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This Article is From May 11, 2015

पत्रकारिता पर लगाम की कोशिश?

Ravish Kumar
  • Blogs,
  • Updated:
    मई 11, 2015 21:33 pm IST
    • Published On मई 11, 2015 21:22 pm IST
    • Last Updated On मई 11, 2015 21:33 pm IST
दुनिया के किसी भी लोकतंत्र के लिए ज़रूरी है कि उसका नागरिक अपने अधिकारों, कर्तव्यों को समझे और इसके लिए बेहद ज़रूरी है कि वो सही सूचनाओं से लैस हो। झूठी, खराब या अधकचरी सूचनाओं से लैस नागरिक लोकतंत्र के लिए घातक हो सकता है।

कई बार लोग यह मानने की गलती कर जाते हैं कि अगर नेता बेहतर होगा तो लोकतंत्र बेहतर हो जाएगा और उसी तरह से नागरिक भी। ऐसा कभी होता नहीं है। नागरिक को ही जागरूक होना पड़ता है तभी नेता और लोकतंत्र बेहतर होता है।

इसलिए आप अपने जीवन में न्यूज़ को महत्व देते हैं। कुछ लोग टॉयलेट में भी अख़बार लेकर जाते हैं और कुछ ट्रेन में खड़े-खड़े मोबाइल फोन पर न्यूज़ साइट देखते रहते हैं। कुछ लोग नियमित रेडियो सुनते हैं तो कुछ लोग शाम को घर पहुंचकर टीवी ऑन करते हैं। जानने के लिए कि देश दुनिया में क्या हुआ।

अगर ख़बरें ज़रूरी नहीं होतीं तो महंगाई के दिनों में आप दो किलो आलू में कटौती की जगह अखबार या टीवी बंद कर देते। हर नागरिक मानता है कि उस तक पहुंचने वाली सूचना निष्पक्ष और विश्वसनीय हो। सरकार भी अपने माध्यमों से न्यूज़ पहुंचाती है। हर संस्थान अपनी दावेदारी ही इस बात पर करता है कि वो सबसे सही और निष्पक्ष ख़बरें दिखाता है। इसलिए कई मीडिया संस्थानों के टैगलाइन में सत्य होता है। खबर में हो या न हो यह विवाद का विषय हो सकता है।

आप खबर पढ़ते वक्त इस बात को महत्व देते हैं कि पेशेवर पैमानों का पालन किया गया होगा। इसलिए अब ट्वीटर से लेकर ट्रैक्टर पर पत्रकारों की जीवनशैली से लेकर मित्रमंडली की चर्चा होने लगी है। इसलिए आप जानना चाहते हैं कि मीडिया कितना स्वतंत्र है। कई लोग हमें भी कहते हैं कि आप खुलकर बोलते हैं। आप सोचियेगा कि क्यों किसी पत्रकार से कहते हैं कि आप खुलकर बोलते हैं। क्या आप मुझे यह कहना पसंद करेंगे कि रवीश जी आप बहुत अच्छा करते हैं डर डर कर बोलते हैं। खुल कर नहीं बोलते हैं। अच्छा करते हैं कि सरकार की वाहवाही करते हैं क्योंकि हमने इसी सरकार को वोट किया है।

मैं अक्सर ऐसी तस्वीरें लेता रहता हूं जब आप नागरिक आंखें गड़ाकर अखबार पढ़ रहे होते हैं। क्या तब भी आप इन अखबारों को चाव से पढ़ते ये सिर्फ सरकारी प्रेस रीलिज़ से भरी होतीं? मुझे नहीं लगता कि आप इतने बोरिंग पाठक या दर्शक हैं। आप ज़रूर सरकारी दावों के समानंत अलग दावे या राय पढ़ना चाहते होंगे। नौकरशाही बेलगाम है लेकिन चुनाव जीतने के बाद कोई नेता अपनी नौकरशाही को यह रास्ता बताये कि मीडिया पर कैसे लगाम लगानी है तो सोचिये कि इसका असर क्या होगा। वैसे मीडिया की आज़ादी के मामले में भारत का स्थान दुनिया के 180 देशों में से 136वां हैं। पहले से ही कम है।

दिल्ली के मुख्यमंत्री ने अधिकारिकों को एक सर्कुलर जारी किया है कि अगर उन्हें लगे कि कोई ख़बर सही नहीं है या आपत्तिजनक है तो प्रमुख सचिव से कहकर आपराधिक मानहानि का मामला दर्ज करवा सकते हैं। आरोप साबित हुआ तो संपादक, रिपोर्टर को दो साल की जेल हो सकती है। सरकार ने खबरों पर निगरानी के लिए एक कमेटी भी बनाई है जो रोज़ सुबह 9 से 11 के बीच शिकायत करने लायक मामले को चुनेगी और प्रमुख सचिव को भेजेगी।

मुख्यमंत्री केजरीवाल ने अपने मामले में अदालत से कहा था कि ये जो मानहानि के प्रावधान हैं अभिव्यक्ति की आज़ादी के ख़िलाफ़ हैं। मगर शायद उनके दिमाग में दो प्रकार की आज़ादी है एक केजरीवाल आज़ादी दूसरा मानहानि वाली आज़ादी। खुद केजरीवाल पर आरोप है कि बिना किसी सबूत के प्रेस क्लिपिंग लेकर आरोप लगा देते हैं और कभी सबूत नहीं देते हैं।

मानहानि और कानून के चक्करों से हर रिपोर्टर डरता है और डरेगा। मानहानि का लाभहानि ही करता रह जाएगा। वैसे हमारे देश में कई बार उद्योगपति ऐसे साधारण से नोटिस भेजकर रिपोर्टर को डरा देते हैं। अब सरकार भी वही करेगी। आपमें से कई लोग हमसे संपर्क करते हैं कि फलाने विभाग में घपला चल रहा है या अधिकारी लापरवाह है इसकी खबर लिखिये ताकि सरकार कारर्वाई करे। आप नागरिक एकदम सही काम करते हैं। लेकिन जब सरकार अपने अधिकारी से कहे कि कुछ आपत्तिजनक लगे तो हमको बताओ हम रिपोर्टर पर ही मानहानि करेंगे तो हमारे साथ आप भी मुकदमे में लपेट लिये जाएंगे। लिहाज़ा यह सर्कुलर प्रेस के साथ-साथ आपके खिलाफ भी हो सकता है।

दुनिया में कोई ऐसी खबर नहीं होती जो शत प्रतिशत सत्य हो। बल्कि खबरें सत्य के नहीं तथ्य के करीब होती हैं। कई बार बिल्कुल करीब होती है तो कई बार दूर होकर भी सही निशाने पर होती है। ऐसी तमाम खबरों के आधार पर सरकारें गिरी हैं और लोकतंत्र बचा है। जिस तरह से मीडिया हर दौर में अच्छा या बुरा रहा है उसी तरह से हर दौर में सरकारों ने मीडिया को साधने का प्रयास किया है और मीडिया ने हर दौर में अपनी जगह बनाई है। मीडिया के एक ऐसे ही दौर की टिप्पणी सुना रहा हूं... 'कोई कितना भी चिल्लाता रहे अख़बार वाले सुधरते नहीं हैं। लोगों को भड़काकर इस प्रकार अख़बार की बिक्री बढ़ाकर कमाई करना, यह पापी तरीका अख़बार वालों का है। ऐसी झूठी बातों से पन्ना भरने की अपेक्षा अख़बार बंद हो जाएं या संपादक ऐसे काम करने के बजाय पेट भरने का कोई और धंधा खोज लें तो अच्छा है।' 2015 में मीडिया को बाज़ारू कहने वाले मोदी या मीडिया को मानहानि से डराने वाले केजरीवाल ने नहीं, बल्कि महात्मा गांधी ने ये बात कही है। 12 फरवरी 1947।

उस दौर का उदाहरण दिया जब भारतीय प्रेस अंग्रेजों से लोहा ले रहा था। एक उदाहरण से खुश होने की ज़रूरत नहीं है। गांधी को कोट इसलिए कर रहा हूं कि जिस सरकार ने मानहानि के लिए निगरानी का सर्कुलर निकाला है उसके नेता भी एक पार्ट टाइम गांधी पार्ट टू पकड़ लाए थे और अपनी लड़ाई को आज़ादी की दूसरी लड़ाई बताते थे।

पहली आज़ादी की लड़ाई के टाइम में जब बॉम्‍बे क्रॉनिकल अखबार को मानहानि के केस में भारी जुर्माना देना पड़ा तो गांधी ने 7 अगस्त 1924 को यंग इंडिया मे लिखा, 'प्रेस लॉ की जगह राष्ट्रद्रोह और मानहानि के नाम की नई गतिविधि ने जगह ले ली है। अखबार का संपादक लिखते समय सोने के तराजू पर अपने शब्दों को नहीं तोलता है। जल्दबाज़ी में गलती कर सकता है। मानहानि के ये मुकदमे भारतीय पत्रकारिता का मनोबल तोड़ने के लिए हैं ताकि जन आलोचना सतर्क और दब्बू किस्म की हो जाए। मैं ग़ैर ज़िम्मेदार या अनुचित आलोचना को पसंद नहीं करता लेकिन सतर्क रहने की आदत अंदर से आनी चाहिए। बाहर से थोपा नहीं जाना चाहिए।'

मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल मीडिया के पब्लिक ट्रायल की बात करते हैं जहां भीड़ फैसला करेगी। फिर सर्कुलर और इन दोनों के बीच यह फैसला कि टीवी की बहस में सरकार या पार्टी का प्रतिनिधि नहीं जाएगा। आप अच्छा काम कर सकते हैं तो क्या किसी अच्छे व्यक्ति को यह अधिकार दे दिया जाए कि वो दूसरों को अच्छा काम न करने दे। अगर पत्रकार को कानून का डर दिखायेंगे तो वह जोखिम उठाकर किसी खबर को उजागर करने का अच्छा काम कैसे करेगा। ये बेसिक कोच्चन है बाकी तो जो है सो हइये है और वो पांच साल तक तो हइये ही हइये है। ये मानहानी की रंगदारी है या मीडिया को जवाबदेही का ख़ौफ़ पैदा करना। मीडिया की कमियों की सफाई कौन करेगा। मुख्यमंत्री या कोई संस्था। 2013 में हमारी संसद की स्टैंडिंग कमेटी ने पेड न्यूज़ के संदर्भ में रिपोर्ट दी है और 2011 में ब्रिटेन में लेवेसन की रिपोर्ट ने भी कई महत्वपूर्ण उपाय सुझाये हैं।

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