जिस समय लोकसभा में राष्ट्रपति के भाषण पर चर्चा का जवाब देते समय अपनी पीठ ठोकते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बिना नाम लिए सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता पंक्तियां दुहरा रहे थे- कि मैं सूरज को डूबने नहीं दूंगा, लगभग उसी समय झूंसी में यूपी सरकार की पुलिस एक कवि अंशु मालवीय को अपहर्ताओं की तरह एक कार्यक्रम के बीच से उठा कर गाड़ी में डाल कर कहीं ले जा रही थी. अंशु मालवीय गीत और कविता की दुनिया में कोई अनजान नाम नहीं हैं. उनके और उनके परिवार की एक पूरी गीत परंपरा है जो इलाहाबाद की विपुल साहित्यिक परंपरा की खुशबू का हिस्सा है. उमाकांत मालवीय, यश मालवीय और अंशु मालवीय इस परंपरा का हिस्सा है. उनके तीसरे भाई वसु मालवीय के असमय निधन का मातम भी एक दौर में इलाहाबाद ने मनाया है. इन सबके गीतों ने इलाहाबाद के पथ-चौराहों को सजाया है. उनके गीत हिंदी पट्टी में अपनी धज के साथ गूंजते रहे हैं.
अंशु मालवीय का कसूर क्या था? वे कुंभ में सफाईकर्मियों के मेहनताने में बढ़ोतरी की मांग के आंदोलन में शामिल थे. इन सफ़ाईकर्मियों की मेहनत से ही कुंभ चमक-दमक रहा है. इन्हें 295 रुपये रोज़ाना मिलते थे जिसे इन लोगों के दबाव में बढ़ाकर 310 रुपये किया गया. इनकी मांग 600 रुपये रोज़ाना थी- यानी 18000 रुपये महीने जो संगठित क्षेत्र के कर्मचारियों का न्यूतनतम निर्धारित वेतन है. जिस दिन इस मांग के साथ अंशु और उनके साथी मेला अधिकारियों से मिले थे, उस दिन भी इनके साथ अभद्रता हुई थी. अंशु के बड़े भाई यश मालवीय बताते हैं कि उस दिन इन्हें धमकी दी गई कि उनको पकड़ कर उन पर रासुका लगा दिया जाएगा. गुरुवार की शाम 'सिरजन' के एक कार्यक्रम में जब अंशु मालवीय झूंसी में कविता पढ रहे थे तब अचानक दो गाड़ियां रुकीं, कुछ लोग उतरे और उन्होंने अंशु को लगभग अगवा कर लिया. एक मोटरसाइकिल वाले साथी ने इन गाड़ियों का पीछा किया तो इन्हें बताया गया कि वे क्राइम ब्रांच के लोग हैं.
अगले कई घंटों तक अंशु मालवीय का कुछ पता नहीं चला. उन्हें किसी अनजान जगह पर रखा गया था. अंशु के मित्र, सहयोगी, इलाहाबाद के संस्कृतिकर्मी उनका पता लगाने की कोशिश करते रहे. सोशल मीडिया पर अंशु को लेकर अपील की जाती रही. यूपी पुलिस के बड़े अफ़सर परिचितों के फोन नहीं उठा रहे थे, लेकिन अंततः ये सारी कोशिशें कुछ कारगर हुईं और रात को 2 बजे एक काली सी गाड़ी अंशु मालवीय को इलाहाबाद के एक थाने छोड़ गई. अगर यह सब न हुआ होता तो बहुत संभव है कि अंशु मालवीय की किसी मामले में गिरफ़्तारी दिखाई जाती और अफ़सर अपनी चेतावनी के मुताबिक उन पर रासुका लगा चुके होते- उन्हे राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा घोषित कर चुके होते. क्या ऐसे ही समय के लिए कवि पाश ने लिखा था कि 'अगर देश की सुरक्षा का यही मतलब है / तो हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है'?
तरह-तरह की क्रूरताओं और ज़्यादतियों के मारे इस देश में यह कोई बड़ी ज़्यादती नहीं लगती. एक आदमी को बस कुछ घंटे के लिए पकड़ लिया जाता है और फिर छोड़ दिया जाता है. इन कुछ घंटों के दौरान क्या कुछ कहा-किया गया, इसकी ख़बर नहीं है, लेकिन वह निश्चय ही प्रीतिकर नहीं होगा. अखबारी भाषा और पुलिसिया कार्यशैली के हिसाब से यह वह हादसा है जो होते-होते रह गया. दरअसल इन सारी घटनाओं को हम कुछ संवेदनशील होकर देखने का अभ्यास खो बैठे हैं. बस यह कल्पना करें कि कोई आकर हमसे उलझ जाए, हमारा फोन छीन ले, हमारा पर्स लेकर भाग जाए या फिर हमारी पिटाई कर दे- इसकी थरथराहट, इसका ख़ौफ़ कितनी देर तक बचे रहते हैं. एक कवि को पुलिस उठा लेती है, यह किसी प्रताड़ना से कम नहीं है. यह प्रताड़ना इस एहसास से कुछ और बढ़ जाती है कि उसके साथ ऐसी हरकत करने वालों का कुछ नहीं बिगड़ेगा, और यह और तीखी हो जाती है इस अंदेशे से कि उसे दुबारा कहीं से उठाया जा सकता है.
शुक्र है कि अंशु इस अंदेशे से डरे नहीं हैं। वे फिर कुंभ क्षेत्र में मौजूद हैं और अपने प्रदर्शन में लगे हैं। यह एक सुखद दृश्य है कि सत्ता की धौंस से कवि डरा नहीं है। लेकिन क्या इसकी उसे कुछ और सज़ा नहीं भुगतनी पड़ेगी?
सवाल है, कुंभ में एक छोटे से आंदोलन से, जिसका मीडिया ने नोटिस तक लेने की जरूरत नहीं समझी, यूपी प्रशासन इस कदर परेशान क्यों हो गया कि उसने बाद में एक कवि को डराना जरूरी समझा? इसका जवाब मुझे आज सुबह यश मालवीय से हुई बातचीत में मिला. यश मालवीय बताते हैं कि इलाहाबाद के कुंभ का पूरा चरित्र बदल दिया गया है. पहले यह भक्तों का कुंभ होता था, अब यह भव्यता का कुंभ है. इसे वीआइपी पर्यटन में बदल दिया गया है. कुंभ कभी जिन गरीबों का आसरा हुआ करता था, वे पीछे धकेल दिए हैं और उनकी जगह अब बाज़ार-प्रेरित एक प्रदर्शनप्रिय संस्कृति स्थापित हो चुकी है. इन पंक्तियों का लेखक निजी तौर पर इसकी पुष्टि नहीं कर सकता, लेकिन लगभग तमाम मामलों में सरकार का जो रुख़ है, उसे देखते हुए यह स्वाभाविक ही लगता है कि कुंभ को भी अमीरों का ऐसा कर्मकांड बना दिया जाए, जिसमें बाज़ार भी फूले-फले और तमाशा भी ख़ूब दिखे. अंशु मालवीय का एक कविता की कुछ पंक्तियां इस बदली हुई संस्कृति का आईना लगती हैं-
गेहूं उगे शेयर नगरी में
खेतों में बस भूख उग रही
मूल्य सूचकांक पे चिड़िया
गांव शहर की प्यास चुग रही
करखानों में हाथ कट रहे
मक़तल में त्यौहारी
शहर-शहर में बरतन मांजे
भारत माता ग्रामवासिनी
फिर भी राशनकार्ड न पाए
हर-हर गंगे पापनाशिनी
ग्लोबल गांव हुई दुनिया में
प्लास्टिक की तरकारी
साधो !
करमन की गति न्यारी !
बहरहाल, मूल प्रकरण पर लौटें. इस पूरे प्रकरण में सरकार और प्रशासन का जो रवैया दिखता है, वह भी उसके अखिल भारतीय रवैये की ही पुष्टि करता है. सत्ता प्रतिरोध की आवाज़ों को हमेशा नापसंद करती है, लेकिन इस दौर में लेखक-कलाकार कुछ ज़्यादा ही वेध्य मान लिए गए हैं. उन्हें तरह-तरह के आरोपों में, अदालतों की रोक के बावजूद गिरफ़्तार किया जा रहा है, तंग किया जा रहा है और डराया जा रहा है. जहां तक देश का सवाल है, प्रधानमंत्री मोदी को कुछ और कविताएं पढ़नी चाहिए. जिस कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की उन्होंने बिना नाम लिए पंक्तियां इस्तेमाल कीं, उनकी एक और कविता की पंक्तियां हैं-
'यदि तुम्हारे घर के
एक कमरे में आग लगी हो
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में सो सकते हो?
यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में
लाशें सड़ रहीं हों
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो?
यदि हाँ
तो मुझे तुम से
कुछ नहीं कहना है।
देश कागज पर बना
नक्शा नहीं होता
कि एक हिस्से के फट जाने पर
बाकी हिस्से उसी तरह साबुत बने रहें
और नदियां, पर्वत, शहर, गांव
वैसे ही अपनी-अपनी जगह दिखें
अनमने रहें।
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे तुम्हारे साथ
नहीं रहना है।
इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा
कुछ भी नहीं है
न ईश्वर
न ज्ञान
न चुनाव
कागज पर लिखी कोई भी इबारत
फाड़ी जा सकती है
और जमीन की सात परतों के भीतर
गाड़ी जा सकती है।
जो विवेक
खड़ा हो लाशों को टेक
वह अंधा है
जो शासन
चल रहा हो बंदूक की नली से
हत्यारों का धंधा है
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे
अब एक क्षण भी
तुम्हें नहीं सहना है।'
वाकई दुर्भाग्य से हम ऐसे समय में रह रहे हैं जब एक कमरे में लाशें सड़ रही हैं और दूसरे कमरे में जश्न हो रहा है. इसे देखने वाले कवि की सज़ा यही है कि उसे कहीं भी पकड़ और उठा लिया जाए.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...
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