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This Article is From May 18, 2015

...जो बॉम्‍बे वेलवेट नहीं देखना चाहते हैं

Ravish Kumar
  • Blogs,
  • Updated:
    मई 18, 2015 23:26 pm IST
    • Published On मई 18, 2015 20:24 pm IST
    • Last Updated On मई 18, 2015 23:26 pm IST
अपने वर्षों की यात्रा में सिनेमा जो नैरेटिव यानी क़िस्सा पैदा करता चलता है, उस किस्से से भी क़िस्सा निकलता रहता है। तभी बहुत पुराना सिनेमा अपने किसी न किसी रूप में सिनेमा में लौटता रहता है।

जैसे किसी फ़िल्म में अचानक कोई सीन साठ के दशक का हो जाता है तो किसी प्रसंग में कोई पुराना गाना बज उठता है। सिर्फ नोस्ताल्जिया के उभार के लिए नहीं बल्कि उस यात्रा को बताने के लिए जो आज तक जारी है। 'बॉम्‍बे बेलवेट' सिनेमा में बंबई और बंबई के सिनेमा का सिनेमा है।

पिछले रविवार ही इस फ़िल्म को देखने निकला था मगर फेसबुक और ट्वीटर पर छितराये समीक्षा के असर में इरादा बदल दिया। मैं सिनेमा हॉल से लौट आया। मैंने कोई समीक्षा नहीं पढ़ी क्योंकि मैं समीक्षा पढ़कर सिनेमा नहीं देखता लेकिन शीर्षक से लगा कि देखना मना हो गया है। जब पटना में फ़िल्में देखना शुरू किया तो हॉल के बाहर नोटिसबोर्ड के भीतर लगे पासपोर्ट साइज़ फोटो देखकर फ़िल्म के सीन की कल्पना करता था और देखता था। ट्रेलर, पोस्टर और फ़िल्म देखकर लौटे लोगों की चर्चाओं का ही ज्यादा असर रहा। दिल्ली आया तब तक कई लोग समीक्षक बन गए और हमारे देखने न देखने पर इनका असर आज भी जारी है। मैं भी ब्लॉग पर लिखते लिखते समीक्षक टाइप बन गया। पर हूं नहीं।

फ़िल्म की समीक्षा एक पेशेवर काम है। समीक्षक फ़िल्में देखता है, उन्हें जीता है लेकिन समीक्षक सिनेमा देखने के गाइड बना दिये गए हैं। सारे दर्शकों के बदले कोई एक समीक्षक दर्शक कैसे बन जाता है। पर यह सवाल तभी क्यों उठता है जब कोई फ़िल्म नहीं चल पाती है। तब क्यों नहीं उठता है जब चल जाती है। समीक्षक सिर्फ एक फ़िल्म नहीं देखता है। वो एक फ़िल्म की पहले की कई फ़िल्मों के अपने सांसारिक अनुभव से समीक्षा करता है। इसलिए उसके होने को ख़ारिज भी नहीं किया जा सकता क्योंकि हर समीक्षा एक जैसी नहीं होती और न होनी चाहिए।

बंबई को लेकर सिनेमा और राजनीति ने जो मिथक गढ़े हैं उन्हें प्रमाणिक इतिहास की धरातल पर लाया जाना बाकी है। अगर मैं कहूं कि बंबई की जड़ में अफ़ीम दबा है तो इस एक पंक्ति को समझने के लिए बंबई के इतिहास पर लिखी अनेक किताबों के बीच लौटना पड़ेगा। मुंबई से पहले बंबई की यात्रा समान अवसरों और लोकतांत्रिक अधिकारों की यात्रा नहीं है। इसकी यात्रा एक नेक्सस की यात्रा है जो आज मुकम्मल हो गई है। जो राजनीति, मीडिया, रीयल इस्टेट, पुलिस और सिनेमा के नाम-अनाम रिश्तों में छिपी है। बंबई पर क़ब्ज़े की लड़ाई का नैरेटिव आज भी चालू है। ये बंबई शहर हादसों का शहर है। जब अंधेरा होता है इक चोर निकलता है आधी रात के बाद। ऐसे अनेक गाने हैं जो बंबई के बंबई होने के काले सच को सफ़ेद करते रहते हैं। बॉम्‍बे का एक इतिहास इन फ़िल्मों और गानों में दर्ज है।

अनुराग कश्यप ने एक बेहतरीन फ़िल्म बनाई है। 'बॉम्‍बे वेलवेट' की कहानी अब बॉम्‍बे की नहीं रही। ग्रेटर नोएडा, नोएडा, गुड़गांव न जाने कहां कहां फैल गई है। मिडिल क्लास रीयल एस्टेट से सिर्फ सपना ख़रीदता है पर रीयल एस्टेट सपने पर नहीं सौदे की हकीकत पर खड़ा है। बंबई के महानगर होने से पहले की कहानी है बॉम्‍बे वेलवेट। इसके महानगर बनने के नेक्सस में फंस कर बलराज मारा जाता है। क्रिकेट कंट्रोल ऑफ़ इंडिया की कथा क्या आज भी जारी नहीं है। जो कल था वो आज भी है। मैं बॉम्‍बे वेलवेट को स्मार्ट सिटी के शोर में भी देखने लगा।

इस फ़िल्म का एक एक फ़्रेम यादगार है। रणबीर कपूर की अदाकारी की जितनी तारीफ़ की जाए वो कम होगी। ये रणबीर की सबसे अच्छी फ़िल्म है। अनुष्का शर्मा का अभिनय जितना प्रमाणिक लगा है वो उनके ताज़ा विवादों के कारण चर्चा का शिकार हो गया। फ़िल्म का सेट, शेड्स, डिज़ाइन, कपड़े सब प्रमाणिक तरीके से बनाए गए हैं। अमिताभ भट्टाचार्य के गीत कमाल के हैं। यह फ़िल्म न तो स्लो है और न इसमें इमोशन की कमी है। इस फ़िल्म में जो है उसके लिए देखा जाना चाहिए। दर्शक को भी नया देखना चाहिए। देखकर ख़ारिज करने के लिए सही पर ये वो फ़िल्म नहीं है जिसे समीक्षा में मिले एक स्टार को देख छोड़ दिया जाना चाहिए। ऐसी ही प्रतिक्रिया 'गैंग्स ऑफ़ वासेपुर' के वक्त देखी थी जो हमारे समय की एक महान फ़िल्म है।

सुना है अनुराग कश्यप दुखी हैं। पेरिस जा रहे हैं। पूरबिया कब इमोशनल होना छोड़ेगा समझ नहीं आता लेकिन वो इमोशनल नहीं रहेगा तो फिर पूरबिया भी नहीं रहेगा। आप इन पंक्तियों को पढ़ते हुए हंस सकते हैं पर राज साहब और यश जी अपने मन की फ़िल्में इसीलिये बना पाए क्योंकि वे अपने पंजाबीपन को कभी नहीं छोड़ पाये। राज कपूर या यश चोपड़ा नहीं मैं यश जी ही कहता हूं तभी लगता है कि मैंने उनकी शान में कुछ कहा है।

अनुराग कश्यप, दिबाकर बनर्जी, शूजित सरकार अपने दम पर खड़े होने वाले निर्देशक हैं। एक निर्देशक और फ़िल्मकार में तब फ़र्क समझ में आया जब 'गैंग्स ऑफ़ वासेपुर' देखी थी। जब 'पान सिंह तोमर' देखी थी, भले वो अनुराग की फ़िल्म नहीं थी। कहानी सब लिखते हैं पर साहित्यकार सब नहीं होते। कई लोगों के लिए सफलता के कई मानकों पर अनुराग असफल निर्देशक हो सकते हैं मगर एक फ़िल्मकार के रूप में कोई ख़ारिज नहीं कर सकता। इसलिए अनुराग की सारी फ़िल्में देखता हूं।

क्या फ़र्क पड़ता है एक निर्देशक मुंबंई छोड़ पेरिस चला जाए। उसे जाने दीजिये। पेरिस में भी उसे बॉम्‍बे वेलवेट की ही कहानी मिलेगी। महानगरों का इतिहास ही यही है। मेरे लिखे को समीक्षा न समझें और न ही पढ़ने के बाद फ़िल्म न देखने का अपना इरादा बदलें। आप एक अच्छी फ़िल्म नहीं देखेंगे तो कुछ नहीं होगा। हम बहुत सी अच्छी फ़िल्में नहीं देखते हैं। वैसे सोमवार दोपहर जब यह फ़िल्म देख रहा था तब हॉल में लोगों की संख्या देख हैरानी हुई। मुझे तो लगा कि मैं ही अकेला देख रहा होऊंगा। शायद अब भी लोग समीक्षा पढ़े बिना भी फ़िल्में देख रहे हैं।

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