प्राइम टाइम इंट्रो : ऐसे तरक्‍की करेगा भारत?

नई दिल्‍ली:

जिस अख़बार में ख़बर छपती है कि भारत विकास दर के मामले में चीन से आगे निकलने वाला है उसी अख़बार के भीतर यह भी ख़बर छपती है कि दुनिया में निर्यात व्यापार में गिरावट देखी जा रही है। उसके अगले दिन ख़बर छपती है कि भारतीय बैंकों से कंपनियों ने लोन लेना कम कर दिया है। बैंकों के ऋण दिये जाने की दर 18 साल में सबसे कम रिकॉर्ड हुई है लेकिन सेंसेक्स देखिये तो वो सौंवे माले पर दिखाई देता है। अच्छा होने के साथ कुछ अच्छा नहीं होता भी दिखाई दे रहा है।

क्या आप यह देखना चाहेंगे कि रोज़गार में कितनी वृद्धि हो रही है। रोज़गार में भी किस सेक्टर में बढ़ोत्तरी हो रही है। सेक्टर के बाद परमानेंट नौकरियां बढ़ रही हैं या कॉन्‍ट्रैक्‍ट वाली बढ़ रही हैं। आज के इंडियन एक्सप्रेस में सुरभि की ख़बर है कि चंडीगढ़ के लेबर ब्यूरो ने एक सर्वे किया है। लेबर ब्यूरो भारतीय श्रम व रोज़गार मंत्रालय की संस्था है जो मज़दूरी, सैलरी, उत्पादकता वगैरह पर जानकारी जुटाती रहती है।

इस ब्यूरो ने बताया है कि 2014-15 की तीसरी तिमाही यानी अक्टूबर से दिसंबर के बीच आठ सेक्टरों में रोज़गार में कमी नज़र आ रही है। ये आठ सेक्टर हैं ऑटोमोबिल, टेक्सटाइल, ट्रांसपोर्ट, हैंडलूम, पावरलूम, जवाहरात, आईटी-बीपीओ, मेटल और लेदर। ऑटो और मेटल सेक्टर में कुल 43 हज़ार नौकरियां चली गईं हैं। अक्टूबर से दिसंबर के बीच सिर्फ 1 लाख 17 हज़ार नई नौकरियां पैदा हुई हैं। जबकि अप्रैल से जून के बीच 1 लाख 82 हज़ार नौकरियां आईं थीं।

ज़रूरी नहीं है कि जीडीपी बढ़े तो नौकरियां भी बढ़ेंगी। मनमोहन काल के कुछ खंडों को इसीलिए जॉबलेस ग्रोथ कहा जाता है। आप क्या चाहेंगे कि जीडीपी की दर बढ़ जाए या नौकरियां भी बढ़ें? विवेक कौल की रिपोर्ट है कि नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया ने भारतीय उद्योग जगत पर आरोप लगाया है कि वे ऐसे उद्योग में कम निवेश करते हैं जिसमें ज्यादा मज़दूरों की ज़रूरत हो। भारत में हर महीने दस लाख लोग जॉब मार्केट में आते हैं लेकिन नौकरी तो सिर्फ लाख दो लाख को ही मिल रही है। पनगढ़िया की इस चिंता का मकसद यह है कि श्रम कानूनों को बदला जाए।

श्रम कानूनों पर अलग से बहस की ज़रूरत है लेकिन पनगढ़िया कहते हैं कि केंद्र और राज्य सरकारों ने मिलकर कोई 200 प्रकार के श्रम कानून बनाए हैं जिसके कारण भारत में टेक्सटाइल कंपनियां बड़ी ही नहीं होना चाहती और बड़े उद्योगपति इस सेक्टर में नहीं आना चाहते। भारत में इस सेक्टर में 90 प्रतिशत लोग छोटी कंपनियों में काम करते हैं जबकि चीन में 87 प्रतिशत मज़दूर मझोले और बड़ी कंपनियों में काम करते हैं। इसलिए अब वे उद्योग जगत को चेता रहे हैं कि रोज़गार सृजन के क्षेत्र में निवेश करें।

ये बात कुछ कुछ ऐसी लग रही है जैसे सरकार पूंजीपति होना चाहती है और पूंजीपतियों से कह रही है कि आप समाजवादी भी हो जाएं। विश्व मुद्रा कोष और विश्व बैंक ने कहा है कि 2016 तक भारत चीन को पीछे छोड़ देगा। भारत की विकास दर 7.5 प्रतिशत हो जाएगी और चीन घटकर 6.3 पर आ जाएगा। अब भारत बढ़ रहा है या चीन गिर रहा है ये ग्लास आधा खाली है या भरा है वाली बात हो जाती है।

अगर हम आगे निकल भी गए तो चीन की अर्थव्यस्था का आकार है दस खरब डॉलर और भारत की अर्थव्यस्था का आकार होगा 2 खरब डॉलर। अब मारुति 800 स्पीड के मामले में मर्सीडिज़ से आगे निकल जाए तो क्या वो मर्सीडिज़ से बड़ी कहलाएगी? भारत को अगर एक करोड़ 20 लाख युवाओं को रोज़गार देना है तो अगले दस साल तक 7 से 8 प्रतिशत की दर से तरक्की करनी होगी। शुक्रवार शाम को ख़बर आई है कि 2014-15 में भारत का निर्यात में 1.23 प्रतिशत की गिरावट आई है। इस साल 340 अरब डॉलर का लक्ष्य था, 310 अरब डॉलर तक ही पहुंचा जा सका है।

निर्यात में गिरावट है, बैंक लोन में गिरावट है, प्रॉपर्टी के दाम गिर रहे हैं, इसके बाद भी हम चीन से आगे निकलने वाले हैं। हो सकता है कोई नया सेक्टर आगे ले जाने वाला हो। जबकि महंगाई, मुद्रास्फीति और डीज़ल पेट्रोल के दाम नियंत्रण में आ चुके हैं। दूसरी तरफ मौसम ने खेती को मार दिया है। महाराष्ट्र में गन्ना उत्पादन 55 साल में सबसे अधिक हो गया है। वहां चीनी का दाम क्रैश कर गया है, किसानों को पैसे नहीं मिल रहे हैं। कुल मिलाकर एक सेक्टर निकलता है तो दूसरा फंसा हुआ दिखता है। लेकिन क्या रोज़गार के भी ऐसे ही विश्वसनीय आंकड़ें आप तक पहुंचे हैं।

अमेरिका का पता किया तो वहां आप जब नौकरी लेने जाएंगे तो पहले सोशल सिक्योरिटी नंबर और टैक्स पहचान नंबर लेंने पड़ेंगे। कोई संस्था इसके बग़ैर आपको नौकरी देगी ही नहीं। नौकरी मिलते ही यह आंकड़ा केंद्रीय डेटा बेस में जमा हो जाता है। वहां पूरा ट्रैक किया जा सकता है कि इस सेक्टर में इस महीने इतने लोगों को नौकरी मिली। इतने लोगों की नौकरी चली गई। इससे सरकार को भी तुरंत का तुरंत पता चलता रहता है कि किसी सेक्टर में उसकी नीति से नौकरी बढ़ी या उल्टा चली गई।

जैसे यह ब्यूरो ऑफ लेबर स्टेटिस्टिक है। यह संस्था हर महीने पब्लिक के लिए डेटा जारी करती है कि कितने लोग नौकरी पर हैं और पिछले महीने से क्या बदलाव आया है। इस पर पिछले दस साल का डेटा भी रहता है। फुल टाइम, पार्ट टाइम, हर तरह का डेटा जमा और जारी होता रहता है। अमेरिका में कानून है कि सही डेटा देना ज़रूरी है।

भारत में तो कई कंपनियां अपने रजिस्टर पर भी नहीं बताती कि कितने लोग काम पर रखे गए हैं। भारत में नेशनल एम्प्लायमेंट एक्सेंच है। वेबसाइट खोलने गया तो बार-बार टेक्निकल एरर आया। इसके बारे में बुराई करने से अच्छा है कि मान लिया जाए कि यह काफी बेहतर है। भले ही ढंग से तथ्य न दिये गए हों। बेरोज़गारों के लिए सरकारी योजनाओं का कहीं ज़िक्र नहीं है। रोज़गार समाचार पत्र का यह ऑनलाइन वर्ज़न बनकर रह गया है।

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दीपक पारेख, हरिश मरिवाला और सीआईआई के नए अध्यक्ष सुमित मज़ुमदार ने निराशा जताई है कि ज़मीन पर कुछ होता दिख नहीं रहा। आज ही उद्योगपति रतन टाटा ने कहा है कि भारतीय उद्योगपतियों को इतनी तेज़ी से निराश होने की ज़रूरत नहीं है। उन्हें प्रधानमंत्री का साथ देना चाहिए। अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा ने भारत के प्रधानमंत्री को रिफॉर्मर इन चीफ़ कहा है। तो जो नौकरी सीकर इन नीड है उसे क्या कहा जाए। क्या बेरोज़गारों से भी उद्योगपतियों की तरह कहा जा सकता है कि सब्र करें। नौकरी आज नहीं मिली तो दो साल बाद कैसे मिलेगी।