धरना-प्रदर्शन...आम जन कुछ इस तरह भी जिंदा रखे हैं लोकतंत्र

धरना-प्रदर्शन...आम जन कुछ इस तरह भी जिंदा रखे हैं लोकतंत्र

आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के आंदोलन का फाइल फोटो।

सरकार और नागरिक का रिश्ता बड़ा ही नाज़ुक होता है। विश्वास का भी होता है और अविश्वास का भी। समर्थन का भी होता है और विरोध का भी। मांग का भी होता है और इनकार का भी। आप एक नागरिक के तौर पर जब भी कभी कहीं धरना-प्रदर्शन देखते हैं तो आपकी प्रतिक्रिया क्या होती होगी। मुझे ठीक-ठीक तो नहीं मालूम मगर कई लोग मिलते हैं जो इनसे सहानुभूति रखते हैं और कई लोग मिलते हैं जो इनका मजाक भी उड़ाते हैं। लोकतंत्र में मतदान करना और चुनाव के बाद सरकार बना लेने भर से एक नागरिक का लोकतांत्रिक कर्तव्य समाप्त नहीं हो जाता है। उसका असली संघर्ष सरकार बनने के बाद शुरू होता है जब वह अपनी मांगों को लेकर सरकार के सामने अपनी दावेदारी करता है। कई प्रदर्शन इस आस में समाप्त हो जाते हैं कि काश कोई पत्रकार आएगा और हमारी तस्वीर दिखाएगा। कई प्रदर्शन इस बात की चिन्ता ही नहीं करते हैं। उन्हें पता है कि जब वे प्रदर्शन करेंगे तो कैमरे वाले आएंगे ही आएंगे। कांग्रेस और बीजेपी के प्रदर्शनों को बाकी प्रदर्शनों से ज्यादा सौभाग्य प्राप्त है।

रघुपति राघव राजा राम उनको बुद्धि दे भगवान...जरूरी नहीं कि गांधी की प्रतिमा के सामने धरना-प्रदर्शन किया जाए तो 'रघुपति राघव राजा राम' ही गाया जाए। गांधी इस भजन को अलग संदर्भ में गाते थे। राजनीति ने इसके बोल भी बदल दिए। सनमति की जगह बुद्धि का इस्तमाल होने लगा। भाजपा सांसद संसद परिसर के भीतर बनी गांधी प्रतिमा के सामने प्रदर्शन कर रहे थे। मांग कर रहे थे कि इटली की अदालत में जिन लोगों ने पैसा खाया, देश की जनता जानना चाहती है कि घूस किसने ली है। यह जनता के सामने आएगा। भाजपा की सरकार है फिर भी वे प्रदर्शन कर रहे हैं। एक बार लगा कि कहीं वे मांग तो नहीं कर रहे हैं कि घूस लेने वाले का नाम बताओ, मगर यहां हुई बातों से लगा कि वे आश्वासन भी दे रहे हैं कि घूस लेने वालों का नाम देश की जनता के सामने आएगा। संसद में अगुस्ता मामले पर बहस हो रही है और बीजेपी के सांसद बाहर धरने पर बैठे हैं। बीजेपी सांसद नारे लगा रहे थे निर्णय आया इटली में, बेचैन दलाल दिल्ली में। बीजेपी के नेताओं का कांग्रेस नेतृत्व पर आरोप है कि अगुस्ता वेस्टलैंड में दलाली में वे भी शामिल हैं।

संसद परिसर के भीतर बीजेपी सांसद धरने पर बैठे थे तो जंतर मंतर पर कांग्रेस लोकतंत्र बचाओ प्रदर्शन कर रही थी। ऐसा लगा कि दोनों पार्टी के नेता छत पर खड़े होकर देख रहे थे कि किसके प्रदर्शन मे ज्यादा भीड़ आई है और कहां जोरदार नारे लग रहे हैं। कांग्रेस के प्रदर्शन में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी आए। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी भी पहुंचे।

जंतर मंतर का प्रदर्शन चैनलों पर खूब लाइव दिखाया गया। कांग्रेस के नेता मंच से बोल रहे थे कि देश में लोकतंत्र का गला घोंटा जा रहा है। संस्थाओं पर संघ का कब्ज़ा हो रहा है। राहुल गांधी ने कहा कि देश में दो ही लोगों की चलती है। प्रधानमंत्री मोदी और संघ प्रमुख मोहन भागवत। सोनिया गांधी से लेकर सभी नेताओं ने अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने को लेकर मोदी सरकार की आलोचना की। सोनिया गांधी ने कहा कि वे किसी से डरने वाली नहीं हैं। लोकसभा के अंदर ज्योतिरादित्य सिंधिया कह गए कि सोनिया गांधी शेरनी हैं। शेरनी है। शेरनी को खदेड़ोगे तो उत्तर क्या होगा आपको मालूम चल जाएगा। छप्पन इंच का सीना अगर लोकतंत्र में एक खराब रूपक है तो नेताओं को शेरनी की तरह पेश करना भी खराब रूपक है। यह मेरी निजी राय है। मनमोहन सिंह ने कहा कि मैं मोदी सरकार से कहना चाहता हूं कि कांग्रेस बहती गंगा की तरह है। आप चाहे इसे बदनाम कीजिए या कुछ कीजिए यह अपना रास्ता नहीं बदलेगी। गंगा के रूपक ने भी बीजेपी को मौका दे दिया। रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने जवाब दे दिया कि आप क्यों चिन्तित हैं। मैंने तो किसी का नाम नहीं लिया। आप ही जानते होंगे कि गंगा कहां जा रही है। त्यागी और खेतान तो छोटे लोग हैं जिन्होंने बस बहती गंगा में हाथ धोया है। लोकसभा चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री मोदी गंगा को लेकर भावुक होते थे, चुनाव हारने के बाद मनमोहन सिंह गंगा को लेकर भावुक हुए तो बीजेपी को भी हैरानी हुई होगी। इस पॉलिटिक्स में जरूर मां गंगा कन्फ्यूज़ हो गई होंगी। जरूर जब प्रधानमंत्री मोदी की बारी आएगी तो कह देंगे कि तभी तो मैं गंगा साफ करने की बात कर रहा हूं। हो जाता है राजनीति में रूपकों के इस्तमाल में गड़बड़ी हो जाती है। इसके बाद कांग्रेस के नेताओं ने गिरफ्तारी भी दी जिसके बाद छोड़ दिया गया।

नागपुर के इशारे पर सरकार चलती है। सोनिया गांधी ने मोदी सरकार पर आरोप लगाया। जब कांग्रेस की सरकार थी तब बीजेपी आरोप लगाता थी कि मनमोहन सरकार दस जनपथ के इशारे पर चलती है। दोनों की बातों से लगता है कि भारत सरकार इशारे पर चल सकती है। उत्तराखंड को लेकर कांग्रेस का यह प्रदर्शन था तो बीजेपी का अगुस्ता वेस्टलैंड को लेकर। बीजेपी कांग्रेस के समय में लगे आपातकाल से लेकर राष्ट्रपति शासनों की याद दिलाने लगी। इसी बीच सुप्रीम कोर्ट से फैसला आया कि दस मई को दो घंटे के लिए राष्ट्रपति शासन हटेगा और उत्तराखंड की विधानसभा में हरीश रावत को अपना बहुमत साबित करना होगा। बहुमत की प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में होगी। 9 बागी विधायक विश्वास मत में हिस्सा नहीं ले सकेंगे। इससे कांग्रेस उत्साहित हो गई। सोचिए अगर सुप्रीम कोर्ट हाई कोर्ट के फैसले को पलट देता तो जंतर मंतर पर लोकतंत्र को बचाने के लिए पहुंची कांग्रेस की क्या हालत होती। कांग्रेस और बीजेपी ने फैसले का स्वागत किया, जैसे दोनों ने शुक्रवार को प्रदर्शन किया।

जंतर मंतर पर महिलाओं का कोरस गान था तो कहीं नुक्क्ड़ नाटक का प्रबंध था। कांग्रेस पूरी तैयारी के साथ जंतर मंतर पर आई थी। पोस्टर में काफी बदलाव और नयापन था लेकिन एक चेहरे को देखकर पत्रकार हैरान हो गए कि लोकतंत्र बचाने के बीच में रोबर्ट वाड्रा क्या कर रहे हैं। वे तो प्राइवेट सिटीजन हैं। कहीं उन्हें भी तो इसी बहाने बचाने का प्रयास नहीं हो रहा है। वैसे उनके खिलाफ हो रही जांच का नतीजा अभी तक सामने नहीं आया है। इस पोस्टर के कारण कांग्रेस कार्यकर्ता जगदीश शर्मा की भी कवरेज खूब हो गई। कांग्रेस को जवाब देना पड़ा कि जगदीश शर्मा ने यह पोस्टर बिना मान्यता के लगा दिए। यहां पर प्रियंका गांधी की भी तस्वीर देखी गई। इसी बीच यह भी देखा गया कि एक नौजवान कांग्रेस सांसद अंबिका सोनी के साथ सेल्फी लेने के लिए संघर्षरत है। अंबिका जी भी झेंप गईं। युवक सेल्फी लेने में सफल रहा है या नहीं ज्ञात नहीं है।

इन प्रदर्शनों से मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को भी कुछ कहने का मौका मिल गया। पहली बार की सरकार में जब मुख्यमंत्री रहते हुए केजरीवाल धरने पर बैठे थे तब काफी आलोचना हुई थी और मजाक भी उड़ा था कि कहीं सीएम भी धरने पर बैठता है। बाद में रिसर्च होने लगा कि पहले कौन कौन बैठ चुका है। कांग्रेस बीजेपी के धरना प्रदर्शन से केजरीवाल को मौका मिला कि अपना पुराना हिसाब चुकता किया जाए।

बीजेपी और कांग्रेस दोनों धरना पार्टी हैं। दोनों हर दिन धरना देती है। आज बीजेपी अपने ही खिलाफ धरने पर है। सिर्फ आप है जो गर्वेनंस पर खरे उतर रही है। यह बस याद दिलाने के लिए कि जब धरनों का दौर चल रहा था तब दिल्ली में धरनों को लेकर क्या-क्या बातें हो रही थीं। धरना-प्रदर्शन से पता चलता है कि हमारा लोकतंत्र कितना जीवंत है। इससे यह भी पता चल जाता है कि तंत्र तो जीवंत है और लोकतंत्र के सामने संघर्ष करते-करते मृत्युपर्यंत मुद्रा में आ चुका है। कई बार जब दूसरे प्रदर्शन करते हैं तो हम ध्यान नहीं देते। भूल जाते हैं कि हमारी भी बारी आ सकती है। जब हमारी बारी आती है तब हम भी वही शिकायत करने लगते हैं कि इस लोकतंत्र का कुछ नहीं हो सकता। किसी को यहां फर्क क्यों नहीं पड़ता है।

जंतर मंतर पर गुरुवार को आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं ने प्रदर्शन किया था। मगर इनका लाइव कवरेज नहीं हुआ होगा। दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, यूपी, राजस्थान से सैकड़ों आंगनवाड़ी वर्कर आईं थीं। इनकी मांग है आंगनवाड़ी वर्करों को स्थाई किया जाए और सरकारी कर्मचारी का दर्जा मिले। वर्कर को 24 हजार का वेतन मिले और हेल्पर को 18 हजार महीना। पिछले बजट से आईसीडी एस योजना का पैसा कम किया जा रहा है। इससे पोषाहार पर असर पड़ रहा है। शुक्रवार को भी आईटीओ पर दिल्ली के आंगनवाड़ी वर्करों ने प्रदर्शन किया। बहुत मुश्किल से हम आईटीओ वाले प्रदर्शन की तस्वीर हासिल कर पाए।

पता चला कि पिछले चालीस साल से देश भर में आंगनवाड़ी महिलाएं अपनी मांगों को लेकर धरना प्रदर्शन कर रही हैं। राज्यों की राजधानी में धरना होता है। दिल्ली आकर भी धरना होता है। समाज व बाल कल्याण मंत्री को ज्ञापन दिया जाता है और उसके बाद फिर अगले प्रदर्शन की तैयारी शुरू हो जाती है। इसीलिए मैंने कहा कि एक नागरिक के तौर पर कई बार हम ऐसे जरूरी धरना-प्रदर्शनों के प्रति उदासीन हो जाते हैं। कई बार ऐसे धरना प्रदर्शनों से उत्साहित हो जाते हैं जहां असली मुद्दे कम होते हैं, नारेबाज़ियां ज़्यादा होती हैं। जंतर मंतर और संसद परिसर की गांधी मूर्ति के प्रदर्शन की तस्वीर पहले पन्ने पर होगी। आंगनवाड़ी वर्करों के प्रदर्शनों की तस्वीरें आप खुद भी खोजिए। किस पेज नंबर पर होती है।

15 फरवरी 2016 को भी एक प्रदर्शन हुआ था। फिर हमने सीटू से पूछा कि आप लोग आंगनवाड़ी वर्करों को लेकर कब से प्रदर्शन कर रहे हैं तो हाल फिलहाल के कुछ प्रदर्शन गिनाने लगे कि 2006 की भूख हड़ताल पर महिलाएं बैठी थीं। 2008 में दो करोड़ हस्ताक्षर किए थे। 2010 में 17000 वर्करों ने दो दिन और दो रात का आंदोलन किया था। 2011 में संसद तक मार्च किया। 10 जुलाई 2013 को देश भर में चार लाख आंगनवाड़ी वर्कर सड़कों पर उतरीं और काला दिवस मनाया। 2014 में 2 करोड़ दस्तखत के साथ संसद तक मार्च निकाला। 2015 में भी संसद तक मार्च निकाला।

आंगनवाड़ी भारत ही नहीं, दुनिया का एक बड़ा सामाजिक कार्यक्रम है। आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं की कमाई भी बहुत नहीं होती। 3000 रुपया महीने का मिलता है। हमने एक आंगनवाड़ी वर्कर से पूछा कि वे पंजाब से कैसे आती हैं तो बताया कि सारी महिलाएं पांच-पांच सौ रुपये देती हैं। बस किराये पर लेती हैं और फिर जंतर मंतर आकर धरना देती हैं। वे अपनी इस भूमिका से लोकतंत्र को कितना समृद्ध करती हैं आप सिर्फ इतना सोच लें तो इनके प्रति श्रद्धा उमड़ आएगी। अलग-अलग राज्यों में अलग अलग वेतन हैं, अलग-अलग शर्तें हैं। केरल में दस हजार वेतन मिलता है तो कई राज्यों में न्यूनतम मजदूरी से भी कम 3000 रुपये। आंगनवाड़ी वर्कर अगर मां और देवी टाइप की कैटगरी में आती तो भावुक समां बंध जाता। क्या पता सरकारें अपना खजाना इनके लिए खोल देतीं। दिक्कत यह है कि मां और देवी का मेडल भी अमीर और मध्यमवर्गीय महिलाओं को मिल जाता है। देश भर में आंगनवाड़ी के 14 लाख केंद्र हैं और 27 लाख वर्कर हैं।

आंगनवाड़ी का मतलब क्या है। सामाजिक कल्याण विभाग इंटरव्यू के बाद वर्करों की अस्थाई तौर पर नियुक्ति करता है। वर्कर के लिए 12 वीं  पास होना जरूरी है। सभी महिलाएं होती हैं। बच्चों को टीके लगाना, खाना खिलाना, महिलाओं को पोषक तत्वों की जानकारी देना, यह सब इनका काम है।

चालीस साल तक प्रदर्शन करें तो उनका साथ देना चाहिए और उस साधना के मर्म को समझना चाहिए। दिक्कत यह है कि जब तक मामला भावुक नहीं होता, उसमें राष्ट्रवाद या देशभक्ति के नाम पर या कांग्रेस बनाम बीजेपी के नाम पर कुतर्क करने की संभावना नहीं होती मीडिया, सरकार, समाज और आपमें से भी कई इन प्रदर्शनों को कमतर निगाह से देखते हैं। अब देखिए फरवरी और मार्च महीने में जेएनयू को लेकर कितना हंगामा हुआ। सबकी राय बन गई। आज उसी जेएनयू में उसी आंदोलन का अगला चरण चल रहा है। कई दिनों से लेफ्ट और एबीवीपी के छात्र अनशन पर बैठे हैं मगर कोई सुनवाई नहीं। छात्रों की हालत भी बिगड़ रही है। तब भी कोई हलचल नहीं।

जेएनयू में छात्रों के अनशन के मुद्दे पर शाम में लेफ्ट, कांग्रेस और जेडीयू के नेता राष्ट्रपति से मिले। इन्होंने राष्ट्रपति से अपील की कि आप विज़िटर हैं इसलिए इस मामले में दखल दें। सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी ने कहा कि कन्हैया कुमार एम्स में हैं, बाकी छात्रों की हालत भी बिगड़ रही है, इसलिए राष्ट्रपति को दखल देना चाहिए। उन्होंने कहा कि जो मामला कोर्ट में है उस पर इस तरह यूनिवर्सिटी का फैसला ठीक नहीं है। वहीं कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने आरोप लगाया कि भारतीय जनता पार्टी और संघ का एजेंडा है शिक्षण संस्थानों में अपनी विचारधारा थोपना और जो लोग योग्य नहीं हैं उन्हें योग्य बताकर वाइस चांसलर बनाना। कांग्रेस का यह भी कहना है कि कन्हैया पर कोई भी आरोप साबित नहीं हुआ है। हमारे सहयोगी परिमल कुमार जेएनयू के मामले पर लगातार रिपोर्ट कर रहे हैं। परिमल ने बताया कि जेएनयू के कई पूर्व छात्र शनिवार से रिले हंगर स्ट्राइक पर बैठेंगे। शनिवार पांच बजे गंगा ढाबा से छात्र, अभिभावक और शिक्षक मिलकर प्रशासनिक ब्लाक तक मानव श्रृंखला बनाकर जाएंगे।

कई लोग ट्वीटर फेसबुक पर कमेंट करके लोकतांत्रिक माहौल बना देते हैं। कई बार ट्वीटर से आंदोलन भी चला देते हैं जैसे हाल ही में आम्रपाली ग्रुप से फ्लैट खरीदने वालों ने किया। कई बार लोग ट्वीटर पर हैशटैग चलाते-चलाते थक जाते हैं, माहौल नहीं बन पाता। पहले ही एफडीडीआई फुटवेयर डिज़ाइन एंड डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट के छात्र भी खूब ट्वीट करते रहे, जंतर मंतर पर प्रदर्शन करते रहे कि उन्हें डिग्री की जगह डिप्लोमा दिया जा रहा है। पीटीआई की खबर के अनुसार वाणिज्य मंत्रालय ने मानव संसाधन मंत्रालय से इनकी मांग पर विचार करने के लिए कहा है। दरअसल आपको यह भी समझना है कि यह जो रोज रात को टीवी पर घंटा-घंटा बहस होती है उसे हम भी करते हैं और आप भी खूब चटखारे लेकर देखते हैं। मजा आया कि बीजेपी कांग्रेस को मजा चखा दिया। इस खेल में एंकर नायक बनता जा रहा है और देश की कई समस्याएं पीछे छूटती जा रही हैं। आम लोगों की समस्याओं को आवाज नहीं मिल रही है। नतीजा मुझे ही सैंकड़ों चिट्ठियां आती हैं। बहुत से ईमेल आते हैं। मैं अपनी बात बता रहा हूं। जबकि मेरी तो कोई रेटिंग भी नहीं आती। जिन चैनलों को नंबर वन की रेटिंग आती है उनके एंकर को तो लाखों में लोग चिट्ठियां लिखते होंगे। अपनी समस्याओं को लेकर। इस कारण यह भी हो रहा है कि राज्यों और कस्बों से खबरें दिल्ली तक चलकर नहीं आ पाती हैं। जैसे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में भी आंदोलन हो रहा है।  

हर सरकार और हर राज्य की यही हालत है। ठेके पर रखे गए शिक्षकों की बात करने लगूं तो दस बारह दिनों तक उनकी व्यथा ही दिखाता रह जाऊंगा। नेता चुनाव के दिनों में मंच पर इतने संवेदनशील नज़र आते हैं कि लगता है कि कहीं गलती से ये किसी की उंगली में कटने के निशान देख लें तो बेहोश न हो जाएं। चुनाव के बाद इन्हीं नेताओं और अफसरों के आगे मांग करने वाले मांग करते-करते होश खो बैठते हैं। एक तरह से अवचेतन की अवस्था में चले जाते हैं।

महाराष्ट्र के बुलढाणा में पीडब्लूडी के कामकाज पर नाराजगी जाहिर करने के लिए एनसीपी के कार्यकर्ताओं ने उनकी मीटिंग में नागिन डांस शुरू कर दिया। अचानक शुरू हुए इस अनोखे विरोध प्रदर्शन से अफसर भी हैरान थे। दरअसल यहां पीडब्लूडी विभाग रेलवे स्टेशन के पास फुटपाथ बनाने का काम कर रहा था, लेकिन यह काम अचानक रोक दिया गया। कई बार लोगों ने शिकायत की लेकिन जब कोई कार्रवाई नहीं हुई तो विरोध प्रदर्शन का यह अनोखा तरीका अपनाया गया। यह कार्यकर्ता विकास अनुसूची के लिए चल रही मीटिंग में पहुंचे और अपनी बात रखनी चाही। विरोध के लिए नागिन डांस भी किया।

एक और अंतर है। जैसे दिल्ली में डीज़ल बैन को लेकर कई तरह की राय आनी शुरू हुई तो डीजल टैक्सी चलाने वालों ने आंदोलन किया। जैसे सारे आंदोलन होते हैं वैसे ही किया। मगर उनके आंदोलन को देश के विकास में बाधा की तरह देखा गया क्योंकि इससे लंबा जाम लग गया। गरीब आदमी को अपनी आवाज पहुंचाने के लिए सड़क पर ही उतरना होता है। वही देखिए विरोध आईटी कंपनियां भी कर रही हैं क्योंकि उनके कर्मचारी इन्हीं डीज़ल टैक्सियों से आते-जाते हैं। इनकी संस्था नैसकाम ने सिर्फ बयान दे दिया कि डीज़ल टैक्सी बंद होने से एनसीआर के बीपीओ उद्योग पर असर पड़ेगा और कंपनियां यहां से चली गईं तो रोजगार कम हो जाएगा। यह भी एक तरह की धमकी ही थी लेकिन इसे आर्थिक चेतावनी की तरह देखा गया है। इस तरह देखा गया जैसे स्वागत की कोई बात हो। टैक्सी चालक भी यही बात कह रहे थे कि उनके रोजगार पर असर पड़ेगा लेकिन उन्हें खलनायक की तरह देखा गया। कब कैसा नज़रिया हो जाता है पता नहीं चलता है।

आशा कार्यकर्ता के बारे में आपने सुना ही होगा। प्राइमरी स्वास्थ्य केंद्रों तक गर्भवती महिलाओं को पहुंचाने का कार्य करती हैं। हर बार चेकअप के लिए ले जाना ताकि गर्भवती महिला और बच्चे की सही देखरेख हो सके। हमारे देश में जन्म से पहले, जन्म के दौरान और जन्म के बाद बच्चों के मरने की संख्या काफी ज्यादा है। जाहिर है आशा वर्कर की भूमिका काफी महत्वपूर्ण है। नाम आशा है मगर इनकी निराशा को कोई नहीं समझने वाला।

शुक्रवार को यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव फिरोजाबाद पहुंचे तो आशा वर्कर मुर्दाबाद करने पहुंच गईं। पुलिस लाइन में मुख्यमंत्री करोड़ों की योजनाओं का लोकार्पण कर रहे थे तभी 100 आशा महिलाएं पहुंच गईं। मुख्यमंत्री को देखते ही उनका सब्र टूट गया। सिस्टम के प्रति आशा की भी हद होती है। वहां पानी नहीं मिला तो कई आशा महिलाएं बेहोश हो गईं। इनकी मांग थी कि गांव-गांव जाकर महिलाओं को प्रसव के लिए जिला अस्पताल तक लाती हैं। इसके लिए सौ रुपये प्रतिदिन मिलते हैं। बार-बार आश्वासन दिया गया कि स्थाई किया जाएगा, मगर अभी तक अस्थाई नौकरी पर हैं। भत्ता बढ़ाने की मांग भी पूरी नहीं होती। आप गूगल करेंगे तो पता चलेगा कि 12 मई को उत्तराखंड की आशा महिलाओं का प्रदर्शन होने वाला है। किसी राज्य में इन्हें पांच सौ रुपये प्रति दिन मिलते हैं तो किसी राज्य में तीन सौ भी। काम वही है मगर सरकार की मर्ज़ी हुई तो मांग सुनी जाएगी। मेघालय में 1000 रुपया प्रतिदिन मिल रहा है। जबकि इनकी भूमिका आपके समाज को बेहतर करने के लिए काफी महत्वपूर्ण है।

कई बार लगता है कि लोकतंत्र के लिए सिर्फ राजनीतिक दल ही संघर्ष कर रहे हैं। ध्यान से देखेंगे कि उनसे कहीं ज्यादा यह समूह संघर्ष करते हैं। कहीं स्कूल की फीस के खिलाफ मां-बाप बैनर लिए चले जा रहे हैं तो कहीं अपनी दिहाड़ी बढ़ाने के लिए लाठी खाके आ रहे हैं। राजनीतिक दल का व्यक्ति तो दो-चार जेल यात्राएं और धरना प्रदर्शन करने के बाद हो सकता है कि मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री बन जाए लेकिन आम लोग इन प्रदर्शनों के लिए बड़े खतरे उठाते हैं। नौकरी दांव पर लग जाती है। असुरक्षा और बढ़ जाती है। कुछ लोग अपने प्रदर्शनों को हास्यास्पद रूप भी देते हैं ताकि कैमरों के लिए आकर्षक हो जाए।

मध्यप्रदेश के रीवा में भ्रष्टाचार के खिलाफ अनोखा विरोध-प्रदर्शन दिखा। लगातार भ्रष्टाचार के खिलाफ शिकायत पर प्रशासन के ध्यान न देने से नाराज विश्वनाथ पटेल ने अनोखा रास्ता चुना। उन्होंने प्लेटफॉर्म बनाया और उसे 60 फुट गहरे कुएं में डाला और उतर गए। यानि वे न जमीन पर थे न आसमान पर और अपना विरोध जता रहे थे। कभी देखा है ऐसा विरोध प्रदर्शन। अकेले हैं लेकिन हौसला इतना बुलंद है कि किसी और के इंतजार की जरूरत नहीं। भ्रष्टाचार के खिलाफ खुद ही निकल पड़े हैं, भले उन्होंने जो रास्ता चुना उससे लोगों को एतराज हो सकता है, लेकिन उनकी नीयत पर तो नहीं ही। उन्होंने अपने अनोखे विरोध प्रदर्शन की जानकारी पहले ही प्रशासन को दी थी, लेकिन उस वक्त किसी ने शायद गंभीरता से नहीं लिया था। लेकिन जब बड़े अधिकारियों को विश्वनाथ की मुहिम का पता चला, वे दौड़े चले आए और फिर उन्हें किसी तरह कुएं से बाहर आने के लिए मनाया गया। हालाकि अधिकारियों को कार्रवाई करने का लिखित भरोसा देना पड़ा। बिना इसके विश्वनाथ बाहर आने को तैयार नहीं थे।

हमारे न्यूज़ रूम में कई जगहों से ऐसी फीड आती रहती है। देश भर के अखबारों में हजारों की संख्या में लोग प्रेस रिलीज दे आते हैं कि आज फलां फलां मामले पर प्रदर्शन किया। इनमें अपनी नौकरी को स्थाई करने से लेकर पांच साल के लिए स्थाई रूप से मुख्यमंत्री बने नेता जी के इस्तीफे की मांग होती है। कुछ प्रदर्शनों में तो गजब का धीरज होता है। उनके साथ कोई दल नहीं होता। कोई मीडिया नहीं होता मगर लड़ाई जारी रहती है। क्या आपने किसी नेता को इनके हक में ट्वीट करते देखा है। हेडलाइन बनाने वाली तुकबंदी टाइप के बयान तो झट से आ जाते हैं मगर आम लोगों के साथ तभी खड़े होते हैं जब इनका फायदा होता है।

लुधियाना का यह किस्सा सुनिए। लुधियाना में अभिभावक मंच 17 मार्च से प्रदर्शन कर रहा है। फीस बढ़ाने में स्कूलों की मनमानी के खिलाफ इनका प्रदर्शन चल रहा है। इन अभिभावकों ने उपायुक्त से भी मुलाकात की है। मांग की कि उन्होंने पंद्रह सदस्यों की कमेटी बनाई थी, अब उसके फैसले को लागू किया जाए। डीसी ने प्राइवेट स्कूल के लोगों से मुलाकात की और कहा कि मिलजुल कर इसका समाधान निकाल लिया जाएगा। अब आप एक बात बताइए। सारे राजनीतिक दल आम जनता के लिए ही कसमें खाते हैं तो ऐसे प्रदर्शनों में वे क्यों नहीं शामिल होते हैं। क्या चुनाव के बाद राजनीतिक पार्टियां जनता को छोड़ देती हैं। लुधियाना के इन अभिभावकों ने 5 अप्रैल को भूख हड़ताल भी की थी। इनका नारा है निकलो बाहर मकानों से, जंग लड़ो बेईमानों से। लोग अपने अपने नारे भी गढ़ रहे हैं। बंद करो बंद करो, लूटखसोट बंद करो। मम्मी पापा न बेचो सोने की चूड़ियां, पेरेंट एसोसिएशन को बताओ मजबूरियां। क्या बात है...सलाम आप लोगों को।  

मुझे पता है मैं आपके साथ ज्यादती कर रहा हूं। इतना धरना-प्रदर्शन देखकर आप निराश हो सकते हैं लेकिन यह भी तो देखिए कि इन लोगों ने लोकतंत्र को किस तरह से जिंदा रखा है। एक दिन आपको भी सड़क पर उतरना होगा। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि सरकारें वाकई कितनी संवेदनशील हो सकते हैं। बहुत पॉज़िटिव हो गए हों तो..।


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