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This Article is From Mar 20, 2019

पहली बार सियासी बातचीत में छाया 'चौकीदार'

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मार्च 20, 2019 00:28 am IST
    • Published On मार्च 20, 2019 00:28 am IST
    • Last Updated On मार्च 20, 2019 00:28 am IST

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 20 मार्च को देश भर के असली चौकीदारों से बात करेंगे. शाम साढ़े चार बजे यह बातचीत होगी. दावा किया जा रहा है कि 25 लाख चौकीदारों को संबोधित किया जाएगा. 31 मार्च को उन चौकीदारों से भी बात करेंगे जो ट्विटर पर बने हैं. इसका मतलब यह हुआ कि बीजेपी चौकीदार वाले अभियान को लेकर गंभीर है. तो हमने सोचा कि उन 25 लाख चौकीदारों में से झारखंड में 10,000 चौकीदारों का हाल पहले ही बता दें, जिन्हें कई महीनों से सैलरी नहीं मिली है. कुछ ज़िलों में नवंबर से सैलरी नहीं मिली है तो कुछ ज़िलों में जनवरी के बाद सैलरी नहीं मिली है. हर त्योहार से पहले इनकी यही खबर होती है कि दिवाली से पहले वेतन नहीं मिला तो फीकी रहेगी दिवाली और होली से पहले वेतन नहीं मिला तो फीकी रहेगी होली.

झारखंड के स्थानीय अखबारों में चौकीदारों पर छपी इन खबरों को देखिए. चौकीदार थाने के गुलाम बनकर रह गए हैं. गांवों में नियुक्ति होनी चाहिए मगर इन्हें बड़े अधिकारियों के घर पर प्राइवेट काम के लिए रखा जाता है. बर्तन मंजवाते हैं. पत्ते चुनवाते हैं. इनके प्रदर्शन की पुरानी खबरों की क्लिपिंग बताती है कि समय पर वेतन मिलना इनकी मुख्य मांग रही है. रांची से 40 किमी दूर रातू थाना के बाहर कुछ चौकीदार जमा हुए हैं. इनका वेतन 20,000 है. मगर कभी समय पर नहीं मिलता है. इनका सवाल यह है कि जब नकली चौकीदारों यानी मुख्यमंत्री और विधायकों को सैलरी पहली तारीख को आ जाती है तो इनकी सैलरी आने में महीनों का वक्त क्यों लगता है.

1870 में चौकीदार एक्ट बना था. 30 दिसंहबर 1989 को बिहार कैबिनेट ने चौकीदारों को चतुर्थ श्रेणी का कर्मचारी घोषित किया था. 20 दिसंबर 1995 को लालू यादव की सरकार की कैबिनेट ने एक प्रावधान लाया कि चौकीदार के नामित आश्रित को नौकरी दी जाए. मगर किसी को नौकरी नहीं मिली. 23 मई 2014 को झारखंड सरकार ने आदेश जारी किया कि जिन जगहों पर चौकीदारों के आश्रितों की नियुक्ति होनी है, उसे स्थगित रखा जाए. तब से आश्रितों की कोई नियुक्ति नहीं हुई है. यह बात शायद लालू यादव को भी अब याद न हो. चौकीदारों के हर प्रदर्शन में ये भी एक मांग होती है कि आश्रितों की नियुक्ति हो.

झारखंड के चौकीदार संघ के अध्यक्ष कृष्ण दयाल सिंह ने बताया कि हाईकोर्ट के आदेश के अनुसार 2015 में एक नियमावली बनी थी. जिसके अनुसार हर 100 से 120 घरों पर एक चौकीदार नियुक्त होना चाहिए. मगर इसकी जगह जो चौकीदार काम कर रहे थे उन्हें ही हटा दिया गया. कृष्ण दयाल सिंह के अनुसार ग्रामीण इलाकों में उग्रवादी चौकीदारों की हत्या कर देते हैं मगर उन्हें कोई मुआवज़ा नहीं मिलता है. बिहार के सभी ज़िलों में एक महीने से चौकीदारों को वेतन नहीं मिला है. कई ज़िले में दो तीन महीने से सैलरी नहीं मिली है. मधुबनी के जयनगर में पांच महीने से सैलरी नहीं मिली है. छपरा में भी तीन महीने से सैलरी नहीं मिली है. बिहार में चौकीदारों को चतुर्श श्रेणी का माना जाता है इनकी सैलरी 20,000 से शुरू होकर 30 हज़ार तक होती है. बिहार में सबसे अधिक चौकीदार पटना में हैं और मधुबनी में हैं. अगर बिहार और झारखंड के चौकीदारों को सैलरी मिल जाए तो कम से कम ये लोग प्राइम टाइम के नाम से भी होली खेल लेंगे. कम से कम बिहार और झारखंड की सरकार यही प्रण कर लें कि अब चूंकि प्रधानमंत्री ट्विटर पर चौकीदार बन गए हैं तो कम से कम असली चौकीदारों का वेतन विधायकों से पहले मिलना चाहिए. 

हम आपको बता रहे हैं कि नेताओं के चौकीदार...चौकीदार खेलने में और असली जीवन में चौकीदार का जीवन जीने में कितना फर्क है. गांव कस्बों में चौकीदारों का जीवन कैसा यह जान लेने में हर्ज नहीं. अगर कैंपेन के लिए कैच लाइन लिखने वालों का यह अभियान सफल ही होना है तो इसी बहाने इन चौकीदारों के जीवन में भी बहार आ जाना चाहिए. जिन घरों की सुरक्षा के लिए इन चौकीदारों पर ज़िम्मेदारी है उनके अपने घर में ऐसा कुछ नहीं जिसकी चौकीदारी की जाए. दरवाज़ा तक नहीं है और छत भी हवा के साथ ऊपर नीचे होती रहती है. चौकीदारों के इस जीवन स्तर को देखते हुए आप ट्विटर वाले चौकीदारों का जीवन स्तर देखिए. एसपीजी सुरक्षा घेरे में चलने वाले चौकीदार काश इन घरों के चौकीदारों का हाल जानते. ये घर उन चौकीदारों के हैं जो मुरादाबाद के कुंदरकी थाने में काम करते हैं. हमारी कोशिश है कि इनका जीवन स्तर बेहतर हो. बिहार और झारखंड की तरह इन चौकीदारों को भी 20,000 से अधिक वेतन मिले. 1500 के वेतन पर ये चौकीदार कैसे काम करते होंगे.

थाने के बाहर इनके काम का हाल देख कर नहीं लगता कि इनसे चौकीदारी हो सकती है. शरीर कमज़ोर दिखता है. आज आम राम किशोर, शिवकुमार, बीर सिंह चौकीदार की व्यथा सुनिए. हो सके तो इनका ट्विटर अकाउंट बनाकर, प्रधानमंत्री को टैग कर दें. कितना अच्छा होगा कि हमारी व्यवस्था में जिन चौकीदारों का भयंकर शोषण हो रहा है वे ट्विटर पर प्रधानमंत्री के साथ टैग हो जाएं और कहें कि हम भी हैं चौकीदार, सुन लो हमारी चौकीदार.

कई साल पहले हमने दिल्ली महानगर में काम करने वाले सिक्योरिटी गार्ड के जीवन पर बकायदा एक डाक्यूमेंट्री बनाई थी. यह इसलिए बता रहा ताकि आपको यह न लगे कि यह कैंपेन आया तो इनकी याद आई. बल्कि इनके जीवन को जानता हूं इसलिए लगा कि कैंपेन के बहाने बताया जाए. शहरों के सिक्योरिटी गार्ड की हालत बहुत अच्छी नहीं है. काम चल जाता है. 12 से 18 घंटे तक खड़े होकर नौकरी करते हैं. अगर प्रधानमंत्री के 31 मार्च के कार्यक्रम से पहले इतना ही हो जाए कि सारी सिक्योरिटी एजेंसी वचन ले लें, लिख कर दे दें कि सिक्योरिटी गार्ड को पूरे महीने में एक दिन की छुट्टी नहीं मिलती है, अब से हर सिक्योरिटी गार्ड को महीने में चार छुट्टियां मिलेंगी तो इस अभियान का कुछ फायदा भी हो.

तीन चार दिनों से 'मैं चौकीदार हूं' अभियान चल रहा है क्या आपने देखा कि मीडिया में असली चौकीदारों की हालत पर चर्चा हो रही है. चौकीदारी आसान काम नहीं है. यूपी के बलिया ज़िले के एक स्कूल का हाल बताना चाहता हूं ताकि चुनाव आयोग को याद रहे कि इस चुनाव में उसकी भी चौकीदारी ज़रूरी है. 

आप खुद बताएं यह स्कूल लगता है या भाजपा का मुख्यालय लगता है. बलिया के धरहरा गांव के इस सरकारी स्कूल को इस तरह से रंगा गया है जैसे वो बीजेपी का दफ्तर लगे. यह प्राइमरी स्कूल है. कई बार चुनावों में ऐसी जगह मतदान केंद्र बनाए जाते हैं. प्रिंसिपल की क्या यह सफाई पर्याप्त है कि मज़दूर से कहा गया कि गुलाबी से रंग दो और वह गलत रंग लेकर आ गया. पेंट का डिब्बा खुल गया तो वापस नहीं हो सकता. रंगने के बाद पता चला कि ये बीजेपी के झंडे से मिलता जुलता है. अब आप दर्शक ही बताएं. बीजेपी के झंडे में दो रंग हैं. क्या मज़दूर दोनों ही गलत रंग लेकर आया और यह गलत रंग बीजेपी के झंडे से मिलता जुलता था. बलिया के लोग ही बता सकते हैं कि ऐसी गलती सिर्फ एक ही स्कूल में हुई है या कई स्कूलों में हुई है. करुणा सिंधु ने प्रिंसिपल पुष्पा यादव से बात की कि उनका स्कूल बीजेपी के झंडे जैसा क्यों लगता है. गांव के लोग कहते हैं कि इससे बीजेपी का प्रचार हो रहा है. बच्चे स्कूल से लौट कर आते हैं तो कहते हैं कि हमारा विद्यालय भाजपा के रंग में रंग गया है.

पूछने पर अपर ज़िलाधिकारी ने कहा कि स्कूल को दोबारा से रंगवा दिया जाएगा. सवाल है कि आचार संहिता लागू होते ही प्रशासन ने यह काम खुद से क्यों नहीं किया. जब दीवारों पर पोस्टर वगैरह की गिनती शुरू हो जाती है तो यह स्कूल कैसे नज़र से बच गया. चुनाव आयोग क्या कर रहा है. क्या इस चूक के लिए अधिकारियों से सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए. हम तक यह जानकारी एक दर्शक के ज़रिए पहुंची जो इस स्कूल के बगल से गुज़र रहे थे. उम्मीद है कल तक इस स्कूल का रंग बदल दिया जाएगा.

चौकीदारों के वेतन से प्राइम टाइम शुरू हुआ था तो झारखंड से वेतन को लेकर परेशान एक और तबके की कहानी सुना देते हैं. ताकि आप इन रिपोर्टों के बहाने देख सकें कि दिल्ली के बाहर का हिन्दुस्तान कैसा दिखता है. सिस्टम की क्या हालत है. झारखंड के 67 हज़ार पैरा शिक्षकों को सितंबर महीने से वेतन नहीं मिला है. गिरिडीह के पैरा शिक्षक रवि रंजन सिन्हा ने शिक्षा प्रसार अधिकारी को पत्र लिखा है. उनसे छुट्टी मांगी है ताकि वे भीख मांग कर गुज़ारा कर सके. रवि रंजन सिन्हा 17 साल से एक स्कूल में पढ़ा रहे हैं. पत्र में लिखा है कि अब कर्जदार भी कर्ज नहीं देते हैं. बीमारी में दवा खरीदना मुश्किल हो जाता है. 67 हज़ार कर्मचारियों को 6 महीने से वेतन न मिले, इस पर कोई चर्चा नहीं. मीडिया ने खबर देखने वालों को ही ख़बरविहीन बना दिया है. 67 हज़ार लोगों को वेतन नहीं मिलना कोई न्यूज़ वैल्यू नहीं है. अगर यह खबर छपती भी है तो ऐसी खबरों का कोई ह्यूमन वैल्यू नहीं है. खबरें छपती हैं और सरकार अनसुना कर देती है. इन खबरों की जगह मीडिया में सर्वे हो रहा है कि किस नेता की लोकप्रियता कितनी प्रतिशत है. एक सर्वे के नंबर के पीछे लाखों करोड़ों लोगों की तकलीफ का नंबर ज़ीरो हो जाता है. इन सबको आखिरी बार पिछले साल सितंबर में वेतन मिला था. पिछले साल आपको याद होगा 15 नवंबर को रांची में पारा शिक्षकों पर लाठी चार्ज हुआ था. सैंकड़ों पारा शिक्षकों को जेल जाना पड़ा. हमारे सहयोगी हरबंस को विभाग के अधिकारियों ने बताया है कि वेतन देने के लिए पैसा नहीं है. सरकार से 200 करोड़ की मांग की गई है मगर पैसा नहीं आया है। 

भारत में लोकतांत्रिक मूल्य टीवी की दुनिया से बाहर और बहुत दूर बन रहे हैं. आज जब संकट गहरा है तब भी इसी संकट के बीच ऐसे मूल्यों के लिए नौजवान उठ खड़े हो रहे हैं. पटियाला के राजीव गांधी यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ के छात्रों ने कमाल की कामयाबी हासिल की है. भारत के हर राज्य में एक नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी है. पंजाब में पटियाला में है. यहां के छात्रों ने अपने हक की लड़ाई लड़ी और बगैर मीडिया के जीत गए. यह रिपोर्ट इसलिए दिखा रहा हूं और इतना बताने के लिए दिखा रहा हूं कि अगर आपमें नैतिक बल है, साहस है तो आपका प्रदर्शन आपकी लड़ाई बगैर मीडिया और न्यूज चैनलों के आए, दिखाए कामयाब हो सकता है.

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