हमारी संस्थाएं किस कदर लचर हो गई हैं और उनमें एक घटना को संभालने और उसके सारे तथ्यों को सार्वजनिक करने के साहस की इतनी कमी है कि मामले का राजनीतिक होना उनके लिए भी ढाल का काम कर जाती है। हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी चार दिन से अगर सारे तथ्यों को एक साथ सार्वजनिक रूप से रख देती तो क्या हो जाता। बजाए इसके कि एक पक्ष इस कागज को लीक करे और एक पक्ष उस कागज के सहारे दावा करे। थाने से लेकर यूनिवर्सिटी तक की यही हालत है। बुधवार को केंद्रीय मंत्री स्मृति ने दावा किया कि वे सभी तथ्यों को जानने और उनकी पुष्टि करने के बाद प्रेस को संबोधित कर रही हैं। विश्वविद्यालय ने जो जानकारी दी है उसके आधार पर वे सिर्फ तथ्यों को रखने जा रही हैं। लेकिन उनके कई तथ्यों को लेकर चंद घंटे में ही अलग दावे किए जाने लगे और मामला यहां तक पहुंच गया।
रात होते होते यूनिवर्सिटी के शिक्षकों और अधिकारियों के एससी एसटी फोरम ने एक बयान जारी कर कहा कि केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने तथ्यों को तोड़ा मरोड़ा है। जबकि स्मृति ईरानी ने अपनी प्रेस में दावा किया था कि वे सही तथ्यों को पेश कर रही हैं। मीडिया और बाकी तथ्यों को तोड़ मरोड़ रहे हैं। एससी एसटी फोरम ने कहा कि कार्यकारी परिषद की जिस उप समिति ने निलंबन का फैसला लिया उसके प्रमुख प्रो विपिन श्रीवास्तव हैं जो कि अपर कास्ट हैं, दलित नहीं हैं। स्मृति ईरानी ने जोर देकर कहा था कि उप समिति के मुखिया दलित हैं। फोरम के शिक्षकों ने कहा कि उप समिति में कोई दलित नहीं है। डीन इस कमेटी के एक्स आफिशियो मेंबर मान लिए जाते हैं, मौजूदा डीन दलित हैं। मंगलवार को हमने आपको दिखाया था कि मौजूदा डीन दलित हैं और वे निलंबित छात्रों के समर्थन में उनके धरना स्थल पर भी गए थे। डीन ने उमा सुधीर से बात की थी और वे आम आदमी पार्टी के समर्थक बताए जाते हैं। फोरम के शिक्षकों ने दूसरा जवाब यह दिया कि जब से विश्वविद्यालय बना है तब से कार्यकारी परिषद में कोई दलित ही नहीं है। स्मृति ईरानी ने यह जरूर कहा था कि कार्यकारी परिषद के सदस्य कांग्रेस के समय बनाए गए थे। जाहिर है उन्हें यह भी मालूम होना चाहिए था कि इसमें एक भी दलित सदस्य क्यों नहीं है। फोरम के शिक्षकों ने केंद्रीय मंत्री के इस बयान पर दुख जताया कि होस्टल के जिस वार्डन ने निलंबन का आदेश सुनाया वह भी दलित थे। फोरम के दलित शिक्षकों ने कहा कि वार्डन को कोई अधिकार नहीं होता है। वह बस विश्वविद्यालय के फैसले को सुना रहा था न कि फैसला लेने में उस दलित वार्डन की कोई भूमिका थी। यह तो संयोग मात्र था कि वार्डन दलित हैं। इस तरह के निराधार और भ्रामक बयान वह भी मंत्री की तरफ से दिए जाने के कारण प्रशासनिक पदों पर बैठे दलितों का मनोबल गिरा है। हम रोहित वेमुला के प्रति अपनी सहानुभूति जाहिर करते हैं और मांग करते हैं कि सभी छात्रों के खिलाफ सारे मामले वापस लिए जाएं और निलंबन वापस हो।
15 में से 13 दलित शिक्षकों ने इस्तीफा दे दिया है। इन सभी ने विश्वविद्यालय के भीतर अपने प्रशासनिक दायित्व छोड़ दिए हैं। तो क्या स्मृति ईरानी के बयान से मामला और बिगड़ गया। वैसे दलित छात्र की आत्महत्या के सिलसिले में पूरे देश में हाल फिलहाल की यह अकेली घटना होगी। भले ही संसद के दलित सांसद खुलकर सड़क पर न आए हों लेकिन हैदराबाद यूनिवर्सिटी के दलित प्रोफेसरों का यह स्टैंड संस्थाओं को और परेशानी में डाल सकता है। अक्सर ऐसे वक्त में दलित संगठनों की भी शिकायत होती थी कि पदों पर बैठे समाज के लोग ऐसे भेदभाव के वक्त क्यों नहीं बोलते हैं। वे क्यों चुप रह जाते हैं। शायद 13 प्रोफेसरों ने जवाब दे दिया है। सवाल यह है कि केंद्रीय मंत्री के सामने क्या विश्वविद्यालय ने गलत तथ्य पेश किए या तथ्य थे ही नहीं, तथ्य गढ़े गए। उप समिति का मुखिया दलित नहीं था तो यह बात कैसे कह दी गई। विश्वविद्यालय ने मंगलवार को छात्रों के नाम एक लंबा ब्यौरा जारी किया था उसमें भी साफ-साफ कहा है कि उप समिति का अध्यक्ष कोई दलित नहीं था। उमा सुधीर ने इसे मंगलवार को ही हमें भेजा था। हम फिर से कुछ अंश पेश कर रहे हैं। इस पत्र में लिखा है कि जब अदालत ने सख्त चेतावनी दी तो विश्वविद्यालय ने एक बैठक बुलाई जिसमें डीन, प्रशासनिक अधिकारी, जिसमें परीक्षा नियंत्रक, चीफ वार्डन और डीन आफ स्टुडेंट वेलफेयर भी शामिल थे। उस बैठक में फैसला हुआ कि कार्यकारी परिषद की उप समिति मामले की जांच करेगी और सुझाव देगी। जिसके मुखिया कार्यकारी परिषद के सबसे वरिष्ठ प्रोफेसर होंगे। चूंकि कार्यकारी परिषद में कोई दलित समुदाय से नहीं था इसलिए हमने डीन आफ स्टूडेंट वेलफेयर प्रो प्रकाश बाबू से गुज़ारिश कि वे इस उप समिति के सदस्य बन जाएं।
डीन आफ स्टूडेंट वेलफेयर प्रो प्रकाश बाबू से उमा सुधीर ने बात की। उमा ने प्रकाश बाबू से साफ-साफ पूछा कि केंद्रीय मंत्री कह रही हैं कि जिस उप समिति ने फैसला किया उसके प्रमुख दलित थे, क्या यह सही है? आप प्रकाश बाबू का जवाब सुन लीजिए- प्रकाश बाबू ने कहा कि वे उस उप समिति के प्रमुख नहीं थे, प्रो विपिन श्रीवास्तव थे। जबकि केंद्रीय मंत्री ने कहा कि कमेटी के प्रमुख दलित प्रोफेसर थे। प्रकाश बाबू ने कहा कि उन्हें पद के कारण को आप्ट किया गया था और उन्होंने बैठक में निलंबन के फैसले का विरोध किया था। उन्होंने ही नहीं बल्कि प्रशासनिक पदों पर बैठे दलित अधिकारियों ने भी फैसले का विरोध किया था। चार मंत्रियों के साथ अच्छी खासी प्रेस कांफ्रेंस की इस तरह से धज्जी उड़ जाएगी, हैरानी होती है। इस पर स्मृति ईरानी की तरफ से कोई सफाई नहीं आई है।
इस बीच एक और तथ्य सामने आया है। विश्वविद्यालय ने निलंबन का फैसला वापस लिया तो छात्र विरोध करने लगे हैं। छात्रों का कहना है कि इस आदेश पर जिस डीन के दस्तखत हैं यानी प्रकाश बाबू के, वे तो इस मामले में आरोपी हैं जिसे सुशील कुमार ने दायर किया था। बाद में प्रकाश बाबू को सब कमेटी में लिया गया। क्या इन सब विरोधाभासों से नहीं लगता कि चंद छात्रों के निलंबन का मामला क्या इतना जटिल हो सकता है। क्या वाकई राजनीति की कोई भूमिका ही नहीं थी।
केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने इस मामले से राजनीति को दूर रखने पर बहुत जोर दिया। लेकिन केंद्र सरकार के सहयोगी दल के सांसद हैदराबाद चले गए। लोक जनशक्ति पार्टी के रामचंद्र पासवान ने वहां का दौरा किया है और इस पार्टी ने मामले की सीबीआई जांच की मांग की है। कांग्रेस अब स्मृति ईरानी और वीसी का इस्तीफा मांगने लगी है। केंद्रीय मंत्री मुख़्तार अब्बास नक़वी ने लोगों से कांग्रेस के प्रोपेगैंडा के बहकावे में न आने की अपील की है। इस अपील का असर लोक जनशक्ति पार्टी पर भी होना चाहिए था और उसे सीबीआई की जांच की जगह मंत्री के बयान पर भरोसा जताना चाहिए था।
अरविंद केजरीवाल हैदराबाद पहुंच गए। छात्रों से मुलाकात की और वीसी के बर्खास्त किए जाने की मांग की। कांग्रेस नेता कुमारी सैलजा भी हैदराबाद गई हैं। सीपीआई सांसद डी राजा वहां गए और भाषण दिया। छात्रों ने गुरुवार को भी अपना प्रदर्शन जारी रखा। इन सबका असर यह हुआ कि विश्वविद्यालय ने चार छात्रों के निलंबन का आदेश वापस ले लिया है। लेकिन छात्र अब भी नाराज हैं और कह रहे हैं कि जब तक मुकम्मल कार्रवाई नहीं होगी वे आंदोलन जारी रखेंगे। इन छात्रों ने निलंबन के आदेश की कापी जला दी है और क्योंकि कार्यकारी परिषद ने लिखा है कि अति विशिष्ट परिस्थितियों में फैसला लिया गया है। जबकि छात्र चाहते हैं कि विश्वविद्यालय माफी मांगे।
इस बीच एबीवीपी के छात्र भी विश्वविद्यालय के परिसर में सामने आए और अपनी बात रखी। वैसे सुशील न्यूज़ पोर्टल से बात कर ही रहे थे लेकिन आज अपनी बात कहने के लिए कैमरों के सामने आए। सुशील का कहना है कि रोहित की आत्महत्या से वे इतने आहत हुए कि तीन दिन तक अपने कमरे से नहीं निकल पाए। सुशील ने दावा किया कि उन्हें घसीटा गया। मारा पीटा गया और उनकी मां को गालियां तक दी गईं।
रोहित दलित है और उसका जाति प्रमाण पत्र भी कहता है कि वह दलित है। रोहित की मां ने उमा सुधीर से कहा था कि वे और रोहित के पिता अलग हो गए थे। पिता वडेरा जाति के हैं जो पिछड़ी जाति है। रोहित की मां माला जाति की हैं और दलित हैं। सुप्रीम कोर्ट का आदेश भी कहता है कि अलग होने की स्थिति में बच्चा मां की जाति चुन सकता है। यह और बात है कि रोहित ने एडमिशन के लिए आरक्षण का हक नहीं लिया था। अब पहले ही दिन से कुछ राजनीतिक तत्व यह अभियान चला रहे हैं कि रोहित दलित नहीं है। उमा सुधीर ने रोहित की दादी का एक स्टिंग जैसा बयान भेजा है। उमा सुधीर ने कहा कि उनके व्हाट्स एप्प पर आया है और इस तरह के प्रोपेगैंडा काफी चल रहा है। यह स्टिंग कहां से आया है, सही है या नहीं, रोहित की दादी हैं भी या नहीं, हम अभी तस्दीक नहीं कर सकते। आखिर यह कौन लोग हैं जो दादी का स्टिंग फैला रहे हैं।
तथ्यों में जो विरोधाभास नज़र आ रहे हैं उसका राजनीति से संबंध नहीं है। विपक्ष की राजनीतिक मजबूरी तो समझ आती है लेकिन केंद्रीय मंत्री और विश्विद्यालय के भीतर अलग-अलग लोग अलग-अलग तथ्य क्यों पेश कर रहे हैं। जाहिर है कुछ छिपाने के प्रयास हो रहे हैं। बेहतर यही है कि वीसी के साथ-साथ कमेटी की कार्रवाई के सारे दस्तावेज एक ही बार में सार्वजनिक कर दिए जाएं। इस सवाल को कांग्रेस बीजेपी के बहाने भटकाने से कोई फायदा नहीं। दोनों पार्टियां निपटती रहें आपस में, लेकिन सवाल मामले से जुड़े तथ्यों का है। आखिर चौबीस घंटे में केंद्रीय मंत्री के बताए तथ्यों को चुनौती विश्वविद्यालय के अधिकारियों और शिक्षकों से मिली है, कांग्रेस या आम आदमी पार्टी से नहीं। स्मृति ईरानी ने भी रोहित के सुसाइड नोट से एक लाइन पढ़ी थी कि हमारे संगठन में भी कुछ पानी खराब है। स्मृति ईरानी ने कहा कि पुलिस ने जो सुसाइड नोट दी है उसमें लिखा है कि देयर आर सम बैड वाटर इन अस। लेकिन मीडिया में जो सुसाइड नोट आया है उसमें यह लाइन नहीं है। हमारी सहयोगी उमा सुधीर का कहना है कि रोहित ने कुछ पंक्तियों को काट दिया था। अब उनका भी विश्लेषण हो रहा है। तो क्या उस काटी हुई पंक्ति का राजनीतिक इस्तेमाल नहीं हुआ। नेताओं का भी रोज-रोज पहुंचना नाटकीय होता जा रहा है। बेहतर है कि सभी नेता अपनी-अपनी सरकारों के यहां देखें कि उनके यहां का सिस्टम कैसा है। कुछ ऐसा करें जिससे विश्वविद्यालय के भीतर किसी को भेदभाव का शिकार न होना पड़े। कोई यह भी तो करके दिखाए, कुछ बेहतर कमेटियां बनाएं, अंबुड्समैन बहाल करे। सबको सार्वजनिक करे।
राजनीति का भूगोल कितना जटिल होता है। इंटरनेट का भूगोल उस जटिलता को और भी बढ़ा देता है। इंटरनेट पर हिन्दू दलों और हिन्दू पहचान वाले व्यक्तियों की मौजूदगी पर तो सबकी निगाह रहती हैं और ये खुद भी काफी सक्रिय रहते हैं। लेकिन रोहित वेमुला और इससे पहले आईआईटी मद्रास में अंबेडकर पेरियार स्टडी सर्किल के विवाद ने इंटरनेट पर दलित संगठनों और व्यक्तियों को थोड़ा और सक्रिय किया है। रोहित के मामले के संबंध में सक्रिय कुछ दलित वेबसाइट और ट्वीटर हैंडल की समीक्षा करने लगा तो कई रोचक तथ्य सामने आने लगे। इनकी संख्या कम तो है मगर आहट में टकराहट की गर्माहट दिखती है।
दरअसल बीजेपी इस मामले में कांग्रेस पर निशाना साध रही है, लेकिन कांग्रेस तो पार्टी ही नहीं है। आम आदमी पार्टी या तृणमूल भी नहीं है। दलित संगठनों की दुनिया में इस मामले को लेकर जो भूचाल आया हुआ है वो असली ताकत हैं जो इस मुद्दे पर राजनीतिक दलों को स्टैंड लेने के लिए मजबूर कर रही है। लेकिन कोई इन दलित संगठनों और हैंडलों को निशाना बनाने का साहस नहीं जुटा पाता। इंटरनेट हिन्दू तो आपने सुना होगा, डिजिटल दलित का दस्तक भी सुन लीजिए।
इन आक्रामक तस्वीरों से इंटरनेट की दुनिया के राजनीतिक लोग तो वाकिफ होंगे ही, हिन्दुत्व से जुड़े न जाने कितनी साइट्स होंगी और कितने ही ट्वीटर हैंडल। जैसे ट्वीटर पर कारसेवक नाम के इस हैंडल की तस्वीरें बाबरी मस्जिद के ध्वंस की तस्वीरें लगी हैं। इसे करीब 80 हज़ार लोग फोलो करते हैं। हिन्दू सुरक्षा दल के पचास हज़ार फॉलोअर हैं।
आम तौर पर ऐसी वेबसाइट या हिन्दुत्व का दावा करने वालों के ट्वीट हैंडल की प्रोफाइल तस्वीर में धार्मिक प्रतीक चिह्न होते हैं। तस्वीरों में हथियारों का चयन किया गया होता है और खास तरह की आक्रामकता दिखती है। हिन्दू वोलकैने की प्रोफाइल पिक्चर में भगवान शंकर के त्रिनेत खुले हुए हैं। 14 हज़ार लोग फोलो करते हैं। संस्थाओं और व्यक्तियों के कई हैंडल ऐसे हैं जिन्हें हज़ारों से लेकर लाखो लोग फॉलो करते हैं। इन सबकी एक राजनीतिक उपस्थिति है और खास तरह की आक्रामकता है।
मौजूदा राजनीतिक बहसों में इनका हस्तक्षेप मान्यताप्राप्त दलों से कहीं ज्यादा रहता है। प्रो. विनय लाल इन्हें इंटरनेट हिन्दू की संज्ञा देते हैं। ट्वीटर फेसबुक के पैदा होने से पहले से इंटरनेट पर इनकी खासी मौजूदगी रही है।
अब इस प्रोफाइल को देखिए। अंबेडकर्स कारवां का ट्वीटर हैंडल है। डॉक्टर अंबेडकर की तस्वीर है और उनका कथन लिखा है कि बर्थ से वर्थ तय नहीं होता यानी पैदा होने से आप महान नहीं हो जाते। अंबेडकर्स कारवां को 4,759 लोग ही फॉलो करते हैं। अंबेडकर्स कारवां की अपनी वेबसाइट है जिस पर कांशीराम का एक कोट है कि अगर हम जातिविहीन समाज बनाना चाहते हैं तो रूलींग क्लास बनना होगा।
बराबरी और इंसाफ की दुनिया कायम करना इस वेबसाइट का नारा है। मलेशिया में कांशीराम का दिया भाषण है कि विधायक सांसद बनना महत्वपूर्ण है या बाबा साहब अंबेडकर के सपनों को पूरा करने के लिए आंदोलन चलाना। इस वेबसाइट में हिन्दुत्व राजनीति को चुनौती दी गई है। हिन्दुत्व के प्रतीकों के विचारों की काट पेश की गई है।
अंबेडकर्स कारवां किसी पार्टी के कार्यकर्ता का नहीं है। बल्कि किसी भी पार्टी के समर्थन होने का दावा नहीं दिखता। 29 साल के प्रदीप इसे चलाते हैं जो पेशे से इंजीनियर हैं और कहते हैं कि मेरी मदद करनी हो तो 2 डालर की काफी खरीद लें। प्रदीप पंजाब का नौजवान है और संत रविदास जी और डॉक्टर अंबेडकर के सपनों को साकार होते देखना चाहता है। इनके यहां भी खासतरह की आक्रामकता दिखती है, जैसे इस तस्वीर में जो ट्वीट की गई है एक ब्राह्मण को चरखा कातते हुए दिखाया गया है और कहा गया है कि दरअसल वो दलित और मुसलमानों के लिए फांसी की रस्सी बना रहा है।
डिजिटल दुनिया में दलितों के धीरे धीरे ऐसे हैंडल भले ही हिन्दुत्व हैंडल की तुलना में लाखों हज़ारों में फॉलो न किए जाते हों मगर वे अब दस्तक देने लगे हैं। हिन्दुत्व के मुद्दों से बाकी पार्टियों भले न टकरा पाती हों लेकिन ये लोग खुल कर आलोचना पेश करते हैं। इनमें से ज्यादातर के हैंडल पर जाकर देखा तो ये सभी दलों की आलोचना करते हैं। दलित सांसदों विधायकों और दलित चिन्तकों की आलोचना करने से भी नहीं चूकते। दलित मुद्दों को ट्वीट करते हैं और उनके हिसाब से सही बात करने वालों को री-ट्वीट भी करते हैं।
ये दलित युवा दल का ट्वीटर हैंडल है। 1523 लोग फॉलो करते हैं। दलित आदिवासी गरीब और पिछड़ों के लिए दलित युवाओं द्वारा बनाया गया संगठन लिखा हुआ है। प्रोफाइल में बुद्धम शरणम गच्छामि लिखा है। एंबेडकर स्टुडेंट्स एसोसिएशन के बारे में लिखा है कि एक मज़बूत दलित विद्यार्थी संगठन की मांग सालों से थी, लगता है अब वो खत्म हुई है। जय भीम। लिखते हैं, मेरा समाज बहता पानी है। तुम हमारा रास्ता बदल सकते हो, हमारी मंज़िल नहीं, जय भीम। दलित युवा दल लेनिन को लाल सलाम भी करता है।
इन हैंडलों में जिस तरह से ब्राह्मणवाद और हिन्दुत्व की आलोचना है वो ज़ाहिर है हिन्दुत्व के समर्थकों को पसंद नहीं आएगी। आम तौर पर हिन्दुत्व की आलोचना करें तो आपके हैंडल पर हिन्दुत्व वाले आपके खिलाफ अभियान छेड़ देंगे।
आपके ट्वीटर हैंडल पर धावा बोल देंगे। लेकिन डिजिटल दलितों के ट्वीटर हैंडल पर उनकी मौजूदगी के निशान बेहद कम मिले। लगता है इंटरनेट हिन्दू और डिजिटल दलित अपने अपने मोहल्ले की दीवार से ही एक दूसरे को निशाना बनाते हैं। यह भी अच्छा है। ये खुलकर लिखते हैं कि विष्णु ने दिया है न शंकर ने दिया है, जो कुछ भी दिया है वो अंबेडकर ने दिया है।
ज़ाहिर है मुख्यधारा की पार्टियों में इस तरह से हिन्दुत्व को चुनौती देने का न तो साहस है और न समझ। लेकिन दलित संगठनों या अधिकारों की बात करने वाले व्यक्तियों के इन ट्वीटर हैंडल पर सामाजिक चिन्तकों की नज़र क्यों नहीं पड़ी हैरानी होती है। ये दलित सॉलीडैरिटी यूके का हैंडल है जिसे मात्र 2234 लोग ही फॉलो करते हैं। इनकी प्रोफाइल में लिखा है कि 26 करोड़ दलितों के खिलाफ जो जातिगत भेदभाव हो रहा है उसके खिलाफ नेटवर्क है। इसके हैंडल पर भी रोहित वेमुला की आत्महत्या से जुड़ी खबरों को खूब ट्वीट किया गया है और प्रतिक्रिया व्यक्त की गई है। यह नेटवर्क भारत में नहीं दुनिया के अन्य देशों में होने वाले भेदभाव का भी विरोध करता है। इसके हैंडल पर नेपाल के दलितों की व्यथा भी है।
ये दलित परिसंघ का ट्वीटर हैंडल है जिसे 489 लोग ही फॉलो करते हैं। इसका दावा है कि वो 30 करोड़ दलित आदिवासियों की आवाज़ का मंच है। इस संस्था ने रोहित वेमुला की याद में पुरस्कार की स्थापना की है। दलित ऑनलाइन नाम है इस हैंडल का जिसे अशोक भारती चलाते हैं और खुद को राष्ट्रीय दलित महासभा का अध्यक्ष बताते हैं। इसे 730 लोग फॉलो करते हैं। इन्होंने अपने ट्वीट से आरएसएस से सवाल किया है कि रोहित की मौत का मामला उसके लिए हिन्दू का मामला क्यों नहीं है। ये रामविलास पासवान की भी आलोचना करते हैं।
दलित महिला शक्ति, दलित धम्मा, दलित व्यास. इस तरह के हैंडल नाम से कई लड़कियां और नारीवादी संगठन भी डिजिटल दुनिया में दलितों की आवाज़ उठा रही हैं। इन तमाम हैंडलों पर भेदभाव का विरोध है और सबके लिए बराबरी की दुनिया की कल्पना है। इस हैंडल का नाम है @dalitdiva सौंदराराजन का यह अकाउंट हैं जो दलित रंगभेद और नस्ली हिंसा के खिलाफ अनेक माध्यमों में लिखती हैं। सौंदरा http://dalitnation.com के लिए काम करती हैं।
आईआईटी मद्रास में जब अंबेडकर पेरियार स्टडी सर्कल को लेकर विवाद हुआ था तब इनके ट्वीटर अकाउंट पर नज़र पड़ी थी। ये लोग काफी खुलकर बहस करते हैं। इनके संगठन की चर्चा किस अखबार या टीवी में नहीं हुई होगी फिर इन्हें 4,476 लोग ही फॉलो करते हैं। इनके हैंडल पर काफी गालियां हैं लेकिन ये लोग कई गालियों का खुलकर जवाब भी देते हैं। संवादशैली में। बीजेपी कांग्रेस दोनों के विरोधी हैं।
@Community Media डाक्टर अंबेडकर के भाषणों और विचारों को ट्वीट करता है।
दलित कैमरा। इस हैंडल को भले ही 3,529 लोग फॉलो करते हों मगर ये फेसबुक से लेकर यू-ट्यूब तक में मौजूद हैं। दलित कैमरा अंबेडकर एक युट्यूब चैनल है जो 2012 में हैं। इस चैनल में दलितों के खिलाफ भेदभाव के वीडियो डाले गए हैं। इसका दावा है कि ज्यादातर टीवी चैनल दलित मुद्दों को नज़रअंदाज़ करते हैं। प्रिंट मीडिया के कुछ हिस्सों में दलित हिंसा की रिपोर्ट होती है मगर टीवी तभी करता है जब कोई बड़ी घटना हो जाती हैं। दलित कैमरा के ट्वीटर प्रोफाइल पिक्चर में लिखा है कि हम उन कहानियों को सामने लाते हैं जिनपर दूसरे पर्दा डाल देते हैं। एक सर्वे है क्या आप जाति को समाप्त कर देंगे और जातिसूचक नाम भी हटा देंगे या रखना चाहेंगे। इनके सर्वे में तो 100 फीसदी लोगों ने कहा है कि वे जाति को समाप्त करना चाहेंगे। आम आदमी पार्टी से इनका सवाल है कि क्या वो ब्राह्मण बनिया पार्टी से दलित बहुजन की पार्टी बन पाएगी। दलित कैमरा बीजेपी को ब्राह्मणों की पार्टी कहता है।
दलित कैमरा के संस्थापक रविचंद्रन बाथरन हैं। तमिलनाडु के रहने वाले रविचंद्रन के माता-पिता सफाईकर्मी थे। रवि इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ अडवांस स्टडी शिमला में फेलो हैं। अंग्रेजी के छात्र रहे हैं। रवि खुद भी जातिगत भेदभाव की यातना झेल चुके हैं। उनका कहना है कि क्लास रूम के भीतर दलित छात्रों के साथ जो भेदभाव होता है वही उन्हें आत्महत्या की तरफ धकेल देता है।
संख्या के लिहाज़ से इनकी मौजूदगी भले कम हो मगर इस आगमन को आपको नोटिस करना चाहिए। इनके सवाल तल्ख हैं, आक्रामक हैं, बिना किसी लाग लपेट के हैं। इनकी बातें आक्रामक इसलिए लग सकती हैं क्योंकि इनके सवाल धर्म के सवालों से डरते नहीं हैं। ये धर्म को चुनौती देते हैं। इंसाफ पसंद और बराबरी की दुनिया बनाने की बेचैनी है।
(रवीश कुमार NDTV इंडिया में सीनियर एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं.)
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This Article is From Jan 21, 2016
हैदराबाद यूनिवर्सिटी में जब कुछ गड़बड़ नहीं तो सारे तथ्य सार्वजनिक करने में क्या हर्ज?
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:जनवरी 21, 2016 22:51 pm IST
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Published On जनवरी 21, 2016 21:59 pm IST
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Last Updated On जनवरी 21, 2016 22:51 pm IST
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