नमस्कार मैं रवीश कुमार। आप शहर में फल, सब्जी और अनाज के बढ़ते दाम जाम से परेशान है और किसान गांव में दाम न मिलने से परेशान है। शहर में जो मौसम खुशनुमा है, वही गांवों में मौतनुमा है। एक खेत आपके लिए प्लॉट हो सकता है, लेकिन किसान के लिए पूरे जीवन और साल का खाता है। कभी आप खुले आसमान के नीचे अपनी कमाई रख कर देखिये रात भर नींद नहीं आएगी। सोचिए किसान पर क्या गुज़रती होगी।
एक ज़रा सी बेमौसम बूंदाबांदी पर वह दहल जाता होगा। बर्बाद तो वह तब भी होता है, जब बारिश नहीं आती है। मार्च और अप्रैल महीने की लगातार बारिश आंधी और ओले ने लाखों हेक्टेयर फसलों को बर्बाद कर दिया है। सरकार तो इसकी भरपाई आयात से कर लेगी मगर किसान क्या करेगा। रबी की फसलों ने उसे तो कई साल के लिए ग़रीब बना दिया है। गेहूं, सरसो, मक्का, आलू, मटर, काला चना, हर चना, मूंगफली मूंग उड़द ये सब रबी की फसलें हैं।
मौसम, सूखा, अधिक उत्पादन के कारण राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और बंगाल से किसानों की आत्महत्या की खबरें आ रही हैं। कई किसानों की मौत हार्ट अटैक से हो गई है। उत्तर प्रदेश के 75 में से 40 ज़िलों में बेमौसम बारिश ने खेती तबाह कर दी है। इससे यूपी की ग्रामीण जनसंख्या का 70 प्रतिशत हिस्सा प्रभावित है। सरकार कहती है कि 35 किसानों की मौत हुई है, लेकिन आत्महत्या से कोई नहीं मरा। कोई बीमारी से तो कोई अन्य कारणों से। गैर सरकारी आंकड़े कहते हैं कि सौ किसानों की मौत हुई हैं, जिनमें से 35 ने आत्महत्या की है।
टाइम्स ऑफ इंडिया ने पिछले तीन महीने में महाराष्ट्र के मराठवाड़ा इलाके में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या 226 बताई है। दिसंबर में महाराष्ट्र सरकार ने सूखा प्रभावित इलाके के किसानों के लिए 7000 करोड़ के पैकेज का एलान किया था, मगर उसके बाद भी आत्महत्या नहीं रुक रही है। विदर्भ के इलाकों की स्थिति वाकई बहुत खराब है। बंगाल में आलू के अधिक उत्पादन के कारण 9 किसानों की आत्महत्या की खबर है।
अब एक छोटा सा उदाहरण यूपी का देते हैं। यहां सरकार कहती है कि 1100 करोड़ की फसल बर्बाद हुई है और मुआवज़े का एलान हुआ है 500 करोड़ का। वह भी एलान हुआ है। सर्वे और मिलना बाकी है। 600 करोड़ की भरपाई अकेले यूपी का किसान कैसे करेगा। इस पूरे हंगामे में भूमिहीन किसान या खेतीहर मज़दूरों की आवाज़ तो सुनाई भी नहीं देती है।
इनकी बड़ी गलती है कि इनके पास फोन तो है मगर ट्विटर अकाउंट नहीं है। अब आपको दो बातो को समझना ज़रूरी है। मुआवज़े की राशि पर्याप्त नहीं होती है और इसके तय करने की प्रक्रिया से ज्यादा आसान है युद्धग्रस्त यमन से चार हज़ार भारतीयों को निकाल लाना। इसके लिए पहला काम है सर्वे। कई राज्यों में यह दिखावे के लिए शुरू हुआ है। कई ज़िलों में नहीं हुआ है। सर्वे करने वाले पटवारी के जिम्मे कम से कम दस गांव आते हैं। इनका सर्वे वह चाहे तो पांच दिनों में पूरा कर तहसीलदार को भेज सकता है। तहसीलदार एस डीएम को भेजता है, एस डीएम अपने डिविजन की रिपोर्ट बनाकर डीएम को भेज देता है और डीएम ज़िले की रिपोर्ट बनाकर कमिश्नर को और फिर वहां से राजधानी में सीएम या कृषि मंत्रालय के पास। कम से कम पंद्रह दिन लग जाते हैं। राजधानी में फैसला होगा तो मुआवजा के चेक को चल कर किसानों तक पहुंचने में पंद्रह से बीस दिन लग सकते हैं। यानी महीना डेढ़ महीने की कवायद के बाद सौ रुपये मिलेंगे या दो हज़ार किसी को पता नहीं।
पटवारी और सरपंच या किसानों के बीच की राजनीति और रिश्वतखोरी के किस्से अभी सुनाना नहीं चाहता, मगर किसान कहते हैं कि गेहूं की नमी से लेकर बर्बादी का प्रतिशत बताने की योग्यता पटवारी में तो होती नहीं मगर अंग्रेजों के ज़माने से पटवारी ही चला आ रहा है। चला जा रहा है।
बीमा मिलने की प्रक्रिया आपको और उदास कर सकती है। इलाके में सत्तर प्रतिशत फसल बर्बाद होगी, तब बीमा मिलेगा। यानी आपके मकान में आग लगेगी तो बीमा तभी मिलेगा जब पूरे मोहल्ले के सत्तर और मकानों में आग लगे। अगर मैंने सही समझा है तो यह सही है। अब बताता हूं बर्बादी का हिसाब।
मिट्टी, बीज, खाद और सिंचाई के हिसाब से एक एकड़ खेत में गेहूं की बुवाई पर औसतन आठ से बारह हज़ार रुपये का ख़र्चा आता है। मौसम की मार न पड़ी तो एक एकड़ में पांच से आठ क्विंटल गेहूं हो जाता है। न्यूनतम समर्थन मूल्य के हिसाब से दस से बारह हज़ार का गेहूं हो जाता है। इसमें आप 800 रुपये प्रति क्विंटल की दर से गेहूं से निकलने वाले भूसे की कमाई भी मिला लीजिए। यानी एक एकड़ में गेहू और भूसा मिलाकर किसान के हाथ में बीस हज़ार आ जाते हैं। इसमें से लागत निकाल दें तो बचत होती है आठ से दस हज़ार रुपये प्रति एकड़। भूसा भी नहीं मिलेगा तो गाय भैंस के दूध पर भी असर पड़ने वाला है। लागत और कमाई दोनों गई।
इसीलिए पंजाब के कृषिमंत्री ने प्रति एकड़ दस हज़ार रुपये मुआवज़े की मांग की थी, मगर जैसे कि किसान कह रहे हैं कि रोज़ बयान ही आ रहे हैं हो कुछ नहीं रहा है। क्या हो सकता है। इसके लिए मैंने बुलंदशहर के भारत भूषण त्यागी जी को फोन किया। हो सकता है कि उनकी राय सही नहीं हो, उनकी जानकारी भी ठीक न हो मगर जो कहा वो इस तरह से है।
त्यागी जी ने बताया कि पिछले दस साल से बेमौसम बारिश आम हो गई है। किसानों को एक फसल की जगह बहुफसल की खेती की तरफ लौटना होगा। अभी किसान अपने खेत में ही एक ही फसल बोते हैं। जैसे सिर्फ गेहूं बोया। तो अगले खेत में सिर्फ सरसो, जबकि हमारी पारंपरिक प्रणाली यह थी कि हम गेंहू के साथ अलसी, चना, मटर और मसूर भी बो देते थे। मक्के के साथ मूंग तो कभी कंगनी, सवां, चोला बो सकते हैं। कंगनी, सवां और चोला चावल की किस्में हैं। खेत के किनारे छोटा तरबूज यानी कचरिया बो सकते हैं। इसके लिए प्रशासन को किसानों के साथ मिलकर एक प्लान देना होगा, तभी उसे पता चलेगा कि इस सीजन में कितनी मांग हो सकती है और कितनी बुवाई की जानी चाहिए।
अब ऐसी थ्रेसर मशीनें आने लगी हैं या आ सकती हैं जिनमें आप सारी फसलों को डाल सकते हैं, जिनमें ग्रेडिंग के चरणों से अनाजों को अलग किया जा सकता है। इससे सब बर्बाद नहीं होता है बल्कि कुछ न कुछ हाथ में आ जाता है। यह एक व्यक्ति की राय है। ज़रूरी नहीं कि सब सहमत ही हों।
अगर मैं कहूं कि किसानों के मामले में भाषण ज्यादा है तो तमाम सरकारों को अच्छा नहीं लगेगा। जैसे आज केंद्र सरकार के कर्मचारियों का डीए 6 प्रतिशत बढ़ा, क्या कभी आपने सुना है कि सरकार ने फसलों की एमएसपी 6 प्रतिशत बढ़ा दी हो। 1995 से लेकर अब तक 2 लाख सत्तर हज़ार 940 किसानों ने आत्महत्या की है। ये राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो का सरकारी आंकड़ा है। आप बताइये क्या सरकारों ने उतनी तेजी से एक्शन लिया, जिस तेजी से लेना चाहिए था। केंद्र से लेकर राज्य सरकारों तक। प्राइम टाइम