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This Article is From Jun 25, 2019

काश, नारा होता - मोदी है, तो 'नामुमकिन है...'

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जून 25, 2019 16:50 pm IST
    • Published On जून 25, 2019 16:50 pm IST
    • Last Updated On जून 25, 2019 16:50 pm IST

झारखंड के सरायकेला में वह कौन सी भीड़ थी, जो तबरेज़ नाम के शख़्स को पोल से बांधकर घंटों मारती रही...? क्या इस भीड़ को हम भारतीय लोकतंत्र का हिस्सा मान सकते हैं...? इस भीड़ ने किसे वोट दिया होगा...? क्या वह सिर्फ़ चोरी के गुस्से में इस शख़्स को पीट रही थी...? या उसे उसके मुसलमान होने की सज़ा भी दे रही थी...? आख़िर उससे 'जय श्रीराम' या 'जय हनुमान' बुलवाने का क्या अर्थ था...? क्या यह भीड़ उन लोगों में शामिल नहीं है, जिन्होंने BJP को वोट देकर प्रधानमंत्री के हाथ मज़बूत किए होंगे...?

ध्यान से देखें, तो जिसे बहुत शिष्ट भाषा में राजनीतिक ध्रुवीकरण कहते हैं, दरअसल वह समाज को एक-दूसरे के सामने खड़ा करके - एक-दूसरे को दुश्मन की तरह पेश करके - वोट पाने की राजनीति है. राष्ट्रवाद के नाम पर, आतंकवाद के नाम पर या बहुसंख्यक हितों की रक्षा के नाम पर BJP ने यह कामयाब ध्रुवीकरण किया और लोकसभा चुनाव में विराट जीत हासिल की. इस लिहाज़ से सरायकेला में जो हुआ, वह दरअसल एक राजनीतिक अभियान का ही नतीजा है. इस अभियान के एक सिरे पर आतंकवाद के आरोप के बावजूद लोकतंत्र के मंदिर, यानी संसद तक पहुंचने वाली प्रज्ञा ठाकुर हैं, तो दूसरे सिरे पर तबरेज़ की पिटाई करने वाली भीड़ है, जो उनकी तरह के नेताओं को वोट देती है. इन दोनों के बीच वे बहुत सारे सांसद और मंत्री हैं, जो कभी गोकशी के नाम पर हत्या करने के आरोपी लोगों को माला पहनाते हैं, कभी गांधी को गोली मारने का अभ्यास करते हैं, कभी गोडसे की मूर्ति लगाने की वकालत करते हैं और कभी सरकार की आलोचना करने वालों को पाकिस्तान जाने की सलाह देते हैं.

इस तरह देखें, तो तबरेज़ की हत्या एक राजनीतिक विचारधारा के तहत की गई हत्या है. यह राजनीतिक विचारधारा भीड़ को एक तरह की वैधता और मान्यता देती है. इस राजनीतिक विचारधारा को एक शक्तिशाली भारत का ख़याल बहुत लुभाता है. 'मोदी है, तो मुमकिन है' जैसा नारा ताक़त के इसी ख़याल से पैदा होता है. भारत जब पुलवामा के आतंकवादी हमले का बदला लेने के लिए बालाकोट में हवाई हमला करता है, तो सबको ख़याल आता है - मोदी है, तो मुमकिन है. जब मसूद अज़हर को आतंकी करार दिए जाने के रास्ते में चीन अपना वीटो हटा लेता है, तो सबको ख़याल आता है - मोदी है, तो मुमकिन है. जब विजय माल्या या नीरव मोदी को भारत लाए जाने के रास्ते की कोई अड़चन दूर होती है, तो लगता है - मोदी है, तो मुमकिन है.

दरअसल, यह एक ताकतवर भारत का विमर्श है, जो मज़बूत राष्ट्र की अवधारणा से उपजा है. यह मज़बूत भारत इस देश के उन लोगों का सपना है, जो पहले से यहां मज़बूत हैं. उन्हें ऐसा देश चाहिए, जिससे पाकिस्तान डरे, जिससे चीन सतर्क रहे, जो पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था की संभावना लिए दुनिया भर के पूंजीपतियों के लिए सबसे दिलकश बाज़ार बने. इस ख़याल की जो अपनी विडम्बनाएं हैं, उन पर कभी बाद में चर्चा, लेकिन फिलहाल यही दिख रहा है कि 'मोदी है, तो मुमकिन है' का मंत्र इस नई वैश्विक महत्वाकांक्षा का सबसे प्रिय मंत्र है, जो 'जय श्रीराम' और 'जय हनुमान' जैसे मंत्रों के साथ मिलकर नया भारत बना रहा है. आख़िर संसद में शपथग्रहण के दौरान भी 'जय श्रीराम' सुनने को मिला और सरायकेला की मॉब लिंचिंग के समय भी 'जय श्रीराम' बुलवाया गया.

यह सब उस समय हो रहा है, जब प्रधानमंत्री 'सबका साथ, सबका विकास' के साथ 'सबका विश्वास' हासिल करने की बात कह रहे हैं. लेकिन क्या उनकी पार्टी, उनके कार्यकर्ता, उनके भक्त, 'मोदी है, तो मुमकिन है' में भरोसा करने वाले लोग इसी तरह सबका विश्वास हासिल करेंगे...? कायदे से प्रधानमंत्री को एक नया नारा देना चाहिए - 'मोदी है, तो नामुमकिन है.' 'मोदी है, तो मुमकिन है', मज़बूत की आक्रामकता का नारा है, 'मोदी है, तो नामुमकिन है', कमज़ोर के दिलासे का नारा होगा.

'मोदी है, तो नामुमकिन है' किसी तबरेज़ को यकीन दिलाएगा कि उसे कोई भीड़ पोल से बांधकर नहीं मार सकती. 'मोदी है, तो नामुमकिन है' किसी पहलू ख़ान को बचाने के काम आएगा. 'मोदी है, तो नामुमकिन है' किन्हीं दलितों पर चाबुक बरसाने वालों को डराएगा. 'मोदी है, तो नामुमकिन है' मुज़फ़्फ़रपुर में मारे जा रहे बच्चों का रक्षा कवच बनेगा.

लेकिन संकट यह है कि यह आकर्षक नारा नहीं है. इसमें वह सकारात्मक ऊर्जा नहीं है, जो देश को चाहिए. इसमें मजबूती की बू नहीं आती. दूसरा संकट यह है कि जिन लोगों और समूहों की वजह से नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने हैं, उन्हें ऐसी नामुमकिन सदाशयता नामंज़ूर होगी. अगर होती, तो मोदी को किसी नारे का सहारा लेने की ज़रूरत नहीं पड़ती. वह पहले भी कई बार कह चुके हैं कि इस तरह भीड़ की हिंसा उन्हें स्वीकार नहीं.

दरअसल 'मोदी है, तो मुमकिन है' में वही दर्प झलकता है, जो नेपोलियन बोनापार्ट की इस गर्वोक्ति में था कि उसके शब्दकोश में असंभव जैसा शब्द नहीं. वह एक तानाशाह था, जिसके युद्धवाद ने यूरोप को अरसे तक युद्ध में झोंके रखा. उसकी अथाह लोकप्रियता के एक दौर के बाद ऐसा भी दौर आया कि उसने देखा कि उसके लोग भी उसके ख़िलाफ़ हो चुके हैं. अंततः जिसे वह असंभव समझता था, वह क्षण भी उसके जीवन में आया, जब ब्रिटिश सेनापति नेल्सन ने उसे घेरकर आत्मसमर्पण को मजबूर किया और सेंट हेलेन द्वीप पर उसे अपने आख़िरी दिन काटने पड़े.

दरअसल, जीवन सब कुछ मुमकिन कर लेने से नहीं सधता, बहुत सारी चीज़ों को नामुमकिन भी करना होता है. भारतीय संदर्भों में वे बहुत सारी विडम्बनाएं हैं, जिन्हें नामुमकिन बनाने की ज़रूरत है. इसलिए सही नारा यह होगा कि 'मोदी है, तो नामुमकिन है'. लेकिन 'मोदी है, तो नामुमकिन है' का नारा लगाने के पहले प्रधानमंत्री को अपनी प्राथमिकताएं बदलनी होंगी. वर्ल्ड कप में शिखर धवन की चोट पर ट्वीट करने की जगह मुज़फ़्फ़रपुर के बच्चों की सेहत के लिए ट्वीट करना होगा. पाकिस्तान को डराने से ज़्यादा ध्यान अपने देश में उन लोगों को डराने पर देना होगा, जो क़ानून तोड़ना अपना विशेषाधिकार मानते हैं और कमज़ोरों को पीटना अपना सामाजिक अधिकार. 'मोदी है, तो नामुमकिन है' कहीं ज़्यादा मानवीय नारा होगा, जो कमज़ोरों के हक़ में होगा - लेकिन तभी, जब उनकी राजनीति भी इन कमज़ोरों के साथ होगी.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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