से घायलों को न निकाले क्योंकि इसमें बच्चा चोर हैं. ये चार लोग मुस्लिम बहुल इलाके में किसी बच्चे को चॉकलेट बांट रहे थे, तभी मनोर कुमार ने कथित रूप से इनकी तस्वीर लेकर व्हाट्सएप पर डाल दिया कि ये बच्चा चोर हैं. बस वहां भीड़ पहुंच गई. ये चारों अपनी इस लाल कार में भागने लगे जो यहां उल्टी पड़ी है. हमारे सहयोगी निहाल किदवई का कहना है कि पुलिस पोस्टमॉर्टम की रिपोर्ट का इंतज़ार है तभी पता चलेगा कि मोहम्मद आज़म को भीड़ ने मारा है या भागते हुए उनकी कार दुर्घटनाग्रस्त हो गई, जिसके कारण उनकी मौत हुई है. आज़म के दो साथी अभी भी अस्पताल में हैं और एक को छोड़ दिया गया है. भीड़ इन्हें पकड़कर पुलिस के हवाले भी कर सकती थी मगर घेरकर मार देने की सनक कहां से पैदा हो रही है, इस पर आप जल्दी ही गहराई से सोचें, वर्ना यह वही सनक है जो एक महिला को बलात्कार के बाद जला देती है और व्हाट्सएप देखने के बाद किसी को घेर कर मार देती है.
हर तरफ भीड़ काम पर है. वह कब किस अफवाह के आधार पर किसे घेर लेगी और मार देगी पता नहीं. हमारे सहयोगी श्रीनिवासन जैन की 'Truth vs Hype' में इस बात की पड़ताल की गई है कि ऐसी अफवाहों के पीछे सिर्फ व्हाट्सएप नहीं है, बल्कि स्थानीय स्तर पर मीडिया भी ऐसी अफवाहों को खबर के रूप में छाप देता है, जिसके कारण लोगों के बीच उसकी विश्वसनीयता बढ़ जाती है. श्रुति मेनन की धुले से रिपोर्ट बताती है कि राशिद नाम के व्यक्ति ने इस तरह की अफवाह का वीडियो कैप्सूल बनाकर मीडिया लाइव चैनल पर चलाया था, जिसमें ऐसी सूचना पुलिस को देने की बात कही गई थी. झारखंड से भी यही खबर है कि ऐसी खबरें स्थानीय अखबारों में छपी हैं.
यूपी के हापुड़ में कासिम को जिस भीड़ में घेर कर मारा उसमें ज्यादातर बच्चे और किशोर ही दिखते हैं. इन तक अफवाह पहुंची कि इन्होंने गाय को मार दिया है. बाद में कासिम को घसीटकर ले जाती पुलिस की यह तस्वीर भी सामने आई, जिसके लिए यूपी पुलिस ने माफी मांगी थी. पुलिस ने इस मामले में 4 लोगों को गिरफ्तार किया है. युधिष्ठिर सिंह सिसोदिया को मुख्य अभियुक्त बनाया गया है. वैसे 18 दिनों बाद वह ज़मानत पर बाहर भी है और अपने घर में है. इतनी आसानी से बेल मिलने को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं. पुलिस ने इस मामले में सांप्रदायिक झगड़े का ज़िक्र नहीं किया है. पुलिस ने मोटरसाइकिल को लेकर झगड़ा बताया है. लेकिन कासिम के साथ सैमुद्दीन के भाई ने बताया कि उसकी हत्या गौमांस के संदेह में की गई है. उसके परिवार को धमकी दी गई कि जब तक शिकायत पर दस्तखत नहीं करेगा भाई से मिलने नहीं दिया जाएगा. जबकि बेल के आदेश में लिखा है कि पुलिस केस में इसे रोड रेज यानी सड़क दुर्घटना के समय गुस्से को कारण बताया गया. मगर केस डायरी में लिखा है कि गौ हत्या को लेकर मामला भड़का था.
पुलिस कहती है कि उसके पास सैमुद्दीन का बयान है मगर उसने कोई बयान ही नहीं दिया है. 'Truth vs Hype' की मरियम ने ये सब पता लगाया है. कासिम के परिवार वालों ने कहा कि कासिम बकरी का बिजनेस करता था. गाय का नहीं. मरियम ने मुख्य आरोपी से बात की तो वह साफ-साफ कह रहा है कि गौ मांस को लेकर ही झगड़ा हुआ था.
कभी भी कहीं भी भीड़ बन जा रही है. उसने कानून को अपने हाथ में ले लिया है. इस भीड़ के पैटर्न को समझना इतना भी मुश्किल नहीं है. प्रधानमंत्री आज पश्चिम बंगाल के मिदनापुर में सभा कर रहे थे, उनके मंच के बगल का शामियाना गिर गया. प्रधानमंत्री वहां शांति से खड़े रहने की अपील करते रहे और खुद भी संयमित रहे. चालीस लोगों को अस्पताल पहुंचाया गया. प्रधानमंत्री के लिए आए एंबुलेंस को भी इस काम में लगा दिया गया. कायदे से प्रधानमंत्री की सभा में ऐसी घटना को सुरक्षा में चूक माना जाना चाहिए.
अब जो आप देख रहे हैं, उसे अंतिम बार के लिए बिल्कुल नहीं देख रहे हैं. ये तस्वीरें पश्चिम बंगाल से हैं. प्रधानमंत्री की सभा में लोग पहुंच नहीं पाए तो गुस्सा पुलिस वालों पर निकाल दिया. खड़गपुर के करीब बीजेपी समर्थकों ने पुलिस वाले की पिटाई कर दी. एक और सिपाही को भीड़ ने दौड़ा लिया. एक जगह पर सिपाही को चप्पलों से मारा गया. एक एडिशनल एसपी घायल हुए हैं. हमारा देश वाकई बदल रहा है. भीड़ अपना काम कर रही है.
आज कल आप ऐसी खबरें काफी देखते होंगे कि दलित दूल्हे को घोड़ी पर चढ़ने नहीं दिया गया. सिंह टाइटल लगा दिया तो उसकी पिटाई कर दी गई. दलित दूल्हे ने अपनी बारात निकालने के लिए पुलिस सुरक्षा की मांग की. यह खबरें बता रही हैं कि इन नौजवानों ने अपने लिए जगह नहीं मांगी होती तो आप आज भी भ्रम में रहते कि जातिवाद का ज़हर मिट गया है. अगर गांवों में खुद को दबंग कहलाने में गर्व महसूस करने वाली जाति या जातियां दलितों को बारात तक निकालने नहीं दे रही हैं तो सोचिए जात पात मिटा देने का यह संघर्ष अभी और कितना लंबा है. क्या जाति का अधिकार और अहंकार इतना बड़ा है कि संवैधानिक अधिकार हासिल करने के लिए उसके सामने इंतज़ार करना पड़ेगा, उससे लड़ना पड़ेगा.
पुलिस की बारात के पीछे जिस संजय जाटव की बारात आ रही है वो इस तरह से नहीं निकलती अगर उसने ज़िला प्रशासन, मुख्यमंत्री को पत्र लिखने से लेकर हाईकोर्ट जाने का झमेला नहीं मोल लिया होता. गांव के ठाकुर दलित के घोड़े पर बैठने के खिलाफ थे. उनका कहना था कि आज तक दलित घोड़े पर नहीं बैठा तो अब भी नही बैठेगा. क्या संजय को बग्धी पर बैठने से रोकने वाली बिरादरी ख़ुद को कानून और संविधान से ऊपर समझती है. छह महीने लग गए संजय को इस छोटी सी आज़ादी को हासिल करने में. बाद में प्रशासन को गांव के चप्पे-चप्पे पर पुलिस की तैनाती करनी पड़ी और बारात निकली. जो लोग बारात का विरोध कर रहे थे उनके पीछे खुफिया एजेंसी तक लगाई गई. गांव के जो लोग खुद को दबंग समझते हैं उनके पास यह ताकत कहां से आती है कि दूसरे की शादी ब्याह में दखल देने चले जाते हैं.
उत्तर प्रदेश में 30,000 से अधिक लेखपाल रोज़ न्यूज़ चैनल इस उम्मीद में खोलते हैं कि आज हिन्दू मुस्लिम डिबेट नहीं होगा, उनके हड़ताल पर बात होगी. वे तीन जुलाई से अपनी मांगों को लेकर यूपी के अलग अलग ज़िलों में रोज़ दस बजे से लेकर 4 बजे तक धरना प्रदर्शन करते हैं. लेखपाल अब समझ पा रहे हैं कि 30 हज़ार की संख्या ही काफी नहीं होती है. उनकी हड़ताल को 13 दिन हो चुके हैं और मांगे मानी जाएंगी या नहीं किसी को पता नहीं है. इसी बहाने पहले हम जानते हैं कि लेखपाल काम क्या करते है और फिर दिखाएंगे कहां काम करते हैं.
मुख्य रूप से ये पटवारी या अमीन का काम करते हैं यानी ज़मीन की पैमाइश का काम इन्हीं को करना होता है. 40 से भी अधिक काम होते है और यूपी के करीब एक लाख गांवों के दस्तावेज़ों के जानने वाले यही लेखपाल होते हैं. ब्लॉक ऑफिस से आपके खेतों तक जाना, ज़मीन के विवाद में इनकी भूमिका बहुत अहम होती है. सरकारी योजनाओं के लिए ज़मीन की पैमाइश कर उन्हें कब्ज़े से निकालना भी इनका काम है. इसके अलावा कितनी फसल बोई गई, कितनी फसल हुई इसके आंकड़े तैयार करने का काम भी लेखपाल का है. आय जाति निवास के प्रमाण पत्र लेखपाल ही देते हैं. कुल मिलाकर ज़िले में प्रशासन का ऊपर से चला आदेश लेखपालों के पास ही जाकर रूकता है. उनके नीचे कोई है ही नहीं.
तहसीलों में लेखपाल किस हालात में काम करते हैं आप इसका अंदाज़ा वीडियो से कर सकते हैं. हमने कई जगहों से वीडियो मंगाएं, जिनमें से ज्यादातर लेखपाल ने ही भेजे हैं. ज़मीन पर जाजीम बिछा कर काम करते हैं. जर्जर हो चुकी इमारत के नीचे काम करते हैं. कमरे में पंखा तक नहीं होता है. पेड़ के नीचे बैठते हैं तो बैठने की भी जगह नहीं होती है. इनके लिए शौचालय कम ही जगह पर बने हैं. जहां हैं वहां साफ सफाई की कोई व्यवस्था नहीं. आप लेखपालों के काम करने की जगहों पर जाएंगे तो पता चलेगा कि प्रशासन न सिर्फ जितना क्रूर जनता के प्रति हो सकता है उतना ही अपने भीतर के लोगों के साथ भी हो सकता है. इस वीडियो के ज़रिए आप घर बैठे देख रहे हैं कि ज़िलो में प्रशासन कैसे और कहां से काम करता है.
हमारे सहयोगी अजय सिंह ने वाराणसी में धरना पर बैठे लेखपालों से बात की. अजय ने बताया कि अपनी आठ सूत्री मांगों को लेकर लेखपाल 13 दिनों से धरने पर बैठे हैं. चार महीने पहले मुख्यमंत्री से भी मुलाकात कर अपनी मांगों के बारे में बताया था मगर कोई सुनवाई नहीं हुई. लेखपाल चाहते हैं कि 2000 की जगह 2800 का पे स्केल मिले. 2005 के पहले की पेंशन की योजना लाग होगी. भत्तों में वृद्दि बहुत ज़रूरी है, क्योंकि कई बार लेखपाल अपनी जेब से पैसे लगाकर काम करते हैं. लेखपालों को आवास भत्ता 480 रुपये महीना मिलता है जो कि बहुत कम है. वाकई बहुत कम है. प्रति दिन का यात्रा भत्ता 3 रुपये 33 पैसे है, किस हिसाब से है उन्हें भी समझ नहीं आता. स्टेशनरी भत्ता भी 3 रुपये 33 पैसे प्रति दिन है. आज कल शिकायतें ऑनलाइन आने लगी हैं. इसके लिए इन्हें साइबर कैफे में जाना पड़ता है.
लेखपाल चाहते हैं कि उन्हें लैपटॉप या स्मार्ट फोन दिया जाए ताकि अपना काम कर सकें. इस तरह से प्रशासन की यह निचली कड़ी अपने सम्मान की लड़ाई लड़ रही है. मीडिया इनकी लड़ाई नहीं दिखाता है इसका इन्हें दुख है मगर लेखपाल को खुद से भी पूछना चाहिए कि हड़ताल पर जाने से पहले वे किस तरह के चैनल देख रहे थे. चैनलों पर क्या देख रहे थे. ऐसा तो होगा कि आप साल भर चैनलों पर हिन्दू मुस्लिम देखें और जब हड़ताल पर जाएं तो चैनल पत्रकारिता करने लग जाएं.
इन खबरों से गुज़रते हुए आपको जो भारत दिखा क्या उसका समाधान हिन्दू मुस्लिम डिबेट में हैं, कभी तो आप खुद से और दूसरों से पूछेंगे कि ये बहस कब तक चलेगी और क्यों हर दूसरे दिन चैनलों पर चलती है,ये नहीं पूछ सकते तो यही पूछ लीजिए कि ये भीड़ क्या आपके घर आ जाएगी तो आप क्या करेंगे.
This Article is From Jul 16, 2018
महिलाओं के खिलाफ अपराध घट क्यों नहीं रहे?
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:जुलाई 16, 2018 23:41 pm IST
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Published On जुलाई 16, 2018 23:41 pm IST
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Last Updated On जुलाई 16, 2018 23:41 pm IST
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