जब सरकारें आपको कम्युनिस्ट बताकर गिरफ्तार करने आने लगे तो समझ लेने का वो आखिरी वक्त होता है कि अब आपकी कोई हैसियत नहीं है. जब टीवी चैनल अर्बन नक्सल और कम्युनिस्ट बताकर देश का दुश्मन टाइम बहस करने लगें तो समझ लेने का आखिरी वक्त होता है कि अब नौकरी से लेकर पढ़ाई पर बात नहीं होगी. अब आपकी बात ही नहीं होगी और जो भी होगी उस प्रोपेगैंडा के हिसाब से होगी, जिसे मैं अक्सर थीम एंड थ्योरी कहता हूं. जिसे लेकर एक तरफ विरोधी या सवाल करने वालों को कुचला जा सके और दूसरी तरफ सवाल न उठे इसका इंतज़ाम किया जा सके. थीम एंड थ्योरी के तहत तीन मूर्ति में किस किस की मूर्ति लगेगी बहुत कमज़ोर टॉपिक था. इसलिए आज एक नया टॉपिक न्यूज़ मीडिया के मार्केट में लांच हो गया है, जिसके सहारे धीरे-धीरे मीम बनकर आपके व्हाट्सऐप में आने लगेगा. आप लाठियां खाते रहें कि सरकारी नौकरी में बहाली कब होगी मगर आपके सारे रास्ते बंद हो चुके हैं.
सरकार के अलग-अलग विभागों के पास 24 लाख नौकरियां देने के लिए हैं मगर बहस इस बात पर है कि देश का नया दुश्मन मिल गया है, जिसका अब एक नया नाम है अर्बन नक्सल. प्रोपेगैंडा नए शब्दों, नई भाषा की डिज़ाइल का शातिर खेल होता है. इसका पता तब चलेगा जब लाखों नौजवानों की जवानी बर्बाद हो चुकी होगी. पुणे पुलिस ने आज देश भर में छापे मार कर 5 मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया है. इस साल जनवरी कोरेगांव भीमा में हुई हिंसा के संदर्भ में गिरफ्तारी हुई है. हैदराबाद से वारवरा राव, फरीदाबाद से सुधा भारद्वाज, मुंबई से अरुण फरेरा वर्नान गोज़ाल्विस, दिल्ली से गौतम नवलखा को गिरफ्तार किया गया है. दिल्ली फरीदाबाद, गोवा, मुंबई, रांची और हैदराबाद में छापे डाले गए.
वकील प्रशांत भूषण ने तो ट्वीट किया है कि फासीवादी दांत अब खुले में निकल आए हैं. पुणे पुलिस गौतम नवलखा को पुणे ले जाना चाहती थी, मगर दिल्ली हाईकोर्ट ने रोक लगा दी है. वे पुलिस सुरक्षा में अपने ही घर में रहेंगे और सिर्फ अपने वकीलों से मिल सकेंगे. रांची में फादर स्टान स्वामी, तेलंगाना से क्रांति के घर में भी छापे पड़े हैं. लैपटॉप, पेन ड्राइव, और अन्य दस्तावेज़ सीज़ किया गया है. इनमें क्या है, अभी इसकी कोई जानकारी नहीं है. कुछ गिरफ्तारी की पुष्टि नहीं हो पाई है.
70 साल के वरवरा राव कवि हैं और एक्टिविस्ट हैं. इस उम्र में उन्हें कथित रूप से प्रधानमंत्री की हत्या की साज़िश रचने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है. बताया गया है कि पुणे पुलिस ने जून महीने में पांच लोग गिरफ्तार किए थे. इनमें से एक के यहां से एक चिट्ठी में वारवरा राव का नाम था. प्रधानमंत्री की हत्या का मामला हो और गिरफ्तारी अगस्त के आखिर में हो, बहुत कुछ समझ में आता है और बहुत कुछ उससे भी ज़्यादा समझ में आता है. पिछले साल 31 दिसंबर को भीमा कोरेगांव युद्ध के 200 साल होने पर पांच लोगों की गिरफ्तारी हुई थी. जून के महीने में सुधीर धावले, सुरेंद गडलिंग, महेश राउत, रोना विल्सन, शोमा सेन को अरेस्ट किया गया था. इन पर आरोप था कि कोरेगांव भीमा गांव में इन्होंने भड़काऊ भाषण दिए थे जिससे बाद में हिंसा हुई थी. इन्हीं पांच लोगों से पूछताछ के बाद 28 अगस्त को कई जगहों पर छापे पड़े हैं. आपको याद होगा कि कोरेगांव भीमा में तीन लाख लोग जमा हुए थे. यह मौका था मराठा पेशवा के ऊपर दलित समुदाय की जीत को यादगार रुप में मनाने का. दलित कार्यकर्ता और विचारक शोषितों की जीत के रूप में मना रहे थे.
दक्षिणपंथी कार्यकर्ताओं ने इसका यह कहकर विरोध किया था कि ब्रिटिश सेना की जीत थी, इसका जश्न कैसे मन सकता है. इसे लेकर टकराव हुआ था. कुछ दिनो तक यह हिंसा महाराष्ट्र के कई शहरों में फैल गई थी. एक व्यक्ति की मौत हो गई थी और कई लोग घायल हो गए थे. यह इसलिए बताया क्योंकि भीमा कोरेगांव के मामले में गिरफ्तार लोगों से पूछताछ के संदर्भ में छापे पड़े हैं, गिरफ्तारी हुई.
अरुंधति राय ने इन छापों की निंदा करते हुए कहा है कि वकील, कवियो, लेखकों और दलित अधिकार कार्यकर्ताओं के घरों पर छापे डाले गए हैं. उन्हें छापे उनके घरों में डालने चाहिए थे जो मॉब लिंचिंग कर रहे थे. दिनदहाड़े लोगों की हत्या कर रहे थे. लेखिका अरुंधति राय का यह बयान है. हैदराबाद में वरवरा राव के परिवार वालों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने प्रेस कांफ्रेंस की है. हैदराबाद में एक पत्रकार के घर भी छापा पड़ा है.
पुलिस ने अपनी तरफ से कोई प्रेस कांफ्रेस नहीं की है. गिरफ्तार किए गए लोगों में वकील सुधा भारद्वाज भी शामिल हैं. आप उनके ट्विटर हैंडल @sudhabhardadwaj पर जाकर देख सकते हैं. वो सबके बीच मौजूद रहती हैं मगर आप खुद भी जाकर देख सकते हैं कि ये ऐसा क्या सोचती हैं, क्या करती हैं कि इन जैसे वकील की भी गिरफ्तारी हुई है. सुधा के द्वारा शेयर किए सारे मामले लोगों की ज़िंदगी और हक के सवाल से जुड़े हैं. सुधा भारद्वाज नेशनल ला यूनिवर्सिटी दिल्ली में विजिटिंग प्रोफेसर है. पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टी की राष्ट्रीय सचिव हैं. 30 सालों से मज़दूर आंदोलनों से जुड़ी हैं. छत्तीसगढ़ में रहकर वहां के लोगों के लिए मुकदमा लड़ती हैं. सुधा भारद्वाज की मां कृष्णा भारद्वाज ने जेएनयू में सेंटर फॉर इकोनोमिक्स की स्थापना की थी. स्क्रोल वेबसाइट की पत्रकार सुप्रिया शर्मा ने ट्वीट किया है कि पत्रकारों से उनका इसी बात को लेकर रिश्ता था कि फलां कॉरपोरेट ने किसी बेआवाज़ आदिवासी या मज़दूर को झूठे मुकदमे में फंसा दिया है. मीडिया को कवर करना चाहिए. बस्तर जाकर कवर करने वाले पत्रकार राहुल पंडिता ने भी लिखा है कि सुधा भारद्वाज नक्सल नहीं हो सकती हैं. सुधा भारद्वाज दुनिया भर की यूनिवर्सिटी में जाकर लेक्चर देती हैं. आईआईटी कानपुर से मैथमेटिक्स की पढ़ाई की है. वायर पर मोनोबिना गुप्ता ने सुधा भारद्वाज के बारे में लंबा लिखा है, आप ज़रूर पढ़ें ताकि आप समझ सकें कि जिन्हें अर्बन नक्सल चैनलों में बताया जा रहा है वो कौन लोग हैं. उन्होंने अपनी ज़िंदगी में जो त्याग किया है, बिना किसी जांच और मुकदमे के क्या न्यूज़ चैनल गरीबों के लिए उनकी समर्पित ज़िंदगी को दागदार कर सकता है. कर सकता है क्योंकि अब गोदी मीडिया का यही काम रह गया है.
एक और नाम है आनंद तेलतुंबड़े, जिनके गोआ वाले घर में छापा पड़ने की खबर है. आनंद अपने घर में नहीं थे. आनंद तेलतुंबड़े का नाम और मुकाम दलित मसलों पर लिखने वालों में काफी बड़ा है. आप खुद भी उनके लेख इंटरनेट पर सर्च कर पढ़ सकते हैं देख सकते हैं कि क्या इस तरह की बारीक सोच और बेहतरीन लिखने वालों को न्यूज़ चैनलों को लगाकर अर्बन नक्सल कहलवाया जा सकता है. बस्तर इलाके में घूम घूम कर लिखने वाले पत्रकार राहुल पंडिता का भी कहना है कि सुधा नक्सल नहीं हो सकती हैं. वेबसाइट स्क्रोल की पत्रकार सुप्रिया शर्मा का भी कहना है कि पत्रकारों से उनका ताल्लुक इसी बात को लेकर रहा है कि किसी मज़दूर के साथ अन्याय हुआ है, कोरपेरेट कंपनी ने किसी को झूठे मुकदमे में फंसा दिया है.
इकोनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली, इंडियन एक्सप्रेस, आउटलुक, हिन्दू , कैरवांन पत्रिका, वायर, स्क्रोल, मिंट न जाने किस किस अखबार में आनंद लिखते हैं और उनके लेख को गंभीरता से लिया जाता है. इंजीनियरिंग की पढ़ाई की, फिर एमबीए किया और कंपनी में सीईओ भी रहे, लेकिन उसके बाद लिखने पढ़ने की दुनिया में आ गए. आधुनिक भारत में दलित नेताओं की विरासत को लेकर उनकी समझ काफी गहरी मानी जाती है. आनंद तेलतुंबड़े के पिता मज़दूरी करते थे. स्कूल में कुछ सवर्ण छात्रों को काली टोपी पहना देखा तो टोक दिया था कि गांधी टोपी क्यों नहीं पहनते हो. 1967 की घटना है. दलित परिवार में जन्मे आनंद तेलतुंबड़े ने गरीबी देखी है मगर डर नहीं देखा. इसलिए वे लिखने में भी उतने ही साहसी और संतुलित हैं. फिल्मों को जो होर्डिंग होती है, उसकी पेंटिंग कर अपनी पढ़ाई का खर्चा निकाला. इस पैसे से 100 नीली टोपियां खरीद कर छात्रों में बांट दी थी. पांच दशक बाद यही बच्चा Tata Institute of Social Sciences (Tiss), से पीएचडी करता है. एक किताब लिखता है, Republic Of Caste: Thinking Equality In The Time of Neoliberal Hindutva, यह किताब नव्याना प्रकाशन से छपी है. इंडियन इस्टिट्यूट ऑफ मैनेजमेंट से एमबीए की डिग्री है आनंद की.
ऐसे बहुत से नाम हैं जिनके परिचय के बारे में बताया जा सकता है. इस गिरफ्तारी पर वकीलों से लेकर राजनेताओं ने कड़ी प्रतक्रिया जताई है. उन्हें लगता है कि सनातन संस्था को लेकर एटीस की गिरफ्तारी और जांच की कामयाबी से ध्यान हटाने के लिए यह सब किया गया है. सरकार इस गिरफ्तारी के ज़रिए डराना चाहती है.