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This Article is From Nov 18, 2016

प्राइम टाइम इंट्रो : राष्ट्रवाद के नाम पर नियंत्रण का खेल

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    नवंबर 18, 2016 23:44 pm IST
    • Published On नवंबर 18, 2016 23:44 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 18, 2016 23:44 pm IST
दुनिया भर में सरकारों के कामकाज़ का तरीका बदल रहा है. सरकारें बदल रही हैं. धारणा यानी छवि ही नई ज़मीन है. उसी का विस्तार ही नया राष्ट्रवाद है. मीडिया अब सरकारों का नया मोर्चा है. दुनिया भर की सरकारें मीडिया को जीतने का प्रयास कर रही हैं. हर जगह मीडिया वैसा नहीं रहा जैसा होने की उम्मीद की जाती है. अमेरिका के चुनाव में डोनल्ड ट्रंप की जीत के बाद वहां लोग जागे तो जीते हुए को हराने की मांग करने लगे हैं. ट्रंप के ख़िलाफ़ रैलियां होने लगी कि आप हमारे राष्ट्रपति नहीं हैं. ट्रंप के बहाने फिर से उन्हीं सवालों पर बहस होने लगी है कि समय के बदलाव को पकड़ने में मीडिया और चिंतनशील लोग क्यों चूक जा रहे हैं. 19 नवंबर 2016 के इकोनोमिस्ट में एक लेख छपा है.

शीर्षक है लीग ऑफ नेशनलिस्ट. यह लेख इस सवाल की पड़ताल करता है कि पूरी दुनिया में राष्ट्रवाद का उभार क्यों हो रहा है. क्यों इस उभार को बड़े महानगरों में जमे बुद्धि‍जीवि नहीं समझ पा रहे हैं कि राष्ट्रवाद आज की राजनीति का अभिन्न अंग हो गया है. ट्रंप ने अपने भाषणों में अमेरिका के गौरव और सीमा रेखाओं पर दीवारें खड़ी करने का नारा दिया है. दुनिया के कई मुल्कों में इस तरह की बोली बोलने वालों के पीछे भीड़ आ रही है. यह गुस्सा है तो किसके खिलाफ गुस्सा है. किसकी नाकामी के खिलाफ गुस्सा है. ट्रंप ने खुलेआम कहा कि बाहर के मुल्कों से काम करने आए लोगों को अमेरिका से निकालेंगे. अमेरिका से बिजनेस करने वाली बाहर की कंपनियों में अमेरिकी लोगों की नौकरी के लिए कोटा मांगेंगे. मेक्सिको की सीमा पर दीवार बनाएंगे. इस तरह का राष्ट्रवाद आजकल हर जगह उभर रहा है. अपने मुल्क से मोहब्बत की यह शर्त ज़्यादा मुखर होने लगी है कि आप किसी और मुल्क से नफरत करते हैं. किसी के प्रति अविश्वास को उभारना होता है.

फ्रांस लंदन, पोलैंड, रूस, अमेरिका, ऑस्ट्रिया के नेता इन्हीं मुद्दों पर लोकप्रियता हासिल कर रहे हैं. इन्हीं मुद्दों पर सत्ता में अपनी पकड़ बनाए हुए हैं. ग्लोबल दौर में सब यही समझ रहे थे कि अब सब ग्लोबल नागरिक बन चुके हैं. ये तमाम नेता अतीत के गौरव की बात करते हैं. फिर से अमेरिका को महान बनाना है. भारत को सोने की चिड़िया का देश बनाना है. फ्रांस को महान बनाना है. फ्रांस से लेकर अमेरिका के नेता अपने मुल्कों का नाम पूरी दुनिया में फिर से रौशन करने की इस तरह से बातें कर रहे हैं जैसे क्लास रूम से ग्लोब खो गया है. लोग मुल्कों के नाम भूल गए हों और कोई कोलंबस या वास्कोडिगामा फिर से दुनिया को खोजने निकला हो.

पिछले साल न्यूयॉर्क टाइम्स में एक लेख छपा था. इकनोमिक्स की प्रोफेसर सर्जेई गुरीव और राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर डेनियल त्रेसमन का यह लेख कहता है कि आजकल नए प्रकार के अथारीटेरियन सरकारों का उदय हो चुका है. ये सरकारें विपक्ष को खत्म कर देती हैं. थोड़ा बचा कर रखती हैं ताकि लोकतंत्र का भ्रम बना रहे. इन सरकारों ने ग्लोबल मीडिया और आईटी युग के इस्तेमाल से विपक्ष का गला घोंट दिया है. अति प्रचार, दुष्प्रचार यानी प्रोपेगैंडा का खूब सहारा लिया जाता है. सेंशरशिप के नए नए तरीके आ गए हैं. सूचना संबंधी तरकीबों का इस्तमाल होता है ताकि रेटिंग बढ़ सके. नागरिकों को अहसास दिलाया जाता रहता है, आपके पास दूसरा विकल्प नहीं है. हमीं श्रेष्ठ विकल्प हैं. इस लेख में इन शासकों को नया ऑटोक्रेट कहा गया है जो मीडिया को विज्ञापन की रिश्वत देते हैं. मीडिया पर केस करने की धमकी देते हैं. नए नए निवेशकों को उकसाते हैं कि सरकार की आलोचना करने वाले मीडिया संस्थान को ही ख़रीद लें. मीडिया पर नियंत्रण इसलिए ज़रूरी है कि अब सब कुछ धारणा है. आपको लगना चाहिए कि हां ये हो रहा है. लगातार विज्ञापन और भाषण यकीन दिलाते हैं कि हो रहा है. ज़मीन पर भले न हो रहा हो.

रूस के राष्ट्रपति पुतीन ने पश्चिम की एक बड़ी पी आर कंपनी Ketchum को हायर किया ताकि वो क्रेमलिन के पक्ष में पश्चिम के देशों में लॉबी कर सकते. कुछ लोग पश्चिम के नेताओं को नियुक्त कर लेते हैं. जैसे नुरसुलतान ने टोनी ब्लेयर को किया या उनके किसी फाउंडेशन में चंदा दे देते हैं. इंटरनेट पर युद्ध सा चल रहा है. वहां लगातार ज़मीन कब्ज़े जैसा अभियान चल रहा है. गाली देने वाले और धमकाने वाले ट्रोल्स को पैसे देकर रखा जाता है. इनका काम होता है व्हाट्सऐप और ट्वीटर पर दिन रात विरोधी के खिलाफ अफवाहों का बाज़ार बनाए रखना. ये ट्रोल्स आपके कमेंट बाक्स को सत्ता पक्ष की बातों से भर देते हैं. आपकी आलोचना को गाली गाली देदेकर अहसास करा देते हैं कि पूरी दुनिया आपके खिलाफ है. विपक्ष की मीडिया साइट को खत्म करना भी इनकी रणनीति का हिस्सा होता है. पर पूरी तरह से विपक्ष को समाप्त नहीं किया जाता है. थोड़ा सा बचा कर रखा जाता है ताकि लोकतंत्र का भ्रम बना रहे.दुनिया भर में सरकारों के कामकाज़ का तरीका बदल रहा है. सरकारें बदल रही हैं. धारणा यानी छवि ही नई ज़मीन है. उसी का विस्तार ही नया राष्ट्रवाद है. मीडिया अब सरकारों का नया मोर्चा है. दुनिया भर की सरकारें मीडिया को जीतने का प्रयास कर रही हैं. हर जगह मीडिया वैसा नहीं रहा जैसा होने की उम्मीद की जाती है. अमेरिका के चुनाव में डोनल्ड ट्रंप की जीत के बाद वहां लोग जागे तो जीते हुए को हराने की मांग करने लगे हैं. ट्रंप के ख़िलाफ़ रैलियां होने लगी कि आप हमारे राष्ट्रपति नहीं हैं. ट्रंप के बहाने फिर से उन्हीं सवालों पर बहस होने लगी है कि समय के बदलाव को पकड़ने में मीडिया और चिंतनशील लोग क्यों चूक जा रहे हैं. 19 नवंबर 2016 के इकोनोमिस्ट में एक लेख छपा है.

शीर्षक है लीग ऑफ नेशनलिस्ट. यह लेख इस सवाल की पड़ताल करता है कि पूरी दुनिया में राष्ट्रवाद का उभार क्यों हो रहा है. क्यों इस उभार को बड़े महानगरों में जमे बुद्धि‍जीवि नहीं समझ पा रहे हैं कि राष्ट्रवाद आज की राजनीति का अभिन्न अंग हो गया है. ट्रंप ने अपने भाषणों में अमेरिका के गौरव और सीमा रेखाओं पर दीवारें खड़ी करने का नारा दिया है. दुनिया के कई मुल्कों में इस तरह की बोली बोलने वालों के पीछे भीड़ आ रही है. यह गुस्सा है तो किसके खिलाफ गुस्सा है. किसकी नाकामी के खिलाफ गुस्सा है. ट्रंप ने खुलेआम कहा कि बाहर के मुल्कों से काम करने आए लोगों को अमेरिका से निकालेंगे. अमेरिका से बिजनेस करने वाली बाहर की कंपनियों में अमेरिकी लोगों की नौकरी के लिए कोटा मांगेंगे. मेक्सिको की सीमा पर दीवार बनाएंगे. इस तरह का राष्ट्रवाद आजकल हर जगह उभर रहा है. अपने मुल्क से मोहब्बत की यह शर्त ज़्यादा मुखर होने लगी है कि आप किसी और मुल्क से नफरत करते हैं. किसी के प्रति अविश्वास को उभारना होता है.

फ्रांस लंदन, पोलैंड, रूस, अमेरिका, ऑस्ट्रिया के नेता इन्हीं मुद्दों पर लोकप्रियता हासिल कर रहे हैं. इन्हीं मुद्दों पर सत्ता में अपनी पकड़ बनाए हुए हैं. ग्लोबल दौर में सब यही समझ रहे थे कि अब सब ग्लोबल नागरिक बन चुके हैं. ये तमाम नेता अतीत के गौरव की बात करते हैं. फिर से अमेरिका को महान बनाना है. भारत को सोने की चिड़िया का देश बनाना है. फ्रांस को महान बनाना है. फ्रांस से लेकर अमेरिका के नेता अपने मुल्कों का नाम पूरी दुनिया में फिर से रौशन करने की इस तरह से बातें कर रहे हैं जैसे क्लास रूम से ग्लोब खो गया है. लोग मुल्कों के नाम भूल गए हों और कोई कोलंबस या वास्कोडिगामा फिर से दुनिया को खोजने निकला हो.

पिछले साल न्यूयॉर्क टाइम्स में एक लेख छपा था. इकनोमिक्स की प्रोफेसर सर्जेई गुरीव और राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर डेनियल त्रेसमन का यह लेख कहता है कि आजकल नए प्रकार के अथारीटेरियन सरकारों का उदय हो चुका है. ये सरकारें विपक्ष को खत्म कर देती हैं. थोड़ा बचा कर रखती हैं ताकि लोकतंत्र का भ्रम बना रहे. इन सरकारों ने ग्लोबल मीडिया और आईटी युग के इस्तेमाल से विपक्ष का गला घोंट दिया है. अति प्रचार, दुष्प्रचार यानी प्रोपेगैंडा का खूब सहारा लिया जाता है. सेंशरशिप के नए नए तरीके आ गए हैं. सूचना संबंधी तरकीबों का इस्तमाल होता है ताकि रेटिंग बढ़ सके. नागरिकों को अहसास दिलाया जाता रहता है, आपके पास दूसरा विकल्प नहीं है. हमीं श्रेष्ठ विकल्प हैं. इस लेख में इन शासकों को नया ऑटोक्रेट कहा गया है जो मीडिया को विज्ञापन की रिश्वत देते हैं. मीडिया पर केस करने की धमकी देते हैं. नए नए निवेशकों को उकसाते हैं कि सरकार की आलोचना करने वाले मीडिया संस्थान को ही ख़रीद लें. मीडिया पर नियंत्रण इसलिए ज़रूरी है कि अब सब कुछ धारणा है. आपको लगना चाहिए कि हां ये हो रहा है. लगातार विज्ञापन और भाषण यकीन दिलाते हैं कि हो रहा है. ज़मीन पर भले न हो रहा हो.

रूस के राष्ट्रपति पुतीन ने पश्चिम की एक बड़ी पी आर कंपनी Ketchum को हायर किया ताकि वो क्रेमलिन के पक्ष में पश्चिम के देशों में लॉबी कर सकते. कुछ लोग पश्चिम के नेताओं को नियुक्त कर लेते हैं. जैसे नुरसुलतान ने टोनी ब्लेयर को किया या उनके किसी फाउंडेशन में चंदा दे देते हैं. इंटरनेट पर युद्ध सा चल रहा है. वहां लगातार ज़मीन कब्ज़े जैसा अभियान चल रहा है. गाली देने वाले और धमकाने वाले ट्रोल्स को पैसे देकर रखा जाता है. इनका काम होता है व्हाट्सऐप और ट्वीटर पर दिन रात विरोधी के खिलाफ अफवाहों का बाज़ार बनाए रखना. ये ट्रोल्स आपके कमेंट बाक्स को सत्ता पक्ष की बातों से भर देते हैं. आपकी आलोचना को गाली गाली देदेकर अहसास करा देते हैं कि पूरी दुनिया आपके खिलाफ है. विपक्ष की मीडिया साइट को खत्म करना भी इनकी रणनीति का हिस्सा होता है. पर पूरी तरह से विपक्ष को समाप्त नहीं किया जाता है. थोड़ा सा बचा कर रखा जाता है ताकि लोकतंत्र का भ्रम बना रहे.

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