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This Article is From Aug 22, 2017

एक बार में 'तीन तलाक' पर रोक, सभी ने किया फैसले का स्वागत, रवीश कुमार के साथ प्राइम टाइम

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 22, 2017 21:07 pm IST
    • Published On अगस्त 22, 2017 21:07 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 22, 2017 21:07 pm IST
शायरा बानो, गुलशन परवीन, आफ़रीन, आतिया साबरी, इशरत जहां को बधाई. बात संख्या की नहीं है, अन्याय अगर अकेली ज़िंदगी में भी घटता है तो रक्षा ज़रूरी हो जाती है. स्वागत की भी अपनी राजनीति है. बहुत से लोग पूरी ईमानदारी से स्वागत कर रहे हैं. बहुत लोग इसलिए भी स्वागत कर रहे हैं कि स्वागत ही तो करना है. स्वागत-स्वागत में वे भी हैं जो कहते हैं कि लड़कियां जींस न पहने, रात को अकेली न निकले, वे भी हैं जो गर्भ में बेटियों को मार देते हैं, वे भी हैं जो एक धर्म की लड़की के दूसरे धर्म के लड़के से शादी करने पर नेशनल इंवेस्टिगेटिंग एजेंसी और सीआईडी जांच की मांग करते हैं. 

उम्मीद है लगे हाथ संसद में भी महिलाओं को आरक्षण मिल जाएगा. जब हवा का झोंका आता है तो बहुत सी बंद खिड़कियां खुल जाती हैं. आज का फैसला तीन तलाक से ज़्यादा इस बात के लिए महत्वपूर्ण है कि पब्लिक स्पेस में मौलानाओं के वर्चस्व को पांच औरतें चुनौती दे सकती हैं. मौलानाओं के समर्थन में कोई दल नहीं है, मौलाना भी इस फैसले के साथ हैं. सभी नेताओं ने फैसले का स्वागत किया है. 
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सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की खंडपीठ का यह फैसला 395 पन्नों का है. एक बार में तीन तलाक पर रोक लगा दी गई है. अलग-अलग चरणों में तीन तलाक की प्रक्रिया पर रोक नहीं लगी है. आखिरी पन्ने पर प्वाइंट नंबर 56 और 57 का हिंदी अनुवाद मोटे तौर पर पेश करना चाहता हूं. 

जस्टिस रोहिंगटन नरीमन और जस्टिस यू यू ललित ने कहा-
तीन तलाक मनमाने तरीके से दिया जाता है, यह एक नई चीज़ है जिसकी कल्पना सुन्ना में नहीं है. यानी पैगंबर साहब के ज़माने में नहीं थी. इसे मज़हब के विरुद्ध माना गया है. हमने फैज़ी की किताब में देखा है कि हनफ़ी स्कूल ने भी तीन तलाक़ को पाप माना है और ऐसा करने वालों के बारे में कहा गया है कि उससे अल्लाह नाराज़ होगा. 2002 में सुप्रीम कोर्ट ने शमीम आरा के केस में तलाक़ के बारे में कहा है कि इसकी एक प्रक्रिया होगी, तलाक का वाजिब कारण होगा और तलाक से पहले दोनों पक्षों की तरफ से समझौते की कोशिश होगी. हम 2002 के इस फैसले से सहमत हैं. 

तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला मुस्लिम महिलाओं से ज़्यादा देश के बेरोज़गारों, किसानों, शिक्षा मित्रों, नीट के छात्रों, बीएड की डिगरी लिए बेरोज़गारों, बैंक कर्मचारियों के लिए महत्वपूर्ण है. तीन तलाक को लेकर न्यूज़ चैनल काफी व्यस्त हो गए थे. इसलिए हम लोग देख ही नहीं सके कि गुजरात में पिछले 24 घंटे के अंदर 8 लोगों की स्वाइन फ्लू से मौत हो गई है. जनवरी से लेकर अब तक 288 से ज्यादा लोग मर गए हैं. बिहार में बाढ़ से मरने वालों की संख्या 341 हो गई है. लखनऊ के इंदिरा मैदान में शिक्षा मित्रों का दावा है कि वे हज़ारों की संख्या में धरने पर बैठे हैं और कवरेज़ का इंतज़ार कर रहे हैं. पूर्व में भी अदालतों ने सनकी तरीके से एक बार में दिए जाने वाले तीन तलाक़ को अवैध माना है.

2 मई, 2002 को बांबे हाईकोर्ट की तीन सदस्यीय औरंगाबाद बैंच ने दग्धू पठान बनाम रहीम बी दग्धू पठान के केस में कहा था कि अदालत मौखिक या लिखित तलाक को नहीं मानेगी. मुस्लिम दंपत्ति को अदालत में साबित करना होगा कि उनके बीच तलाक हो चुका है और शरियत कानून की सारी शर्तें पूरी की गई हैं. उससे पहले 1981 में असम हाईकोर्ट ने ऐसा फैसला दिया था. 2002 के शमीम आरा जजमेंट का उदाहरण तो है ही आपके सामने जिसमें तीन तलाक़ को अवैध करार दिया था.

2002 में बांबे हाईकोर्ट की औरंगाबाद बेंच के फैसले का मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने विरोध किया था. लोगों को पता भी नहीं चला था मगर मीडिया, मुस्लिम मर्दों और महिलाओं के लगातार अभियान का असर ये हुआ कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को भी एक राय में बोलना पड़ा कि एक बार में तीन तलाक सही नहीं है. तीन तलाक से पहले आठ चरणों का होना ज़रूरी है. जिसमें वाजिब कारण से लेकर बीच-बचाव तक, सब शामिल हैं. संविधान पीठ के फैसले के आख़िरी पैराग्राफ में कहा गया है-

क्योंकि तीन तलाक़ फ़ौरन हो जाता है, उसी वक्त शादी टूट जाती है और इसे वापस नहीं लिया जा सकता, बीच-बचाव भी नहीं होता है. प्रीवी काउंसिल ने रशीद अहमद के केस में बिना कारण बताए तीन तलाक़ को वैध माना था. इसलिए हमें लगता है कि तीन तलाक़ की व्यवस्था बेहद मनमानी है. इस तरह की तलाक़ अनुच्छेद 14 में बताए गए मौलिक अधिकारों के विरुद्ध है. चूंकि 1937 का शरीयत अधिनियम भी इस तीन तलाक को मानता है, लागू करता है इसलिए 1937 के एक्ट को असंवैधानिक घोषित किया जाता है.

हाल ही में शनि मंदिर और हाज़ी अली दरगाह में जाने की लड़ाई औरतों ने लड़कर जीत ली. इन संघर्षों की खूबी ये होती है कि शुरू औरतें करती हैं और स्वागत मर्द करते हैं. अब देखिये सबरीमाला मंदिर में पीरियड यानी रजस्वला के समय औरतों को जाने से मनाही है. इसे लेकर औरतें सवाल कर रही हैं. सुप्रीम कोर्ट में फरवरी में ही सुनवाई पूरी हो चुकी है. फैसला अभी नहीं आया है. 22 अगस्त के फैसले का मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने स्वागत करते हुए कहा है कि चूंकि यह फैसला मुस्लिम पर्सनल लॉ का भी सरंक्षण करता है और कहता है कि पर्सनल लॉ का परीक्षण कोर्ट मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के पैमाने पर नहीं कर सकती है. जजों ने बहुमत से पर्सनल लॉ को मौलिक अधिकार की हैसियत दी है जो धार्मिक स्वतंत्रता के आर्टिकल 25 के तहत संरक्षित है.

यह हमारे लिए बड़ी जीत है. फैसला हमारे स्टैंड को सही ठहराता है. यह फैसला सुनिश्चित करता है कि धार्मिक ग्रंथों से निकलने वाली परंपराओं और आचरणों में अदालतें दखल नहीं देंगी. जहां तक तलाक-उल-बिद्दत का सवाल है हमने कोर्ट से कहा था कि एक बार में तलाक देना बेहतर तरीका नहीं है. हमने इसे हतोत्साहित किया है. हम अदालत के इस फैसले को स्वीकार करते हैं. कैसे लागू होगा, इस पर हम विचार करेंगे.

बिहार के इमारते शरिया का बयान है कि तलाक़ एक सामाजिक बुराई है. महिलाओं को एक बार में तीन तलाक़ बोलकर उसके सारे सपनों को ख़त्म कर देना गलत है. दारुल उलूम देवबंद ने भी फैसले का स्वागत किया है. इस फैसले से धार्मिक बुराइयों से लड़ने का साहस भी अदालतों को आएगा, राजनीतिक दलों को आएगा. जो तीन तलाक 1950 के दशक में मुस्लिम देशों ने समाप्त कर दिया था, भारत 2017 में उसे हासिल कर जश्न मना रहा है.
 

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