सुबह जब आप 'बेड-टी' के साथ न्यूजपेपर पढ़ रहे थे, तो शायद इस खबर पर भी निगाह पड़ी होगी. देश के 'अन्नदाता' दिल्ली आए थे. अपना हक मांगने, लेकिन आपके अखबार ने उनकी मांग से ज्यादा यह बताना जरूरी समझा कि उनकी वजह से जाम लग गया. हेड लाइन भी यही बनी. चलिये, मैं आपको किसानों की मांग और उनकी तकलीफ के बारे में बताता हूं. नाबार्ड यानी राष्ट्रीय कृषि व ग्रामीण विकास बैंक ने जनवरी से जून 2017 के बीच एक सर्वे किया. इस सर्वे के मुताबिक देश के 87 फीसद किसानों के पास 2 हेक्टेयर से भी कम जमीन है. अगर आपका खेती-किसानी से थोड़ा सा भी साबका रहा है/होगा, तो समझ सकते हैं कि दो एकड़ जमीन कितनी होती है और इसमें क्या उपजाकर कितना कमाया जा सकता है. नहीं तो गूगल कर सकते हैं. नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (NSSO) ने साल 2012-13 में इसी तरह का एक सर्वे किया था. इसके मुताबिक तब 86.5 प्रतिशत किसानों के पास 2 हेक्टेयर या इससे कम जमीन थी. यानी सूरत अभी भी बदली नहीं है.
लेकिन नाबार्ड के सर्वे में जो सबसे चौंकाने वाली बात है वह यह कि इन 87 फीसद किसानों की आय अभी 2436 रुपये के आसपास है. हम मान लें कि एक परिवार में न्यूनतम 5 लोग होंगे तो एक सदस्य के हिस्से 500 रुपये से भी कम आएगा. किसान दिल्ली आए थे, अब दिल्ली के 'चश्मे' से इस आंकड़े को देखें. 500 रुपये में आप क्या-क्या कर लेंगे? दो वक्त लंच और डिनर, या सिर्फ लंच या डिनर या एक चाय/कॉफी या शायद इतना टिप ही दे दें. राजधानी कूच करने वाले किसानों की मांग है कि स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिश के अनुसार उन्हें उनकी फसल का उचित मूल्य मिले. दिल्ली में इन दिनों आलू 20-25 रुपये किलो है, लेकिन आप जानते हैं किसानों ने आलू की फसल को कितने रुपये किलो में मंडी में बेचा था? 4 से 5 रुपये...जी हां, सही पढ़ा आपने. किसानों की और क्या मांग है, फसलों की समय पर सिंचाई के लिये डीजल के दाम में कुछ कमी मिल जाए और बिजली के दाम में थोड़ी सी रियायत.
जल्द ही सर्दियां शुरू होने वाली हैं. आप देश की राजधानी में मख़मली कंबल में लिपटकर गर्मागर्म चाय की चुस्कियां ले रहे होंगे, लेकिन क्या आप जानते हैं कि चाय में जिस चीनी से मिठास आई है, उसे पैदा करने वाले किसान अपनी फसल की बकाया राशि के लिए चक्कर काट रहे हैं? गन्ना किसानों का 10 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का बकाया है. यूं तो सरकार ने गन्ना किसानों के लिए 'स्पेशल पैकेज' की घोषणा की है, लेकिन किसानों तक यह पैकेज कैसे और किस रूप में आता है यह शायद किसी से छिपा नहीं है! चाहें तो इसे भी गूगल कर सकते हैं. हां...किसानों ने एक और 'बहुत बड़ी मांग' कर दी. विपरीत परिस्थितियों का सामना करने वाले किसान की सामाजिक सुरक्षा. सर्दी के दिनों में जब हम/आप, हाकिम-हुक्काम और हुजूरे आला मुलायम रजाई में दुबके रहते हैं तब कोई किसान कड़ाके की ठंड में गेहूं की फसल में पानी दे रहा होता है. और ऐसी ही किसी रात ठंड की वजह से उसकी जान चली जाती है. 2436 रुपये कमाने वाले उसके परिवार को क्या कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं मिलनी चाहिए?
इन दिनों मक्का पकने को है और धान में बालियां लगनी शुरू हो गई हैं. जिस किसान को हाथ में फावड़ा, दरांती, खुरपी और कुदाल लिये खेतों में होना चाहिए था, वह अपनी मांगों को लेकर दिल्ली आया, लेकिन आपने क्या किया? जिस शरीर से मिट्टी की सौंधी खुशबू लिपटी होनी चाहिए थी, उसको लहू से रंग दिया. किसी किसान के सिर में चोट आई, तो किसी का हाथ-पैर टूटा! क्या उनकी बात सुनी नहीं जा सकती थी? क्या उनकी मांग वाकई इतनी बड़ी थी? चंद दिनों में चुनाव आने वाले हैं. याद रखिये, 'दिल्ली का रास्ता' किसानों के दर से होकर ही गुजरता है और आपको उसके दर पर जाना ही पड़ेगा. लेकिन किस मुंह से जाएंगे? कल किसानों पर जो लाठियां चटकाई गई हैं, उसके निशान इतने जल्दी नहीं मिटने वाले हैं. हवा-हवाई दावों और वादों से तो कतई नहीं. याद रखियेगा.
(प्रभात उपाध्याय Khabar.NDTV.com में चीफ सब एडिटर हैं...)
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This Article is From Oct 03, 2018
किसानों के सामने कौन सा मुंह लेकर जाएंगे?
Prabhat Upadhyay
- ब्लॉग,
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Updated:अक्टूबर 03, 2018 15:19 pm IST
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Published On अक्टूबर 03, 2018 14:28 pm IST
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Last Updated On अक्टूबर 03, 2018 15:19 pm IST
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